"पर मेरे कहने के मुताबिक तो कुछ होगा नहीं. होगा वही जो कांग्रेस करेगी. मेरी आज चलती कहां है? मेरी चलती तो पंजाब न हुआ होता, न बिहार होता, न नोआखली. आज मेरी कोई मानता नहीं है. मैं बहुत छोटा आदमी हूं. हां एक दिन मैं हिन्दुस्तान में बड़ा आदमी था. तब सब मेरी बात मानते थे. आज तो न कांग्रेस मेरी बात मानती है, न हिन्दू और न मुसलमान."
-महात्मा गांधी
क्या हत्या जायज है ! क्या किसी की भी हत्या जायज है ! यदि आप अपने विचार, अपनी पक्षधरता और अपने नजरिए में इसे जायज मान रहे हैं तो माफ कीजिए, आप गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी के देश का नागरिक होने का कोई अधिकार नहीं रखते. यह बहुत साफ है कि जब कोई हत्या आपको वध की तरह दिखाई-सुनाई पड़ने लग जाती है, और आप भी उसको वैसा ही चिल्लाने लगते हैं, तो यह तय हो जाता है कि आप किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं, किस तरह की व्यवस्था अपने आसपास खड़ी करना चाहते हैं.
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यह भी बहुत साफ है कि इस तरह की हिंसक दुनिया के समर्थक होकर आप खुद को ज्यादा ‘सुरक्षित’ समझने लग जाते हैं, दरअसल तब आप भ्रम में ही होते हैं, क्योंकि जो व्यवहार आप कर रहे हैं, बदले में कहीं न कहीं, विभिन्न रूपों में वही तो मिलने वाला है, इसलिए आप निश्चित मत होइए, ज्यादा चिता कीजिए, क्योंकि भारतीय संस्कृति के कई सोपान जो हमें दुनिया में सबसे बेहतर जिंदगी जीने का, समाज को गढ़ देने का देते हैं, ऐसा कहकर हम उनके ही खिलाफ हो जाते हैं. यह खिलाफत हो सकता है, आपकी नजर में जिसके भी खिलाफ है, वह मानवता के साथ तो कतई नहीं है, क्योंकि हत्या किसी की भी हो, जब तक कि वह दूसरे प्राकृतिक और मानव जीवन पर भयंकर खतरा नहीं बनकर आते हैं, जायज नहीं कही जा सकती.
अपने ही आंगन में कनपटी पर गोली चलाकर मार दी गई, पत्रकार गौरी लंकेश मानवता के लिए कोई खतरा पैदा नहीं कर रही थी. उससे पहले कलबुर्गी, दाभोलकर, पनसारे और ऐसे कई और नाम भी मानवता के लिए कोई खतरा पैदा नहीं कर रहे थे. हो सकता है, कि उनकी लिखी, खोली गई बातें किसी भी पक्ष को चुभने वाली हों, लेकिन यही तो उनकी जिम्मेदारी भी थी. यदि उन्होंने आलोचना करने का जिम्मा लिया था, तो वह आलोचना ही करेंगे, आलोचना का जवाब भी ‘बड़ी रचना’ हो सकता है, पर यदि आलोचना करने पर जीवन पर संकट खड़ा हो रहा हो तो माफ कीजिए भारतीय समाज की स्वतंत्रता और मानव जीवन के विकास के लिए एक बड़ा खतरा अपने ही हाथों मोल ले रहे हैं.
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यह खतरा मोल लेने वाले और देने वाले कौन लोग हैं, और इनके बीच का ‘आम आदमी’ कहां गायब है ? वह ऐसे किसी विमर्श का हिस्सा है जहां हत्या को वध करार दिया जा रहा हो ? क्या उसकी दुख-तकलीफे हैं और उसका कोई निराकरण किसी के भी पास है क्या ? कोई यह बताएगा कि विकास होने के साथ-साथ आम आदमी की दुख-तकलीफें बढ़ रही हैं या घट रही हैं ?
किसी भी पैमाने पर बुजुर्गों से बात कर लीजिए, वह अपने जमाने को बहुत बेहतर बताते थे. तथ्यों को देख लीजिए, जो तमाम रिपोर्ट में समय-समय पर बताए जाते हैं. सरकारों की छवि खराब होने के डर से उन्हें तमाम तरीकों से मैनेज किया जाता है, उनका एंगल बदला जाता है, फिर भी वह कहीं न कहीं से विकास की पोल खोलकर सामने खड़े हो जाते हैं. और इन तमाम रिपोर्ट,आंकड़ों आंकड़ों पर आपको पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरह से शक हो तो कृपया अपने घरों से निकलिए और कुछ समय ऐसे वंचित, हाशिए के समाज के साथ जरूर बिताईए जिनके लिए असल में विकास सबसे पहले होना चाहिए, इसकी सोच गांधी भी सर्वोदय के विचार में देते हैं, और दीनदयाल भी अंत्योदय में देते हैं. इनके हिस्से में विकास तो नहीं आ रहा, उलटे ऐसा विचार जरूर आ रहा है, जो हत्या को वध करार देता है.
जब भी आप हिंदुस्तान के आम आदमी के पास जाते हैं तो वह इन सब हैशटैग में पड़ता ही नहीं है, जिनसे आजकल भ्रम हो जाता है कि दुनिया इसी से चल रही है. हां, तकनीक वहां तक बहुत तेजी से पहुंच रही है, पर उस तेजी से रोटी-कपड़ा-मकान और सस्ती बुनियादी जरूरतें तो नहीं पहुंच रही. इसलिए जिस तेजी से यह भ्रम बढ़ रहा है, उसी तेजी से खत्म भी होगा, यह उम्मीद बनाए रखी जा सकती है. यह एक मायावी संसार है तो असत्य की बुनियाद पर ही रचा जा रहा है, असत्य की बुनियाद पर खड़ी इमारत गिरती ही है, थोड़ा इतिहास का अध्ययन कर लेना श्रेष्ठ होगा, या अपने साथ चल रहे वर्तमान को देख लेना भी लाजिमी होगा.
वीडियो: इंद्रजीत लंकेश से NDTV की बातचीत
अतिवादी विचारधारा के किसी भी कोने से किसी भी भ्रम में रहना ठीक नहीं है, जीवन के असली मूल्य भारतीय समाज को अपनी संस्कृति से विरासत में मिले हैं, जिनमें दया, करूणा, अहिंसा, सत्य के बुनियादी तत्व छिपे हुए हैं. इनसे ही हमारा समाज सबसे बेहतर समाज बन सकता है. यदि किसी पक्ष में खड़े होना है तो इन तत्वों के पक्ष में खड़े होईए. हालांकि यह बेहद कठिन काम है. इसी जमाने के कवि राजेश जोशी की कविता कहती है...
जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएंगे.
जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे
मारे जाएंगे.
कठघरे मे खड़े कर दिए जाएंगे जो विरोध में बोलेंगे
जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएंगे.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Sep 07, 2017
जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएंगे
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 07, 2017 15:50 pm IST
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Published On सितंबर 07, 2017 15:23 pm IST
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Last Updated On सितंबर 07, 2017 15:50 pm IST
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