ये बात है एक ऐसे योद्धा की जिसने आतंकियों को लड़ाई में कई बार धूल चटाई और हमेशा ही जीत हासिल की और कैंसर जैसी घातक बीमारी भी उसका हौसला नही तोड़ सकी. उन्होंने कैंसर के खिलाफ न केवल लंबी लड़ाई लड़ी बल्कि मैराथन तक में जौहर दिखाए. अंतिम क्षण तक उनके चेहरे पर शिकन का नामोनिशान नहीं था. अब वो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हमारे बीच है उनकी बहादुरी के किस्से और जांबाजी की कहानी अब इतिहास में दर्ज हो चुकी है.
हम बात कर कर रहे हैं सेना के स्पेशल फोर्स के पैरा 2 के कमांडिग ऑफिसर रहे कर्नल नवजोत सिंह बल की. एक बहादुर सैनिक, शौर्य पुरस्कार से सम्मानित, मैराथनी और सबसे अच्छी बात एक अच्छे इंसान. कर्नल बल अपने पीछे पत्नी आरती और दो बेटे जोरावर व सारबाज को छोड़ गए.
मात्र 39 साल की उम्र में कर्नल बल की शौर्य गाथा अद्भुत है. दिल्ली के धौलाकुंआ के आर्मी स्कूल से शुरुआती पढ़ाई की. वर्ष 1998 में एनडीए में शामिल हुए और सेना के पैरा सर्विस में कमीशन मिला. सन 2008 में बहादुरी के लिए सम्मानित किए गए. कुपवाड़ा की लोलाब वेली में आतंकियों के खिलाफ अदम्य साहस का परिचय देने की वजह से उनको शांति काल में दिए जाने वाले वीरता और पराक्रम के तीसरे सबसे बड़े पुरस्कार शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया था.
दो साल पहले कर्नल नवजोत को कसरत के दौरान दाहिने हाथ में सूजन सी महसूस हुई. बाद में जब उन्होंने डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि उनको एक दुर्लभ किस्म का कैंसर है. उनका इलाज मुंबई के टाटा कैंसर रिसर्च सेंटर और अमेरिका में भी हुआ. पूरे शरीर में कैंसर के फैलाव को रोकने के लिए डॉक्टरों ने इनके दाहिने हाथ को काट दिया. इसके बावजूद एक सच्चे सैनिक की तरह उन्होंने हार नहीं मानी. एक हाथ नहीं रहने के बावजूद दो महीने बाद राजस्थान में सैन्य अभियान में हिस्सा लिया. एक हाथ से 50 पुशअप करते रहे. 21 किलोमीटर मैराथन में हिस्सा भी लिया. पर दुर्भाग्य से कैंसर इनके शरीर के फेफड़ों, लीवर और हृदय तक फैल गया और बेंगलुरु के अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली.
मेजर संजीव मलिक कर्नल बल को याद करते हुए कहते हैं कि कि उन्होंने अपने जीवन में इतना बहादुर, साहसी जिंदादिल और शौर्यवान सैन्य ऑफिसर नहीं देखा. कैंसर जैसी असाध्य और घातक बीमारी को झेलते रहने के बावजूद जिंदगी और सेना के प्रति उनका जज्बा कभी कम नहीं हुआ.
कर्नल बल के साथ कार्य कर चुके कई अधिकारी कैंसर से लड़ते हुए उनकी बहादुरी और देश के प्रति समर्पण को सेना के लिए एक नजीर मानते हैं. सच तो यह है कि कई मोर्चों पर जंग और फतह हासिल करने वाले इस सैनिक की मौत कैंसर से नहीं बल्कि दिल की धड़कन रुक जाने से हुई.
(राजीव रंजन TV इंडिया में एसोसिएट एडिटर (डिफेंस) हैं...)
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