कवर्ड कैंपस वाली कॉलोनी में कुछ दिनों से एक सब्जी वाला आने लगा. लोगों को सुबह से हरी—ताजा सब्जियां मिलने लगीं. कॉलोनी के व्हाट्स एप ग्रुप पर यह संदेश चल पड़ा कि ‘सब्जी वाला अंदर कैसे दाखिल हो रहा है ? इससे सुरक्षा व्यवस्था खतरे में पड़ रही है.' किसी ने दलील दी कि ‘हमें ही तो सुविधा मिल रही है.' फिर किसी ने कहा ‘आज एक सब्जी वाला आ रहा है, कल कई और आएंगे. और हां रविवार को कबाड़ी वाला भी तो आता है. एक बार अंदर दाखिल होने के बाद वह किस मकान में जा रहा है, और क्या कर रहा है, इसका पता भी नहीं चलता. कुरियर वाले भी बिना एंट्री के घुस आते हैं.' सुरक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने के कई उपाय भी ग्रुप पर आए.
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देश में पाकिस्तान को रौंद देने का माहौल है और यहां कॉलोनीवाले सब्जी वालों, कबाड़ी वालों, कुरियर वालों से इस कदर डरे बैठे हैं कि वे सारे के सारे आदतन अपराधी हों, जैसे ही वह कॉलोनी में दाखिल होंगे, तो यकीनन कोई न कोई अपराध कर ही देंगे !!
तो क्यों न इन छोटे—छोटे काम करने वालों को शहर से ही बाहर कर दिया जाए !!! जैसे सब्जी वाले, घरों में झाडू—पोंछा करने वाली महिलाएं, घरों से कचरा समेटकर ले जाने वाले कबाड़ी वाले, रात को खाली की गई दारू की बोतलें और अखबार की रद्दी खरीदने वाले, बच्चों को स्कूल से लाने—ले जाने वाली वैन, साहब लोगों को दफ्तर तक पहुंचाने वाले शहर के सारे ड्राइवर, घरों में खाना बनाने वाली बाइयां, प्लंबर, एयरकूल्ड व्यवस्था को ठीक करने वाले, कपड़ों को साफ और इस्तरी कर ऑफिस जाने लायक बनाने वाले, शहर के सारे बाजारों को सुबह से झाड़—पोंछकर दिनभर के लिए खूबसूरत बनाने वाले, फेरी लगाकर फल बेचने वाले, सुबह से दूध का इंतजाम करने वाले और ऐसे तमाम गरीब—निम्नवर्गीय लोगों को शहर से बाहर नहीं कर देना चाहिए? जब एक कॉलोनी में इनके लिए यह मानसिकता है कि यह लोग कोई अपराध करेंगे ही तो क्यों केवल कॉलोनी से, सारे शहर से ही इनको दूर कर दिया जाए ?
क्या चल पाएगा शहर...? कल्पना कीजिए, केवल एक दिन इन सारे लोगों को शहर की जिंदगी से बाहर करके देखिए, देखिए कि क्या—क्या होगा, घर में सुबह दूध आएगा, सब्जी आएगी, बच्चे स्कूल जाएंगे, नाश्ता और खाना बन पाएगा, सर और मैडम में रोटी बनाने को लेकर झगड़ा नहीं हो जाएगा, क्या बाजार खुल पाएंगे, सुबह कॉलोनी के नल कौन खोलेगा, घरों में कबाड़ जमा होने से क्या दिवाली मना पाएंगे ! यदि यह सब काम आप कर पाएं, तो जरूर ऐसे लोगों को यह संभ्रांत समाज अपने शहर से बाहर कर दे, जिन्हें वह केवल घृणा का पात्र समझते हुए अपराधी करार दे देता है.
यह सही है कि अपराध होते हैं, लेकिन क्या अपराधी सिर्फ गरीब, बेबस और लाचार लोग होते हैं. गौर कीजिए कि इस देश में पैसे वाले लोग अपराध करके जेल काटते हुए भी पैरोल पर महीनों बाहर हो आते हैं, और समाज उन्हें नायकों की तरह मानता है. कोई पैसे और ख्याति वाला नायक सड़क पर शराब के नशे में लोगों को रौंदकर चला जाता है और हम फिर भी उसे अपराधी नहीं मानते, समाज, व्यवस्था, राजनीति, न्याय, सभी उसे बचाने में लग जाते हैं! इस देश से करोड़ों रुपए का घपला करने वाले विदेशों में मजे करने चले जाते हैं, न तो सरकार उसे रोक पाती है, न वापस ला पाती है और बाकी सब लोग इस पर अपनी बेबसी भर जता पाते हैं. इस देश में अपराधियों को मत देकर संसद और विधानसभाओं में पहुंचा दिया जाता है. उनके अपराध इस समाज को दिखाई नहीं देते, लेकिन कोई एक कबाड़ी, कोई एक सब्जी वाला, कोई एक दूध बेचने वाले का अपराध उस तरह का काम करने वाले सभी लोगों का अपराध कैसे बन जाता है ?
यह सही है कि लचर कानून—व्यवस्था और इस सामाजिक तानेबाने ने ऐसा सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आज कोई व्यक्ति अपनी ही चाहरदिवारी के अंदर खुद को महफूज नहीं मानता है. दिखाई यह भी दे रहा है कि एक छोटा—मोटा काम करके जिंदगी बसर करने वाले लोगों के लिए दो जून की रोटी जुगाड़ना उतना ही कठिन है जितना आसान बड़ी पूंजी को और बड़ा कर पाना. इसलिए देश के इन दो ओर—छोर पर खड़े लोगों के लिए अपनी जिंदगी के सवाल बिलकुल भिन्न है. इनके बीच का एक तीसरा वर्ग भी है, जो दोनों के बीच की कड़ी का काम करता है, लेकिन यह तीसरा वर्ग सहयोगी की बजाय संकट बनकर जब खड़ा होता है तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं. परिस्थितियां इसलिए भी मजबूर करती हैं कि देश में खेती—किसानी और गांव के सुविधाविहीन हालातों में हर साल लोग लाखों की संख्या में पलायन करके शहर आ रहे हैं. जाहिर है वह शहर आकर ऐसे ही निर्माण और शहर की जरूरतों को पूरा करने वाले कामों में लगते हैं. ग्रामीण व्यवस्था में रोजगार और दूसरी आधारभूत सुविधाओं को पूरा किए बिना इस पलायन को जादू की छड़ी से रोका भी नहीं जा सकता.
खाया—अघाया समाज जीवन—मरण और जिंदगी के इन रोज—रोज के सवालों को समझना भी नहीं चाहता. उसे भय होता है अपने ही लोगों से. वह पाकिस्तान को रौंद देने के नारे सोशल मीडिया पर लगाने लगता है क्योंकि वह बेहद आसान होता है. डर तो सीमा पर बसे उन लोगों को लगता है जो रोज—रोज की फायरिंग से परेशान होते हैं, पूर्वोत्तर में बंदूकें जिन्हें डराती हैं, या जो डर के दोहरे साये में बस्तर, झारखंड,आंध्रा के जंगलों में रहते हैं. सोचिए वह डर क्या होता है !
हां, कि सतर्क रहिए, सुरक्षित रहिए. सुरक्षा के हर संभव इंतजाम कीजिए. लेकिन असली दुश्मनों को भी पहचानिए. पहचानिए कि नौकरशाही की कौन सी कुर्सी देश के लिए खतरनाक काम कर रही है. पहचानिए कि किसका हक कौन छीन रहा है, देखिए कि कहां भ्रष्ट निर्माण हो रहा है ! दौड़िए कि कोई बहन किसी घिनौनी हरकत से चीख तो नहीं रही, संभालिए कि कोई बच्चा क्योंकर भीख मांग रहा है, उठाइये कि कौन बुजुर्ग चलते—चलते जमीन पर गिर गया है, पीठ थपथपाईये कि किस युवा ने देश के लिए कमाल कर दिया है! यकीन मानिए आपकी देशभक्ति इससे भी पहचानी जाएगी.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Sep 24, 2016
#युद्धकेविरुद्ध : यकीन मानिए देशभक्ति इससे भी पहचानी जाएगी !
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 26, 2016 11:12 am IST
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Published On सितंबर 24, 2016 15:40 pm IST
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Last Updated On सितंबर 26, 2016 11:12 am IST
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