जहां थे, वहीं हैं समाजवादी पार्टी के 'प्रथम परिवार' के सभी नेता...

जहां थे, वहीं हैं समाजवादी पार्टी के 'प्रथम परिवार' के सभी नेता...

उत्तर प्रदेश में परिवार और पार्टी में चल रहे लम्बे सोप ऑपेरा का एक और एपिसोड समाप्त हुआ. कुछ समय के ब्रेक के बाद नया एपिसोड शुरू होगा, इसमें कोई शक नहीं. लेकिन चाहे इस ड्रामे की स्क्रिप्ट पहले से लिखी गई हो, या दैनिक ज़रूरत के आधार पर लिखी जाती हो, या बिना स्क्रिप्ट के सभी चरित्रों को अपनी भूमिका निभाने की आज़ादी दी गई हो, यह बात तो स्पष्ट है कि ऐसे मोड़ और झटके बिना पहले से तय किए गए संभव नहीं हैं.

मुलायम सिंह यादव को देश के समझदार और कूटनीतिक राजनेताओं में शुमार किया जाता है, और उनसे इस तरह के अप्रत्याशित निर्णयों की अपेक्षा भी की जाती है, लेकिन ऐसे निर्णयों में वह अपनी ही बनाई हुई पार्टी, अपने ही बेटे और अपने ही भाई को भी लपेट देंगे, ऐसी उम्मीद कम लोगों को ही थी. जिस तरह पिछले कई महीनों से प्रत्याशी चयन को लेकर शुरू हुए विरोधाभास के बीच परिवार के सदस्यों के बीच मनमुटाव बढ़ा था, उसे देखकर लगता था कि मुलायम सिंह यादव कुछ ऐसा हल निकालेंगे, जिससे सभी की प्रतिष्ठा बनी रहे और मतभेद का असर चुनाव की तैयारी पर न पड़े. ऐसा भी माना जा रहा था कि वह अपने मुख्यमंत्री बेटे अखिलेश यादव और अपने विश्वासपात्र भाई शिवपाल में किसी को भी नाराज़ नहीं करेंगे.

ऐसा हल बिना उस ड्रामे के किया जा सकता था, जो पिछले कई महीनों से उत्तर प्रदेश में चल रहा है. इस घटनाक्रम के कुछ मुख्य बिंदु देखिए...
 

  • शिवपाल द्वारा अखिलेश सरकार पर हमला बोलना...
  • अखिलेश द्वारा शिवपाल और उनके समर्थक मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बाहर किया जाना...
  • अखिलेश के स्थान पर शिवपाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना...
  • अखिलेश समर्थक नेताओं को विधायक होने के बावजूद पार्टी से निलंबित किया जाना...
  • रामगोपाल यादव पर गंभीर आरोप लगाया जाना और उन्हें पार्टी से निकाला जाना...
  • शिवपाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाया जाना...
  • अखिलेश समर्थक मंत्री को पार्टी से बाहर किया जाना...
  • पार्टी की बैठकों में आरोप और प्रत्यारोप लगाया जाना...
  • अमर सिंह पर गंभीर आरोप लगाया जाना और फिर उन्हें पार्टी का महत्त्वपूर्ण पद देना...
  • रामगोपाल का निष्कासन वापस लिया जाना और उन्हें पुराना पद दिए जाना...
  • अन्य पार्टियों से गठबंधन पर विरोधी संकेत दिया जाना...
  • शिवपाल और अखिलेश द्वारा प्रत्याशियों की अलग-अलग सूची जारी करना...
  • अखिलेश को सूची जारी करने और रामगोपाल को पार्टी सम्मेलन बुलाने की वजह से निष्कासित करना...
  • पार्टी के 200 से ज्यादा विधायकों का अखिलेश द्वारा बुलाई बैठक में उपस्थित होना...
  • पार्टी द्वारा बुलाई बैठक में नगण्य उपस्थिति होना...
  • अचानक अखिलेश और रामगोपाल का निष्कासन वापस लेना, "सब ठीक है, सब मिलकर चुनाव लड़ेंगे" की घोषणा करना...

जैसा कई लोगों का अनुमान था, अब उम्मीद लगाई जा रही है कि प्रत्याशियों की समग्र और संशोधित सूची जारी की जाएगी, जिसमें अखिलेश और शिवपाल दोनों की सहमति होगी. देखना यह है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को टिकट दिए जाने के मामले में क्या रणनीति अपनाई जाती है, क्योंकि ऐसी पृष्ठभूमि के एक नेता ने अखिलेश के ही नेतृत्व में आस्था जताई है.

किसी अन्य प्रदेश में और किसी अन्य राजनीतिक दल में इस तरह का घटनाक्रम शायद ही देखने को मिला हो, और फिर चुनाव के ठीक पहले ऐसी उठा-पटक तो कतई नहीं देखी गई. एक बड़ा सवाल, जो आम लोगों के मन में उठता है, वह यह है कि क्या मुलायम सिंह यादव जैसा परिपक्व और अनुभवी राजनीतिज्ञ अपने ही भाई और बेटे के स्वभाव से परिचित नहीं रहा होगा...? यदि ऐसा था, या नहीं था, तो दोनों ही स्थितियों में उन्हें ऐसी नौबत आने ही नहीं देनी चाहिए थी, जिसमें दोनों के बीच टकराव होता. अब तक के घटनाक्रम के बाद दोनों के बीच सहज रिश्ते हो पाएंगे, ऐसा कहना मुश्किल है, लेकिन यह तय है कि सार्वजनिक रूप से न केवल ये दोनों, बल्कि परिवार के अन्य सदस्य भी परस्पर प्रेम और सौहार्द की पारंपरिक तस्वीर पेश करेंगे...

...और इसी तस्वीर के बल पर समाजवादी पार्टी एक बार फिर एकजुट होने का संदेश देते हुए चुनाव प्रचार में जुट जाएगी. देखना यह है कि उत्तर प्रदेश के लोग भी इस संदेश को कितनी गंभीरता से लेते हैं, क्योंकि इस घटनाक्रम के बाद ऐसा भी संभव है...
 
  • आम लोगों के बीच समाजवादी पार्टी के भीतर चल रहे घटनाक्रम पर भरोसा कम होगा...
  • ऐसे लोगों की संख्या बढ़ सकती है, जो ऐसे घटनाक्रम को पहले से तय किया हुआ मानते हों...
  • अगर पार्टी में कोई गंभीर समस्या वास्तव में उठेगी, तो भी लोग उसे इसी तरह का ड्रामा समझेंगे...
  • कार्यकर्ताओं के बीच जैसा विरोध अचानक पैदा हुआ था, उसे लेकर मनमुटाव बढ़ सकता है...
  • पार्टी के अन्य संगठन, जैसे - राष्ट्रीय कार्यकारिणी, संसदीय बोर्ड, प्रदेश कार्यकारिणी, चुनाव समिति - आदि महत्वहीन समझे जाएंगे...
  • पार्टी के तमाम अन्य नेताओं का कद कम होगा और उनकी इज़्ज़त भी कम हो सकती है...
  • मुलायम सिंह यादव का जिस तरह सभी स्तरों पर सम्मान था और उनकी बात को पार्टी में अंतिम निर्णय माना जाता था, उस पर अब संशय पैदा होगा...
  • शिवपाल यादव की प्रतिष्ठा और कम हो सकती है...
  • अखिलेश यादव पार्टी के अन्दर शक्ति का एकमात्र केंद्र बनकर उभर सकते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी हैं...
  • पार्टी के सभी नेता, पदाधिकारी, कार्यकर्ता आदि अब केवल अखिलेश यादव को महत्व देंगे...

सो, विकास के नाम पर चुनाव लड़ने के वादे के साथ-साथ, अखिलेश यादव के सामने अब समाजवादी पार्टी की साख बचाने-बनाने की भी चुनौती है...

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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