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This Article is From Jun 01, 2016

दोष समरथ का और समरस भोजन दलित के घर?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 01, 2016 11:06 am IST
    • Published On जून 01, 2016 11:06 am IST
    • Last Updated On जून 01, 2016 11:06 am IST
सवाल किसी दलित के घर नई चमकती थाली में लौकी का कोफ़्ता खाने का नहीं है। सवाल यह भी नहीं है कि कभी राहुल गांधी ने ऐसे ही खाया था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पर्यटन कहकर मज़ाक़ उड़ाया था और आज जब अमित शाह किसी अतिपिछड़े गिरिजाबिन्द के घर खा रहे हैं तो कांग्रेस मज़ाक़ उड़ा रही है। कांग्रेस को ख़ुद से एक सवाल करना चाहिए। क्या बीजेपी के इस हमले से राहुल गांधी ने गांव घरों में जाना रहना और खाना छोड़ दिया है? बीजेपी को ख़ुद से एक सवाल करना चाहिए कि वह राहुल गांधी के एक असफल आइडिया की नक़ल क्यों करना चाहती है? लेकिन यह सवाल तो तब पूछा जाएगा जब यह साबित हो जाए कि दलित पिछड़ों के घर खाने का आंदेलन क्या राहुल गांधी और अमित शाह ने शुरू किया है।

वैसे भाजपा की तरफ से मीडिया को भेजे गए आमंत्रण पत्र में गिरिजाबिन्द को दलित बताया गया है जबकि बिन्द अति पिछड़े हैं। बनारस से हमारे सहयोगी अजय सिंह ने बताया कि बिन्द और राजभर कई साल से अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं। बिन्द मत्स्य पालन से जुड़े होते हैं और खानपान में मांसाहारी होते हैं। पत्रिका डॉट कॉम के डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी ने जब प्रदेश अध्यक्ष मौर्या जी से पूछा तो उन्होंने भी स्वीकार किया कि गिरिजाबिन्द दलित नहीं है। हमारे सहयोगी अजय सिंह ने बताया कि गिरिजाबिन्द पहले अपना दल में थे। फिर समाजवादी पार्टी से जुड़े और अब भाजपा से जुड़े हैं लेकिन भाजपा के नेता कहते हैं कि वे पार्टी के समर्थक हैं।

सहभोजिता और अंतर्जातीय विवाह भारतीय सामाजिक आंदोलन का स्थापित कार्यक्रम है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में डॉक्टर अंबेडकर और समाज सुधारकों का प्रभाव बढ़ने लगा तो इस तरह के कार्यक्रम होने लगे। पीने के पानी का अधिकार और मंदिर प्रवेश के आंदोलन की बुनियाद डॉक्टर अंबेडकर ने ही डाली। बाद में शुरुआती समाजवादी आंदोलनों ने जनेऊ तोड़ने से लेकर सिंह शर्मा हटा कर कुमार रखने का भी दौर दिखा। इन सबका कुछ तो प्रभाव रहा होगा लेकिन जातिगत ढांचे में इनसे कोई बहुत बड़ी दरार नहीं पड़ी। क्योंकि खाने और नाम बदलने का रास्ता सबसे आसान था।

दरअसल खाने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इसे एक कार्यक्रम के तहत खाया जाता है। दलितों के घर खाना तब खाना माना जाए जब उस गांव के लोग बिना राहुल गांधी और अमित शाह के खाने लगे। दोनों कुछ लोगों के साथ बाहर से उस गांव के एक घर में गए और खाए। क्या गांव के लोगों ने उनके घर इन सबके जाने के बाद खाया? उन्हें शायद नहीं मालूम हो कि उनकी पार्टी का छोटा नेता रोज़ ये काम करता है। कुछ सांसद और विधायक भी करते हैं। शादी बारात में जाना पड़ता है और खाना पड़ता है। मीडिया को जोगियापुर के सवर्णों से पूछना चाहिए था कि क्या आपसी खानपान का सिलसिला शुरू हुआ है, क्या वे बिल्कुल नहीं खाते, क्या वे अमित शाह के जाने को बाद गिरिजाबिन्द के घर खाना पसंद करेंगे। मगर पत्रकार और कैमरा बड़े नेताओं की परिक्रमा करके चला आया। इसमें बड़े नेताओं की कोई ग़लती नहीं है।

गुजरात के एक दलित सरपंच ने कहा है कि पंचायत में उनके लिए अलग कप और ग्लास है। दूसरी जाति के लोग उनमें नहीं पीते। अमित शाह गुजरात में ऐसी छूआछूत के बारे में बोलते हों, मुझे वाक़ई जानकारी नहीं है लेकिन राहुल गांधी और अमित शाह दोनों को गुजरात के गांवों में भी जाना चाहिए और वहां सभी सवर्णों को लाइन से खड़ा कर कहना चाहिए कि फ़लां दलित सरपंच अपने घर के पुराने ग्लास से पानी दे रहे हैं और आप सब पानी पी लो और उन्हें खुद भी सबके सामने पानी पी लेना चाहिए। इसके बावजूद अब खानपान का मसला उतना बड़ा नहीं है। लोग कहीं भी खा लेते हैं।

मंदिर प्रवेश और दलित के घर खाना खाना इन दोनों का खेल देखिये। मंदिर में पुजारी दलितों के आने पर रोक लगाता है तो दलित मंदिर प्रवेश कर इस परंपरा को तोड़ते हैं। जैसे हाल ही में भाजपा सांसद तरुण विजय ने जोखिम उठाया। दलितों ने तो किसी को खिलाने से मना नहीं किया फिर उनके घर में ये रसोई प्रवेश आंदोलन क्यों चल रहा है? यह घटिया संस्कार सवर्णों ने तय किए थे। लिहाज़ा अमित शाह और राहुल गांधी को यह कहना चाहिए कि दलितों को लेकर आ रहे हैं अब सवर्ण जी अपनी रोज़मर्रा की थाली में (अलग वाली थाली नहीं) पुलाव रसियाव खिलाइये। मगर हो रहा उल्टा है। समरसता भोजन का मक़सद क्या है? सिर्फ खाना खाना या सामाजिक बदलाव के लिए जोखिम उठाना। जिन लोगों ने अपने घरों में छूआछूत की बंदिश लगाई है उनके घर समरसता भोजन होना चाहिए या जिन पर ये बंदिश लगी है उनके घर जाकर। सिम्पल बात है। अपराधी अगर बंदिश लगाने वाला है तो उसके घर जाकर ये परंपरा तोड़नी चाहिए। है कि नहीं।

मुझे हैरानी होती है कि चुनावी साल में समाज सुधारक बन जाने वाले नेता अंतर्जातीय विवाह की वकालत क्यों नहीं करते हैं? क्या वे ऐसा कर सकते हैं? जाति तोड़ने को लेकर राहुल गांधी, अमित शाह और मायावती की क्या राय है? क्या वे जाति को समाप्त करने के लिए अंतर्जातीय विवाह की सार्वजनिक वकालत कर सकते हैं? फिर लव जिहाद का क्या होगा? लव जिहाद तो अंतर्जातीय विवाह के ख़िलाफ़ है। राजनीतिक दलों का यह अभियान जातियों के बीच चंद मसलों पर व्यावहारिक तालमेल बिठाने के लिए है या इस शोषित सामाजिक व्यवस्था को समाप्त करने के लिए। इसलिए ऐसे कार्यक्रमों का कोई महत्व नहीं है।

बदलाव थाली में नहीं राजनीति में करने की ज़रूरत है। वक्त आ गया है कि दलित रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री बने। मंत्रिमंडल के अगले विस्तार में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को इन पदों पर किसी दलित सांसद को बिठाना चाहिए। समाज कल्याण मंत्रालय को घोषित अघोषित रूप से दलित सांसदों के लिए रिज़र्व मंत्रालय मान लिया गया है। इसे बदलना चाहिए। वहां कोई ग़ैर दलित मंत्री बने। राजस्व अधिकारी रहे उदित राज जैसे लोग उद्योग मंत्री या राजस्व मंत्री क्यों नहीं बन सकते हैं? अब तो उदित राज ने दलित संघर्ष का अपना रास्ता छोड़ भाजपा के हिन्दुत्व का रास्ता चुन लिया है फिर भी वे क़ाबिल तो है हीं। बीकानेर आरक्षित सीट से चुने गए भाजपा सांसद अर्जुन मेघवाल आईएएस अफसर रहे हैं। फ़िलिपिन्स विश्वविद्यालय से एमबीए किया है। ये दोनों दलित नेता अंग्रेजी हिन्दी अच्छा बोलते हैं। इन्हें क्यों नहीं कार्मिक मंत्रालय सौंपा जाता है। ऐसे नेता हमेशा समाज कल्याण मंत्री ही क्यों बनते हैं। राजनीतिक दलों के ऐसे प्रतिभावान दलित नेता अपनी तरफ से दावेदारी क्यों नहीं करते हैं?

समरसता और सहभोजिता इन जगहों पर दिखनी चाहिए। हमारे देश के लोकतंत्र में अभी वो दिन नहीं आया है कि कोई राजनीतिक दल किसी मुसलमान या दलित को जनरल सीट से खड़ा कर दे। इसलिए हर कोई सांकेतिक सवालों की तलाश में है, क्रांति कोई नहीं करना चाहता। कोई पिछड़े में अति पिछड़ा बना रहा है, कोई अति पिछड़े में कुछ को दलित बना रहा है तो कोई दलितों में महादलित। वोट की राजनीति नए समीकरण मांगती है। हमेशा सामाजिक बदलाव नहीं लाती है। सत्ता बदल जाती है मगर समाज नहीं बदलता।

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