सरकार का आर्थिक प्रबंधन फिसलन पर है. उसका वित्तीय घाटा बढ़ता जा रहा है. सालभर यही दावा होता है कि सब कुछ नियंत्रण में है बस आख़िर में पता चलने लगता है कि वित्तीय घाटा 3.4 प्रतिशत हो गया है. वित्त वर्ष 17-18 के लिए जितनी बजट ज़रूरत तय की गई थी, उसे पूरा करना मुश्किल होता जा रहा है. विश्लेषकों का अनुमान है कि सरकार को बाकी के चार महीनों के लिए 4.3 खरब रुपयों का इंतज़ाम करना होगा. इस बार बजट में अप्रत्यक्ष कर संग्रह का लक्ष्य 9.26 खरब रुपये का रखा गया था मगर अनुमान है कि 31 मार्च तक 5 खरब रुपये ही हो पाएगा. राज्यों ने भी जीएसटी के कारण राजस्व संग्रह में घटौती की शिकायत की है.
इस कारण रेलवे को इस वित्त वर्ष में जितना पैसा मिलना था उससे 13 फीसदी कम मिलेगा. यह बहुत बड़ी कटौती है. नए बजट में 27 फीसदी कटौती के अनुमान हैं. रेलमंत्री चाहें जितना दावा कर लें कि हम बिना सरकार की मदद के चला लेंगे लेकिन हकीकत यह है कि इसका असर पड़ेगा. यही वजह है कि नौजवान नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं, नौकरी आ नहीं रही है. रेलवे सबसे अधिक नौकरी देती है. अब रेलवे को अपनी नौकरी ख़ुद करनी होगी. उसे बाज़ार से लोन लेना होगा, अपनी संपत्ति बेचनी होगी.
हम इस नौबत पर क्यों पहुंचे? साढ़े तीन साल में ऐसा क्या कुशल प्रबंध हुआ कि आज रेलवे इस हालात पर है. सरकार रेलवे को पैसे देने के अपने वादे पर कायम नहीं हो पा रही है. रेल की सुविधाएं कितनी बेहतर हो रही हैं, आप यात्री बेहतर बता सकते हैं. केंद्रीय बजट में 2017-18 के लिए रेलवे के लिए जो पैसा रखा गया था उसमें से अब 150 अरब नहीं मिलेगा. सरकार के पास पैसे नहीं हैं रेलवे को देने के लिए.
उधर, तीसरी तिमाही में कारपोरेट का लाभ बढ़ा है. 130 कंपनियों का संयुक्त लाभ 16.5 प्रतिशत बढ़ा है. ज़्यादातर लाभ रिलायंस इंडस्ट्री, जेपी एसोसिएट, एचडीएफ बैंक, आईटीसी का हुआ है. आप देख सकते हैं कि लाभ कुछ कंपनियों के पास ही है. 85 फीसदी ग्रोथ इन्हीं पांच कंपनियों का हुआ है. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इतने दावों के बाद भी अर्थव्यवस्था की ऐसी हालत है.
आयल एंड नेचुरल गैस हिन्दुस्तान पेट्रोलियम लिमिटेड में सरकार की हिस्सेदारी ख़रीद रही है. ONGC कर्ज़ मुक्त कंपनी थी मगर अब यह सरकार की ही कंपनी से सरकार की हिस्सेदारी ख़रीदने के लिए 35,000 करोड़ कर्ज़ लेगी.
कोई कंपनी ऐसा क्यों करेगी? सरकार अपने संकट से बचने के लिए हिस्सेदारी बेचने का दबाव ONGC पर डालेगी. यह बताता है कि बाज़ार में भी कोई नहीं कि वह हिस्सेदारी ख़रीदे. अव्वल तो इस पर बहस ही नहीं है कि सरकार अपनी हिस्सेदारी क्यों बेच रही है. सरकार को पैसे की कमी क्यों हो रही है?
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This Article is From Jan 22, 2018
जितनी ज़ुबान चलती है, उतनी ही अर्थव्यवस्था फ़िसलती है
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 01, 2018 08:40 am IST
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Published On जनवरी 22, 2018 15:30 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 01, 2018 08:40 am IST
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