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This Article is From Aug 10, 2017

रियल लाइफ में भी ‘मेरा बाप चोर है!’

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 10, 2017 14:04 pm IST
    • Published On अगस्त 10, 2017 13:48 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 10, 2017 14:04 pm IST
आपको दीवार फिल्म याद है! दीवार फिल्म का अमिताभ बच्चन यानी ‘विजय’ याद है. आपको विजय के हाथ पर लिखा ‘मेरा बाप चोर है’ याद है? होगा ही… आखिर इसी फिल्म के बलबूते तो सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का करियर परवान चढ़ा. अलबत्ता हाथ पर लिखी यह इबारत रील पर सबसे बड़ा ड्रामा साबित हुई. बाल अवस्था की इस घटना का विजय के पूरे जीवन पर क्या असर रहा? यह हमने रील पर देखा. आप बिलकुल सोच रहे होंगे कि 1975 में रिलीज हुई इस फिल्म की कहानी दोहराने का अब क्या मतलब?

मतलब है! फिल्म की इस जैसी ही कहानी यदि वास्तविक दुनिया में रची जाने लगे तो आप क्या कहेंगे? आप क्या कहेंगे कि विलेन की जगह जब यह कहानी ऐसे लोगों द्वारा रची जाने लगे जो समाज के रखवाले हैं, संरक्षक हैं. जी हां, पिछले साल तथाकथित सिमी आतंकियों का एनकाउंटर करने वाली भोपाल की केंद्रीय जेल ने ऐसा कारनामा किया, जिससे उस पर एक बार फिर उसकी कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं. जेल प्रबंधन ने यहां कैदियों से मिलने आने वाले उनके परिजनों के चेहरों पर जेल की मुहर जड़ दी.

यह मुहर वहां आने वाले बच्चों के गाल पर भी लगाई गई. वहां कवरेज पर पहुंचे हमारे फोटो जर्नलिस्ट दोस्त अबरार खान ने बच्चों के चेहरों और उस पर लगी सरकारी मुहर की त्रासदी को पढ़ लिया, और आजाद हिंदुस्तान की एक भयावह तस्वीर को समाज के सामने लाए, जिसमें उन बच्चों की बेबसी साफ नजर आ रही थी. इस तस्वीर ने संवेदनाओं को हिलाकर रख दिया, और समाज को उसका आइना बताया जिसमें बच्चों के साथ अब भी इस तरह का बर्बर व्यवहार किया जा रहा है, जो किसी फिल्मी कहानी से भी ज्यादा भयंकर है.

बच्चों के चेहरे पर जेल की मुहर जड़ देने के अलावा क्या और कोई विकल्प नहीं था. क्या यह जेल मैनुअल का एक हिस्सा था, अथवा नहीं था, इस पर तमाम तरह से सोचा, कहा और तर्क दिया जा सकता था, लेकिन आप यकीन कीजिए कि मानवीयता के नजरिए से यह अपराध ही कहा जाएगा. इसलिए क्योंकि यह मुहर उन्हें बार—बार खुद को एक अपराधी की संतान होने की याद दिलाती रहेगी.

क्या जेलें अपराधी को अपराध की सजा दिलवाने के लिए ही हैं, अथवा वह अपराध के प्रायश्चित और एक नई जिंदगी की शुरुआत का मौका देने का माध्यम भी हो सकती हैं. यह सही है कि जेलों के अंदर की दुनिया बेहद भयावह होती है. जो कहानियां वहां से हमें कई लोग सुनते—सुनाते आए हैं, वह कोई बहुत अच्छी कहानियां नहीं हैं. लेकिन सच तो यह भी है कि हमारे तंत्र ने उन्हें ऐसा ही बनाया है.

ऐसा नहीं है कि यह बात किसी के संज्ञान में नहीं है, कुछ छुटपुट प्रयोग होते भी रहे हैं.. जैसे इसी भोपाल जेल से सत्तर किलोमीटर की दूरी पर होशंगाबाद की जेल को मध्यप्रदेश की पहली खुली जेल बनाया गया है. पर सवाल यह है कि ऐसे प्रयोगों को कितनी गंभीरता से सफल भी किया जाता है. ऐसा भी नहीं हो सकता कि एक तरफ खुली जेल के प्रयोग किए जा रहे हों और दूसरी तरफ जेलों में बच्चों के साथ इस तरह का सुलूक किया जा रहा हो.

इस मामले पर मानव अधिकर आयोग, बाल अधिकार सरंक्षण आयोग ने भी संज्ञान लिया. जेल मंत्री कुसुम महदेले ने भी इस पर बयान जारी करके मामले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया. आयोग ने बच्चों को दस हजार रुपये की राशि देने की अनुशंसा भी की. पर सवाल यह है कि क्या महज दस हजार रुपये की राशि इसका मुआवजा हो सकती है? क्या इस तरह के व्यवहार का कोई भी मुआवजा हो सकता है? सवाल यह भी है कि जिंदगी की हर कहानी फिल्मों की तरह सफल नहीं हो सकती जहां नायक को तमाम प्रहसनों से स्थापित किया जा सकता है. यह रियल लाइफ है, और रियल लाइफ की कहानी इतनी आसान नहीं होती, जितनी फिल्मों में दिखा दी जाती है.

यह ब्लॉग लिखते—लिखते मुझे याद आया कुछ साल पहले मैं भी रक्षाबंधन पर अपने क्राइम रिपोर्टर दोस्त सुनीत सक्सेना के साथ जेल गया था. अपराध, आंखों के रास्ते आंसुओं की तरह कैसे बहते हैं, रिश्तों की गर्मी से फौलादी मन भी कैसे कतरा—कतरा पिघलकर मोम की तरह बहने लगते हैं... वह आप महसूस कर सकते हैं. इसलिए हमारे यहां एक बहुत अच्छी बात कहकर अपराधी को सही रास्ते पर आने का विकल्प हमेशा खुला रखा जाता है कि अपराध से नफरत करो, अपराधी से नहीं.
 
jail children

मुझे रायपुर के अपने रिपोर्टर दोस्त संदीप राजवाड़े याद आते हैं. यह जुनूनी रिपोर्टर कई सालों से जेल में महिलाओं के साथ निरपराध रूप से रहने वाले बच्चों के साथ हर साल दशहरे का त्योहार मनाते हैं. आपस में दोस्तों के साथ चंदा करना, उनके लिए पटाखे खरीदना, एक छोटा सा रावण और जेल के छोटे—छोटे प्यारे—प्यारे बच्चे. कई और लोग भी ऐसी अच्छी कोशिश कर ही रहे होंगे. मुझे भी एक बार उनके साथ ऐसे ही दशहरे में शामिल होने का मौका मिला, मुझे लगता है वह जीवन के बेहतरीन पल थे, क्योंकि आप अंधेरे को रोशनी से दूर करने की कोशिश करते हैं. दरअसल अपराध को ऐसी ही संवेदना की जरूरत है.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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