इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज रंगनाथ पांडेय ने अपने रिटायमेंट से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति बंद कमरों में चाय पर चर्चा करते-करते हो जाती है. यहां कोई पारदर्शिता नहीं है. नियुक्ति में भाई-भतीजावाद और जातिवाद हावी है. जिसका मतलब है कि जजों के बच्चे या रिश्तेदार ही जज बनते हैं. परिवारों के सर्किल से बाहर के लोगों के लिए संभावनाएं नहीं के बराबर होती हैं. हिंदी में लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) से न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता की आशा जगी थी. लेकिन जजों ने दुर्भाग्यवश इसे असवैंधानिक घोषित कर दिया क्योंकि इससे उन्हें अपने पारिवारिक सदस्यों की नियुक्ति में बाधा नज़र आने लगी थी.
यह पहली बार नहीं है जो किसी जज ने इस तरह के आरोप लगाए हैं. हम थोड़ी सी मेहनत करें तो ऐसा कहने वालों की लिस्ट बहुत लंबी है. रंगनाथ पांडेय की इस चिट्ठी के बाद उनके रिटायरमेंट पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में ही दिए जाने वाले 'फुल कोर्ट रेफरेंस' (एक तरह की फेयरवेल पार्टी) को बिना किसी कारण से रद्द कर दिया गया. अब वो रिटायर जज हो चुके हैं लेकिन उन्होंने जिस मसले की याद दिलाई वह कभी रिटायर नहीं होगा. उन जैसों की आवाज़ इस बहस को फिर से शुरू कर देगी.
जब हम किसी चीज़ का विरोध करते हैं तो उसे केंद्र बनाकर एक घेरा खींच देते हैं. इस घेरे की त्रिज्या (Radius) तन्य (स्ट्रेचेबल) होती है. जितना मन आए, उतना खींच लो और घेरे को बड़ा करते जाओ. ऐसे में आप इस घेरे में हर उस मसले को डाल सकते हैं, जो उसके केंद्र से संबद्ध है. इसे सिद्धांत मानकर अब हम कहानी पर आते हैं.
समझने में आसानी हो तो हम इसे बिंदुओं में देखेंगे. इसमें सबसे पहले मूल मसले को संक्षिप्त में समझ लेते हैं. जजों की नियुक्ति के लिए भाजपा नेतृत्व वाली (पिछली) NDA सरकार ने संसद से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का क़ानून पास कराया. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति और उनके ट्रांसफर वाले इस आयोग में 6 सदस्य होने थे जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को अध्यक्ष बनाया गया था, उनके अलावा सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम जजों, विधि मंत्री और दो जानेमाने लोगों से मिलकर बनना था. इन दो लोगों का चयन CJI, प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता से बनी एक चयन समिति को करना था.
99वां संविधान संसोधन कर आगे बढ़ने वाले इस बिल को संसद को दोनों सदनों से दो-तिहाई बहुमत से पास कराया था. यानी सत्ताधारी दल के साथ-साथ विपक्ष भी इसमें साथ था. इतना ही नहीं, यह संविधान संशोधन 368 के तहत तीसरे तरह का संसोधन था जिसमें दो-तिहाई के विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे से अधिक राज्यों की सहमति भी चाहिए होती है. इसमें 20 राज्यों की सहमति ली गई थी. लेकिन संसद को दोनों सदनों से पास होने और 20 राज्यों की सहमति होने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ ने इसे असवैंधानिक घोषित कर दिया. आसान भाषा में समझा जाए तो इस बिल के पीछे कितना बड़ा जनमत था, जिसे नकार दिया गया.
- हम संविधान का पहला पन्ना नहीं पढ़ना चाहते लेकिन जजों की नियुक्ति पर ओपिनियन रखते हैं. "मोदी सरकार न्यायपालिका की शक्तियां कम करने पर आमादा है", ऐसा कहते हुए NJAC को असंवैधानिक घोषित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर 'खुशियां' मनाई गईं.
- हम नहीं सोचते कि NJAC जैसी पहल UPA-दो (कांग्रेस) ने भी की थी, वह इसके लिए विधेयक भी लाई, उसी के कार्यकाल में इसे स्टैंडिंग कमेटी को भेजा गया.
- हम नहीं जानना चाहते कि UPA के बिल में भी लगभग वही प्रावधान थे, जो NDA के बिल में थे. जजों की नियुक्ति को न्यायपालिका और कार्यपालिका की सम्मिलित भागीदारी से करने की योजना थी. बस उसका नाम थोड़ा अलग न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) था.
- हम नहीं जानना चाहते कि संविधान में कहीं भी 'कॉलेजियम' की व्यवस्था नहीं है. व्यवस्था छोड़िए, कॉलेजियम जैसा कोई शब्द ही संविधान में नहीं है.
- जजों की नियुक्ति न्यायपालिका और कार्यपालिका 'संयुक्त रूप' से करेंगे, यह संविधान के मूल में है. सविंधान के अनुच्छेद 124(2) के अनुसार “उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात्, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझें, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा.''
जजों की नियुक्ति वाले इस अनुच्छेद में साफ लिखा है कि राष्ट्रपति ‘परामर्श करना आवश्यक समझे', यानी नियुक्ति राषट्रपति को करनी है, मुख्य न्यायाधीश सिर्फ परामर्श देंगे. लेकिन परामर्श का मतलब क्या होगा? क्या वह बाध्यकारी होगा या सिर्फ सलाहकारी, इसका फैसला फर्स्ट जजेज केस में हुआ जब तीन जजों वाली बेंच ने निर्णय दिया कि परामर्श का मतलब सहमति नहीं है. इसका मतलब राष्ट्रपति सर्वोच्च हैं और वे सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं हैं.
इस केस तक जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की प्रभावी भूमिका थी. हम इसे बराबर हिस्सेदारी वाली भूमिका भी कह सकते हैं. देखा जाए तो यह फैसला एक तरह से न्यायपालिका ने अपनी शक्तियों के विरुद्ध ही दिया था. लेकिन दूसरे केस के बाद कहानी 180 डिग्री बदल गई.
- Second और फिर Third Judges Case में संविधान की इस मूल आत्मा से आपने आप को न सिर्फ दूर किया, बल्कि आत्मा को 'दफ़्न' कर दिया. 2nd जजेस केस में जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति को दी जाने वाली 'सलाह' को 'बाध्यकारी' बना दिया गया. इस केस ने 9 जजों की पीठ ने फर्स्ट जजेज केस को 7:2 से पलट दिया.
- संविधान निर्माताओं ने जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका और न्यायपालिका के जिस 'बैलेंस' की बात की थी, इस केस ने न सिर्फ तराजू के दूसरे पलड़े को तोड़ा बल्कि उसके ऊपर अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर ली.
- First Judges Case तक जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका थी लेकिन Second Judges Case से जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की कोई भूमिका नहीं रही इसमें 9 जजों वाली पीठ ने निर्णय दिया कि सुप्रीम कोर्ट हो या हाई कोर्ट, किसी भी जज की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय के अनुरूप ही की जा सकती है, अन्यथा नहीं.
- Third Case में मुख्य न्यायाधीश की इसी राय को 'कॉलेजियम' का रूप दे दिया गया और अब मुख्य न्यायाधीश को 4 अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करना था और बहुमत के आधार पर चयन करना था. यहीं से उस कॉलेजियम का जन्म हुआ, जो आज तक चला आ रहा है.
- साल 2013 में UPA सरकार ने न्यायायिक नियुक्ति आयोग (JAC) के गठन के लिए विधेयक पेश किया गया था, उसकी संरचना हूबहू NDA जैसी थी. वह भी छ: सदस्यों वाला आयोग बनना था, अंतर बस इतना था कि UPA-2 द्वारा लाए गए विधेयक से आगे जाकर NDA के विधेयक में जानेमाने व्यक्तियों में से एक को अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक और महिला में से चुनना था. दरअसल, यह प्रावधान भी पिछले (UPA के) विधेयक पर स्टैंडिंग कमेटी के सुझाव पर शामिल किया गया था.
- अगर हम NDA-UPA को छोड़ और पीछे जाएं तो साल 1987 में विधि आयोग ने आज के NJAC जैसा ही न्यायिक आयोग बनाने का सुझाव दिया था. 1990 में इस राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन के लिए फिर से विधेयक लाया गया.
- 2002 में बने नेशनल कमीशन टू रिव्यू द वर्किंग ऑफ द कॉन्स्टीट्यूशन, जिसे सरल हिंदी में संविधान समीक्षा आयोग भी कहा जाता है, ने भी जजों की नियुक्ति के लिए आयोग के गठन का सुझाव दिया था.
- साल 2005 में UPA प्रमुख सोनिया गांधी के नेतृत्व में बनने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) ने भी इसी तरह के एक आयोग के लिए सुझाव दिया.
- सबसे अंत में, साल 2007 में बने द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2nd ARC) ने भी अपनी रिपोर्ट में इसे दोहराया.
- इन सभी आयोगों/परिषदों ने जिस नियुक्ति आयोग का सुझाव दिया, उन सभी में कार्यपालिका को शामिल किया गया था. संविधान समीक्षा आयोग को छोड़ दिया जाए तो सभी ने हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री को भी शामिल करने का सुझाव दिया था.
सोनिया गांधी वाली NAC और 2nd ARC में तो विधायिका को भी इसमें शामिल किया गया था.
- सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 4:1 से NDA सरकार द्वारा लाए गए NJAC को असंवैधानिक करार दिया. (इस पीठ में शामिल जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने इससे सहमति जताई थी). सुप्रीम कोर्ट के अनुसार जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भागीदारी, न्यायपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विपरीत है. चूंकि संविधान के तीनों अंगों (कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका) के बीच शक्ति पृथक्करण का यह सिद्धांत संविधान का मूल लक्षण है और यह आयोग इसका उल्लंघन करता है तो यह असंवैधानिक घोषित कर दिया गया.
- अब अगर हम फिर से First Judges Case पर जाएं तो देखते हैं कि मूल संविधान में जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका भी थी. UPA सरकार के JAC विधेयक पर बनने वाली स्टैंडिंग कमेटी ने भी यही पाया था कि जजों की नियुक्ति प्राथमिक रूप से कार्यपालिका का कार्य है. कार्यपालिका इसे राष्ट्रपति के माध्यम से करती है, जिसमें न्यायपालिका से सलाह ली जाती है. ऐसा न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिहाज़ से किया जाता है, जो संविधान की मूल आत्मा में शामिल है. इस तरह देखा जाए तो पहले केस और (साल 2013 में बनी) इस स्टैंडिंग कमेटी की व्याख्या तक हम संविधान के मूल लक्षण को कुछ और पाते हैं. जबकि 2nd Case से कहानी पलटने लगती है और इसे पलटने वाला कोई और नहीं बल्कि स्वयं न्यायपालिका भी है. देखा जाए तो न्यायपालिका ने उसी केस से नैसर्गिक न्याय (Rule of Natural Justice) के सिद्धांत का भी उल्लंघन किया है, क्योंकि वह स्वयं पक्षकार है और स्वयं की शक्तियों के बारे में ही वादों को सुनती है और अपने पक्ष में निर्णय देती है.
आज की राजनीति को देखकर हमें कार्यपालिका की भागीदारी पर संदेह हो सकता है लेकिन असंवैधानिक ठहराए गए आयोग की संरचना को अगर हम बारीकी से देखें तो पाएंगे कि यह चीजों को सुधारने में निश्चित मदद करता. दुनिया के प्रमुख देशों का अगर उदाहरण लिया जाए तो अमेरिका हो या कनाडा अथवा यूरोप से यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी या फ्रांस, इन देशों में जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भी भूमिका है. इन देशों में जज ही जजों की नियुक्ति नहीं करते. लेकिन हम इस मामले में अनोखे बने हुए हैं.
अब चूंकि कोई भी क़ानून न्यायपालिका के पुनर्रीक्षण से नहीं बच सकता तो NJAC जैसा कोई आयोग कभी बन भी पाएगा, यह दूर की कौड़ी लगती है. इसलिए हमें चाय की चुस्कियों पर होने वाली नियुक्तियों से ही काम चलाना होगा. अब इसमें परिवादवाद आए या जातिवाद, आपको इसका पक्ष लेना ही होगा क्योंकि आप तो वैचारिक विरोध से ऊपर उठकर चीजों को देखना ही नहीं चाहते.
(अमित एनडीटीवी इंडिया में असिस्टेंट आउटपुट एडिटर हैं)
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