विज्ञापन
This Article is From Sep 20, 2018

हर दो मिनट में होती है तीन बच्चों की मौत, लेकिन यह मुद्दा नहीं...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 20, 2018 10:54 am IST
    • Published On सितंबर 20, 2018 10:17 am IST
    • Last Updated On सितंबर 20, 2018 10:54 am IST
भारत में हर दो मिनट में तीन बच्चों की मौत हो जाती है, लेकिन जात-पात जैसे मुद्दों पर कोहराम मचाते समाज को एक पल की फुर्सत नहीं कि इस पर बैठकर थोड़ा सोच लें, विकास की गंगा बहाती सरकार को दो मिनट का वक्त नहीं कि इस पर कोई बयान जारी कर दें, और सॉफ्ट हिन्दुत्व की तरफ कूच करते विपक्ष को तो बिलकुल भी वक्त नहीं कि देश में हर साल मर रहे लाखों बच्चों के विषय पर कोई भारी हंगामा खड़ा कर दे!

 इस पर थोड़ी-बहुत बात होती है, तब, जब ऐसी झकझोरने वाली कोई रिपोर्ट जारी होती है, उसी रिपोर्ट में हम देख पाते हैं कि भारत में बच्चे मर रहे हैं, गोया उस रिपोर्ट की उम्र भी महज़ एक या अधिकतम दो दिन ही होती है, मीडिया में ख़बरें छपने के बाद फिर वैसे ही बच्चे मरते रहते हैं!

 ऐसी ही एक रिपोर्ट फिर सामने आ खड़ी हुई है, जो बताती है कि हिन्दुस्तान में हर दो मिनट में तीन नवजातों की मौत हो जाती है. हम इसे तथ्य पेश करने वाली रिपोर्ट समझते हैं, पर तथ्यों से ज़्यादा यह सवाल करती है, क्या बच्चों की मौत को इस समूचे समाज ने सहज भाव से स्वीकार कर लिया है, जिस तरह बुनियादी सुविधाओं से महरूम भारत के लोगों ने कर लिया है, जो यह खुलकर बताते हैं कि उन्हें इस बात का भरोसा नहीं कि उनकी कितनी संतानें जीवित बचेंगी, इसलिए उनका परिवार 'हम दो, हमारे दो' तक ही सीमित नहीं रहता, बढ़ता जाता है.

 संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी एक संस्था ने भारत से जुड़े बेहद गंभीर आंकड़े जारी किए हैं. इसके मुताबिक, भारत में औसतन हर दो मिनट में तीन नवजात बच्चों की मौत हो जाती है. इसके पीछे के कारणों में पानी, स्वच्छता, उचित पोषाहार या बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है. संयुक्त राष्ट्र के शिशु मृत्युदर आकलन के लिए UNIGME की एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है.

 इस रिपोर्ट की मानें, तो भारत में साल 2017 में 8,02,000 शिशुओं की मौत हुई थी और यह आंकड़ा पांच वर्ष में सबसे कम है. लेकिन दुनियाभर में यह आंकड़ा अब भी सर्वाधिक है. हालांकि सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा विस्फोटक है. वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में भारत में 91 लाख बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाए.

 इस अवधि में शिशु मृत्युदर 53 से घट कर 37 पर आई है, पर फिर भी वर्ष 2015 के एक साल में ही 9.57 लाख बच्चों की मृत्यु हुई थी. इससे पहले के सालों में भी भारत बच्चों की मौत के मामलों में भयानक रहा है. इन आठ सालों में भारत में 1.113 करोड़ बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन नहीं मना पाए और उनकी मृत्यु हो गई. इनमें से 62.40 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने (28 दिन के भीतर) नहीं रहे. यानी 56 प्रतिशत बच्चों की नवजात अवस्था में ही मृत्यु हो गई. यह आबादी जीवित रही होती, तो हांगकांग, सिंगापुर सरीखे छोटे-मोटे देश बस गए होते.

 तो क्या भारत अपने देश में मर रहे शिशुओं को बचाने के प्रति चिंतित नहीं है...? आखिर क्यों यह मुद्दा हमारे पूरे सिस्टम से गायब है...? देखें कि देश में अगले महीने-दो महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसके बावजूद राज्यों के स्तर पर भी बच्चों की मौत, कुपोषण जैसे मुद्दे गायब हैं. सब तरह की बातें हो रही हैं, नहीं हो रही है, तो वही बात, जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी है.

 आखिर कोई क्यों यह आवाज़ नहीं उठाता है कि दुनिया में शिशु मृत्यु के सर्वाधिक आंकड़े भारत के हैं, जिसके बाद नाइजीरिया का नंबर है. यहां तक कि गरीब देश भी अपने आंकड़े सुधार रहे हैं. नाइजीरिया में एक साल में 4,66,000 शिशुओं की मृत्यु हुई. पाकिस्तान में 3,30,000 शिशुओं की मृत्यु होती है.

 तो कमी कहां हैं...? इच्छाशक्ति में, नीति में, नीयत में या बजट में...? सवाल प्राथमिकताओं का है, और जब समाज ही एक किस्म के भेड़ियाघसान की तरह चल रहा हो, तो सवाल आएं कहां से...? यह समाज चंद नौकरियों की खातिर आरक्षण पर तो भारत बंद कर सकता है, पर भारत में मरते बच्चों पर कोई एक घंटा भी बता दीजिए, जब किसी ने बंद का आह्वान किया हो. सवाल केवल मौतों का भी नहीं है, देखा जाए, तो बच्चों की सुरक्षा और शिक्षा का भी है.

 तो क्या बजट की कमी है...? बिल्कुल भी नहीं. वर्ष 2014-15 से 2016-17 के बीच बच्चों-महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष रूप से 31,890 करोड़ रुपये आवंटित किए गए; किन्तु इनमें से 7,951 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं हुए. इसका मतलब है कि धन की कमी भी नहीं है. ऐसी परिस्थितियों को तभी सुधारा जा सकता है, जब इन्हें सुधारा जाना प्राथमिकता में होगा. लोग अपने आसपास हर दो मिनट में मरते तीन बच्चों की मौत से दुःखी होंगे और सवाल पूछेंगे कि ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर भारत बंद - हालांकि बंद कोई बेहतर विकल्प नहीं है - बुलाएंगे, सरकार बनाएंगे और गिराएंगे.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
 

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com