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This Article is From Sep 09, 2016

मुज़फ्फरनगर दंगों से क्या सीखा हमने?

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 09, 2016 17:54 pm IST
    • Published On सितंबर 09, 2016 15:51 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 09, 2016 17:54 pm IST
सात सितंबर को मुज़फ्फरनगर दंगों की तीसरी बरसी थी. इसी दिन 2013 को एक छेड़खानी की घटना को नज़रंदाज़ करने का नतीजा एक ऐसा खौफनाक सांप्रदायिक दंगा था जिसमें  62 से ज्यादा लोगों को जान गंवानी पड़ी. हजारों लोग सामाजिक-सांप्रदायिक विद्वेष का शिकार होने की वजह से विस्थापित हुए. हालांकि कुछ ही दिनों में यह स्पष्ट हो गया था कि एक संप्रदाय के लोगों द्वारा छेड़खानी का विरोध करने के खिलाफ हुई हिंसा ने ऐसा विकराल रूप धारण कर लिया था कि आसपास के गांव और जिलों में भी दोनों सम्प्रदायों के लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो उठे थे.

इसके कुछ ही महीनों हुए लोकसभा चुनाव में कम से कम एक दल को तो यहां के ध्रुवीकरण का लाभ हुआ, यही नहीं, उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने जिस तरह से यहां के हालात का सामना किया उससे इस पार्टी को न तो हिन्दू वर्ग का समर्थन मिला न ही मुस्लिम वर्ग का. आम धारणा तब भी यही थी और आज भी यही है कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने एकतरफा कार्यवाही की जिससे दूसरे पक्ष में असंतोष बढ़ा और इससे जुड़ी बातें और बहस भी खूब हुई. प्रदेश सरकार ने एक जांच आयोग भी स्थापित किया जिसने देर-सबेर अपनी रिपोर्ट भी दाखिल कर दी लेकिन जो सवाल घटना के पहले दिन उठे थे वे आज भी अनुत्तरित हैं.

क्या किसी बड़े सांप्रदायिक दंगों के बाद केवल संबंधित क्षेत्र का प्रशासन और पुलिस ही जिम्मेदार होती है? क्या उस प्रदेश की सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की कभी गलती नहीं होती? क्या प्रदेश की राजधानी में बैठे शीर्ष अधिकारियों का केवल यही उत्तरदायित्व है कि वे उस प्रदेश में सरकार चला रही पार्टी के हितों को ही देखें? क्या दोषियों को दंड और निर्दोषों को प्रताड़ित न करने की जिम्मेदारी उनकी नहीं है?

इससे भी गंभीर सवाल यह है कि क्या मुज़फ्फरनगर से पहले हुए तमाम दंगो की सच्चाई जानने के लिए बैठाए गए आयोगों की रिपोर्टों को वाकई में कोई मतलब है भी? या ऐसे आयोग केवल तुरंत उठे तूफ़ान को शांत करने का एक तरीका है जिसकी उपयोगिता के बारे में शासन, विपक्ष, प्रशासन और जनता सभी जानते हैं?

इन दंगों में मुज़फ्फरनगर और उससे लगे हुए शामली में 60 से ज्यादा लोग मारे गए थे और हजारों की संख्या में लोग विस्थापित हुए थे. घटना के बाद आए जाड़े के महीनों में स्थिति काफी खराब हो गयी थी क्योंकि जहां विस्थापितों के लिए अस्थायी कैंप बनाये गए थे वहां ठंड से बचने, चिकित्सा और सुरक्षा की सुविधाएं पर्याप्त नहीं थीं. यही नहीं, पुनर्वास के दौरान पीड़ित परिवारों की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं की खबरें भी आई थीं.

दंगों के दौरान और उसके बाद की प्रशासनिक कार्यवाही में सबसे ज्यादा सवाल सत्तारूढ़ पार्टी के एक-पक्षीय रवैये पर उठे हैं. दंगे जिस घटना पर भड़के उस पर तुरंत कार्यवाही न करने से लेकर दंगाइयों और पीड़ितों के प्रति किये गए व्यवहार पर वहां के लोग आज भी नाराज हैं. प्रदेश सरकार ने मामले की जांच के लिए जो एक-सदस्यीय जांच आयोग बनाया उसकी रिपोर्ट में बजाए इस तरह के सवालों को उठा कर उनके जवाब तलाशने के सीधे सीधे दो प्रमुख दलों के नेताओं को भावनाएं भड़काने का दोषी माना है और मीडिया पर भी घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर बताने का दोषी बताया है. पुलिस के कुछ अधिकारियों को एक सीमा तक घटना पर नियंत्रण करने में असफल रहने का दोषी बताते हुए आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार पर कोई भी टिप्पणी नहीं की है.

यह अजीब बात है कि इन दंगों में मुख्य तौर पर संघर्ष दलितों और मुस्लिम वर्ग के बीच देखा गया था, विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में. उन जिलों और आस-पास के रहने वाले पुराने लोगों में भी इस बात पर आश्चर्य और चिंता थी और अब भी है कि ये दोनों वर्ग कई पीढ़ियों से साथ साथ रह रहे हैं और इनके बीच सामाजिक और व्यापार के सम्बन्ध भी रहे हैं, लेकिन फिर भी दंगों के दौरान दलित वर्ग के लोगों ने दंगों मे सक्रिय भूमिका निभाई थी. उन दिनों अक्सर बुलाये जाने वाली महापंचायतों में भी दलितों ने खुल कर और बड़ी संख्या में हिस्सा लिया था. दंगों के बाद लिखी गयी पुलिस रिपोर्ट मे भी दलितों का दोषियों के रूप में नाम है और कई जेल में भी हैं. एक स्थानीय रिपोर्ट के अनुसार, मुस्लिम समुदाय के लोगों के वहां से पलायन करने के बाद समृद्ध जाट किसानों और जमीन मालिकों ने अब दलितों को काम पर रखा हुआ है.

इस तरह दलितों का मुस्लिम समुदाय और जाट वर्ग के साथ एक नया सामाजिक समीकरण उभरा है जिसके मूल में तीन साल पहले के दंगों का दर्द तो है ही, साथ ही यह शिकायत भी है कि प्रदेश सरकार ने मुआवजा देने और दंडात्मक कार्यवाही करने में एकतरफा फैसले लिए हैं. राजनीतिक तौर पर पूरे प्रदेश में जिस तरह बहुजन समाज पार्टी दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कोशिश कर रही है, उसकी राह में यह सामाजिक सच्चाई आ सकती है. स्थानीय दलित और जाट लोग यह भी याद करते हैं की दंगों के बाद हुए राजनीतिक घटनाक्रम में बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय नेता कादिर राणा व अन्य नेता अक्सर मुस्लिम वर्ग के पक्ष में ही खड़े नजर आते थे. यह भी विचारणीय है कि मुज़फ्फरनगर की घटना के बाद उत्तर प्रदेश में हुई कई सांप्रदायिक घटनाओं में मुस्लिम और दलित वर्ग के लोग आमने सामने थे.

मुज़फ्फरनगर के दंगों का राजनीतिक लाभ एक पार्टी को मिला. यूपी में विधानसभा उपचुनाव के पहले भी ऐसी ही कई घटनाएं हुईं. ऐसे में यह अनुमान मुश्किल नहीं है कि दंगों की घटनाओं को फिर से उठाने का सियासी लाभ किसे होने वाला है. वैसे, सियासी नफा-नुकसान के लिहाज से देखें तो सत्तारूढ़ पार्टी हो या विपक्षी पार्टियां, ऐसी तमाम घटनाओं/मुद्दों का इस्‍तेमाल सबने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए ही किया है.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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