विज्ञापन
This Article is From Jun 20, 2019

बच्चों की जान बचाने के लिए गंभीरता से सोचना होगा...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 20, 2019 13:45 pm IST
    • Published On जून 20, 2019 13:45 pm IST
    • Last Updated On जून 20, 2019 13:45 pm IST

पहली बार तो नहीं हुआ कि बच्चों की जान गई...! हां, एक के बाद एक लगातार गई. इतनी गई कि सनसनी बन गई. लेकिन ऐसा पहली बार तो नहीं हुआ...! इससे पहले के भी कई कलंक देश के दामन पर हैं, भारत जैसे देश में यह कोई नई बात नहीं है और इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

दोष केवल सरकार पर, डॉक्टरों पर और अस्पताल पर थोप देना भी अपने पर उठे सवालों से बचना होगा, व्यवस्था पर सवाल तो उतने गंभीर हैं ही, लेकिन उन्हें उठाने से पहले जरा एक बार खुद से पूछिएगा. जब आप एक मुल्क बनाने की बात करते हैं, तो उसमें बच्चे कहां होते हैं, उनके लिए कितना स्थान होता है, उनके लिए कितनी नीति-नियम और प्राथमिकताएं होती हैं, क्या आप बच्चों की दुनिया बेहतर बनाने के लिए वोट करते हैं...? इसलिए आश्चर्य मत कीजिएगा.

यदि भारत में बाल मृत्यु दर के आंकड़ों को संख्या में परिवर्तित करें, तो हमें हमारी कमजोरियां साफ दिखाई देती हैं. बहुत पुरानी बात नहीं, भारत में 2008 से 2015 के बीच के आठ सालों में 1.113 करोड़ बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन नहीं मना पाए. यह समाज उन्हें बचा नहीं पाया. इनमें से तकरीबन 62.40 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने (28 दिन के भीतर) ही मौत का शिकार हो गए. यानी 56 प्रतिशत बच्चों की नवजात अवस्था में ही मृत्यु हो गई. अब इस देश में बुलेट टेन आ भी जाए, तो क्या... हिन्दुस्तान डिजिटल बन भी जाए, तो क्या...! यह जो बिहार में एक के बाद बच्चे मर रहे हैं, इस कलंक को लेकर हम वैसे भी दुनिया को क्या मुंह दिखा सकते हैं.

बच्चों की मौत पर कोई गंभीर विमर्श कभी नहीं होता, और न ही उसे गंभीरता से और लगातार रिपोर्ट किया जाता है. अब भी ICU से जो रिपोर्ट करते वरिष्ठ पत्रकार आपको दिखाई देंगे, वे या तो डॉक्टरों की कमी को इसका जिम्मेदार मानेंगे या फिर दवा नहीं होने को दोषी मान लिया जाएगा. स्वास्थ्य रिपोर्टिंग पर इससे अधिक क्षमता और दमखम हमारा मीडिया भी कहां दिखा पाता है, जबकि वि‍श्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट बताती है कि‍ भारत में कुल GDP का 4.7 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है. पिछले 20 सालों में यह मात्र 0.7 प्रतिशत ही बढ़ पाया. यह अभी भी स्वास्थ्य क्षेत्र में विश्व की औसत GDP प्रतिशत का आधा है. यह आंकड़ा भी दो साल पहले तक का है.

इसमें से भी आवंटित राशि का बड़ा हिस्सा बिना खर्च हुए रह जाता है. चिकित्सा शिक्षा का हाल बुरा है. बीमारों के अनुपात में डॉक्टरों का उत्पादन देश में नहीं हो रहा है. सस्ती और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को वेंटीलेटर पर ले जाया जा रहा है, और अब चिकित्सा बीमा के बाद तो इनकी हालत और भी खराब होने वाली है, क्योंकि सरकार अच्छे इलाज के लिए बीमे की रकम दे भी रही है और हमारे समाज ने भी अब यह मान लिया है कि अच्छा इलाज तो निजी अस्पतालों में ही मिलता है.

सन् 1977 में सोवियत रूस के 'आल्मा आटा' में हुए विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन में तय हुआ कि सरकारों एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का मुख्य सामाजिक लक्ष्य यह होना चाहिए कि सन् 2000 तक विश्व के सभी लोग को स्वास्थ्य का ऐसा स्तर उपलब्ध हो जाए, जिससे सामाजि‍क एवं आर्थिक उत्पादक जीवन जी सकें. 'आल्मा आटा' घोषणा में, 'सन् 2000 तक सभी के लिए स्वास्थ्य' की बात कही गई, लेकिन तब तक यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया. इसके बाद शताब्दी विकास लक्ष्य - जिसके अंतर्गत सन् 2015 तक सभी को स्वास्थ्य उपलब्ध करवाने की बात कहीं गई थी. परन्तु अभी भारत जैसी विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था भी अपने तीन चौथाई से ज्यादा नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने में असमर्थ रही है. सतत विकास लक्ष्यों में भी बेहतर स्वास्थ्य की बात कही तो गई, लेकिन इसके लक्ष्यों तक पहुंच पाने का कोई रोडमैप दिखाई नहीं दे रहा है.

स्वास्थ्य का मसला पोषण से जुड़ा है. भारत में यदि स्वास्थ्य को ठीक करना है, तो पोषण को सुधारना होगा. पोषण कई कारणों से बिगड़ा है, उन समाजों में भी, जो आर्थिक अभाव में नहीं हैं. आर्थिक अभाव वाला समाज कुपोषण के दंश को लेकर जी ही रहा है और भारत का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण बताता है कि भारत में अब भी तकरीबन 36 प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन के हैं, यानी एक तरह के कुपोषण का शिकार हैं. इन बच्चों के बीमार होने की दशा में उनकी मौत होने का कहीं ज्यादा खतरा है, लेकिन जिस तरह कुपोषण को खत्म करने की गति हमारे देश में है, उस गति से बच्चों की मौतों को रोका जाना बहुत बाद में संभव हो सकेगा.

इसलिए बच्चों को बचाना है, तो उन्हें केवल डॉक्टरों और दवाइयों की उपलब्धता तक सीमित मानते हुए नहीं देखना होगा. उसके लिए एक व्यापक और लगातार विमर्श की जरूरत है. एक जनचर्चा और जनविषय की जरूरत है.

राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com