होना तो चाहिए था कि बच्चों के अधिकारों के लिए दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार मिलने के बाद देश में बच्चों के चेहरों पर मुस्कान खिलती, लेकिन क्या ऐसा हो पाया...? माना कि यह पुरस्कार बाल अधिकारों पर अद्भुत काम करने के लिए कैलाश सत्यार्थी को मिला, पर स्वागत तो पूरे देश ने किया, हर व्यक्ति ने गौरव महसूस किया. पर क्या पुरस्कार मिलने के बाद यह जिम्मेदारी ओढ़ी कि यह भारीभरकम पुरस्कार मिलने के बाद अब बच्चों के प्रति हमारी जिम्मेदारी दुनिया के किसी भी दूसरे देश से ज्यादा है. इसलिए ही कम से कम हम अपने बच्चों को उनके वे अधिकार ज़रूर ही सौंपेंगे, जिनका वादा हम सालों से करते आए हैं, पर अधिकार दरअसल वादे ही बने हुए हैं, हकीकत नहीं हुए हैं. इसलिए जब-जब बच्चों के अधिकारों को याद करने के दिन आते हैं तो हमें शर्म से अपना सिर नीचा करना पड़ता है, क्योंकि हकीकत हमें फख्र नहीं, शर्म करने पर मजबूर करती है.
अंतरराष्ट्रीय बाल श्रमिक दिवस भी ऐसा ही मौका है. भले ही हमें नोबेल पुरस्कार मिल गया हो, लेकिन शर्मनाक है कि देश में बाल मजदूरों की हालत अब भी चिंतनीय बनी हुई है. सरकारी आंखों को बाल मजदूर दिखाई ही नहीं देते हैं, इसलिए वह इस पर लगातार गलत जवाब देते हैं. इसलिए कोई कार्रवाई भी नहीं होती, सब हरा-हरा दिखाई देता है.
देश में तकरीबन 1 करोड़ 1 लाख बाल मजदूर हैं. अलबत्ता सरकार इन्हें नहीं मानती. जब बाल मजदूरों की बात आती है तो वह कहती है कि हमारे देश में 43 लाख कामगार ही हैं. वह यह भी दावा करती है कि पिछली जनगणना में यह संख्या 57 लाख थी, जिसे घटाकर 43 लाख तक लाया गया है. सोचने की बात यह है कि यह जो 43 लाख बच्चे हैं, वे 5 से 14 साल तक की उम्र के हैं. 14 साल से 18 साल तक के बच्चों को क्या बाल मजदूर नहीं माना जाना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बच्चों की उम्र की परिभाषा में 18 साल तक की उम्र के व्यक्ति को बच्चा माना गया है. देश के कई और दूसरे कानूनों में भी बच्चा मतलब 18 से कम उम्र का व्यक्ति. फिर आखिर क्यों जब संसद में बाल मजदूरों के आंकड़े मांगे जाते हैं तो जवाब में 14 से 18 साल तक की उम्र को छिपाकर आंकड़ा पेश कर दिया जाता है, उन्हें किशोरावस्था में डाल दिया जाता है, और उनकी निगरानी भी केवल इस बात के लिए की जाती है कि कहीं वह खतरनाक और जानलेवा कामों में तो नहीं लगे हैं. क्या सरकारों को बाल मजदूरों के सही आंकड़े बताने में शर्म आती है या डर लगता है...?
बाल एवं किशोर श्रम प्रतिषेध एवं विनियमन अधिनियम 1986 चौदह साल से कम उम्र के बच्चों के नियोजन एवं कार्य पर प्रतिबंध लगाता है. बाल अपराध को संज्ञेय अपराधों की श्रेणी में डालते हुए इस अधिनियम की धाराओं का पालन करने के लिए उत्तरदायित्व केंद्र एवं राज्य सरकारों पर डाला गया है. इसलिए बाल मजदूरी ऐसा मुद्दा है, जिस पर राज्य और केंद्र सरकारों को मिलकर काम करना है, लेकिन इस पर कार्रवाई के नाम पर जो कुछ पिछले तीन सालों में हुआ है, उससे यह समस्या हल होने वाली नहीं है. वर्ष 2014 से 2016 के बीच देश में 7,08,344 निरीक्षण किए गए. इसमें से केवल 6,920 मामलों में नियोजन शुरू हुआ और केवल 2,200 मामलों में ही दोष सिद्धियां हुईं. इसका क्या मतलब है. यदि जनगणना कहती है कि देश में 5 से 18 साल तक की उम्र वाले तकरीबन 1 करोड़ बच्चे कामगार हैं, और यदि कानून के मुताबिक देश से बाल मजदूरी को खत्म करना है तो क्या सवाल सौ करोड़ की जनसंख्या वाले देश में 2,200 मामलों में कार्रवाई करके इस समस्या को दूर किया जा सकेगा. इस निरीक्षण की संख्या में भी यदि तमिलनाडु राज्य के चार लाख 39 हजार निरीक्षणों की संख्या को घटा दिया जाए तो पता चलेगा कि देश के बाकी राज्य गहरी नींद में सोए हुए हैं. दोष सिद्धि के मामलों में भी केवल पांच राज्य ऐसे हैं, जहां यह आंकड़ा सौ से ज्यादा का है. पंजाब और हरियाणा के 1,400 मामलों को यहां से भी हटा दिया जाए, तो पता चलता है कि बाल मजदूरों को दूर करने के लिए राज्य प्रतिबद्ध नहीं हैं, होता तो वह आंकड़ों में भी तो दिखाई देता.
अलबत्ता सरकार पिछले 40 सालों से देश में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना संचालित कर रही है. इस परियोजना में देश में बाल मजदूरों को शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति एवं स्वास्थ्य देखरेख की सुविधा उपलब्ध कराती है. इसके लिए देश में विशेष प्रशिक्षण केंद्रों में नामांकन किया जाता है. वर्ष 2014 में 33,984, वर्ष 2015 में 24,927 और वर्ष 16-17 में 43,109 नामांकन किए गए हैं.
वर्तमान में इस परियोजना के अंतर्गत विशेष प्रशिक्षण केंद्रों में 1 लाख 11 हजार बाल मजदूरों का नामांकन किया गया है, लेकिन इस योजना में बाल श्रम उन्मूलन के लिए प्रचार-प्रसार पर केंद्र सरकार जितना पैसा लगाती है, उस पर गौर किया जाना चाहिए. इस साल सरकार ने इस परियोजना को केवल तकरीबन 9 करोड़ रुपये का बजट मंजूर किया. इससे पहले साल में यह 12 करोड़ रुपये था. सरकारें अपनी फ्लैगशिप योजनाओं के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये खर्च करती हैं, लेकिन बाल श्रम के प्रति जागरूकता के लिए बजट आवंटन ही नहीं है.
बाल मजदूरों का पुनर्वास बेहद कठिन है, वह ऐसी विषम परिस्थितियों से निकलते हैं, जहां उन्हें चुनौतियों से लड़ने के लिए और बेहतर तैयारी की ज़रूरत है. पर सरकारें ऐसा नहीं सोचा करतीं, पुरस्कार मिलने के बाद भी नहीं सोचा करतीं...! बच्चों का विषय नोबेल मिलने के बाद भी हाशिये का विषय क्यों है...?
राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Jun 12, 2018
विश्व बालश्रम निषेध दिवस : नोबेल पुरस्कार मिलने से बच्चों का क्या बदला...?
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:जून 13, 2018 10:26 am IST
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Published On जून 12, 2018 17:23 pm IST
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Last Updated On जून 13, 2018 10:26 am IST
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