बलात्कार की तमाम घटनाओं के बीच फ़र्क़ यही था कि लोगों की चर्चाओं के बीच पीड़िता के शव को जला दिया गया. यह राज्य की तरफ़ से ऐसी नाफ़रमानी थी जो लोगों को धक से लग गई. राज्य और प्रशासन इस सवाल से भाग रहा है. वह नहीं चाहता कि कोई सवाल करता रहे. बेशक हाथरस में इसके अलावा भी बहुत कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था. जैसे ज़िलाधिकारी का परिवार को ‘प्यार से समझाना' कि हम बदल जाएँगे. जिसे सामान्य अर्थ में धमकाना कहते हैं. इस वीडियो के आने के बाद भी पीड़िता के परिवार से फ़ोन ले लिए गए. परिवार के सदस्यों को प्रेस से मिलने नहीं दिया गया. यह स्टेट की तरफ़ से धमकी ही थी.
इसलिए ज़रूरी है कि आम जन में बलात्कार पर अंकुश लगाने के लिए जो क़ानून बने हैं उनकी समझ हो. उन पर बात हो. हुआ यह है कि निर्भया के बाद किसी भी राज्य में इन क़ानूनों के हिसाब से ढाँचा नहीं बनाया गया है. इसीलिए आप हर घटना के बाद प्रशासन की नई लापरवाही और कोई बार गुंडागर्दी देखते हैं. नार्को टेस्ट की बात हुई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ही इसे सबूत नहीं मानता. फ़ोरेंसिक साइंस लैब की रिपोर्ट की बात हुई. इसके नमूने में भी 48 या 96 घंटे के भीतर लिए जाने चाहिए मगर 11 दिन बाद लिए गए. फिर भी कहा गया कि विधि विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार बलात्कार की पुष्टि नहीं होती है. जब आप नमूना ही तय समय के भीतर नहीं लेंगे तो रिपोर्ट में आएगा ही कि पुष्टि नहीं हो रही.
इसी दौरान मैंने एक किताब देखी. प्रतीक्षा बख्शी की Public Secrets of Law- Rape Trails In India. इस किताब के कुछ पन्ने पलटते ही समझ आ गया कि क़ानून की नज़र से बलात्कार के मामले में रिपोर्टिंग कितनी हल्की होती है. इससे जनता में भी समझदारी नहीं बनती और सारा ज़ोर हल्ला हंगामा तक सिमट कर रह जाता है. इस किताब में एक प्रसंग है. मेरठ में बलात्कार के मामले में दिए गए मेडिको-लीगल रिपोर्ट का अध्ययन किया गया है. हर रिपोर्ट में देखा गया कि एक ही तरह की बात लिखी गई है. जैसे पीड़ितों के हाल पर तिल के निशान थे. यह लापरवाही नहीं है. यह स्टेट की तरफ़ से किया जाने वाला फ़्राड है. जिसकी सजा किसी को नहीं मिलती.
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