भाषण का Analysis: क्‍या यह राहुल गांधी का नया 'अवतार' है?

भाषण का Analysis: क्‍या यह राहुल गांधी का नया 'अवतार' है?

राहुल गांधी की बातों की काट करने में सत्तारूढ़ दल के अमले को बड़ी दिक्कत आएगी.

दिल्‍ली के तालकटोरा में राहुल गांधी का 11 जनवरी का भाषण उनके अब तक के भाषणों से बिल्कुल ही अलग था. बड़ी गंभीर बातों को वे सरलता और सहजता से कह पाए. किसी भाषण में तर्क, विश्वसनीयता और करुणा के तीनो तत्वों में तर्क का इस्तेमाल करने में आजकल सभी को बड़ी दिक्कत आती है. लेकिन आज तर्क ने ही उनके भाषण को इतना असरदार बनाया. पिछले तीन महीनों में लगातार उन्हें जितने मंच और मौके मिले हैं उसके कारण अब उनके भाषण में दुर्लभ सहजता आ जाना तो स्वाभाविक है. अगर भाषण के कुछ प्रमुख बिंदुओं के बहाने विश्‍लेषण किया जाए तो यह बात कही जा सकती है कि विपक्ष के एक नेता के तौर पर उनकी बातों की काट करने में अब सत्तारूढ़ दल के अमले को बड़ी दिक्कत आएगी.

(पढ़ें- गौर करें, तो 2016 में नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ही छाए रहे...)

एक ही दिन में दो बड़े भाषण
राहुल ने सम्मेलन के उद्घाटन और समापन दोनों ही अवसरों पर मुख्य भाषण दिए. सवेरे के भाषण को जिन जानकारों ने गौर से सुना होगा उन्हें यह भी लगा होगा कि हफ्ते भर के एकांतवास में राहुल ने देश के हालात को एक नजर में व्यवस्थित रूप से रखने के पहले पूरी तैयारी की है. शाम के भाषण के फौरन बाद तो मीडिया में सत्‍तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं की फौज को मोर्चा संभालना पड़ा. यही बात यह समझने के लिए काफी है कि राहुल अचानक बहुत असरदार हो उठे हैं.

बारी-बारी से हिंदी और अंग्रेजी में संबोधन
गौर करने की बात है कि अपने बहुभाषी देश में भाषा बड़ी अड़चन पैदा करती है. एक ही बार में पूरे देश को संबोधित करने के लिए आज भी अंग्रेजी का इस्तेमाल मजबूरी बनी हुई है. इधर हिंदी भाषी लोगों के लिए हिंदी की मजबूरी है. सो आज राहुल ने पहले अंग्रेजी में बोला. जो लोग संप्रेषण के क्षेत्र के जानकार हैं वे भी मानेंगे कि राहुल ने अंग्रेजी का वह लहजा जान लिया है जिसमें अपने देश और दुनिया के किसी भी देश के लोगों को आसानी से संबोधित किया जा सकता है. लगता है कि राहुल गांधी अब संपादित बोलने में भी पटु हो गए हैं.
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हिंदी में पहले से ज्यादा असरदार
अंग्रेजी के बाद हिंदी में बोलने के पहले लग रहा था कि हिंदी में बोलते समय कई बातें उनसे छूट जाएंगी. लेकिन हैरत की बात है कि हिंदी में उन्होंने उससे भी ज्यादा प्रभावी लहजे में और उससे भी ज्यादा मुद्दों पर बोला. सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात ये दिखाई दी कि हिंदी में सुरुचिपूर्ण व्‍यंग्‍य के सहारे वे कम शब्दों में भी अपनी बात कह पाए.     

लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं की चिंता
उनके भाषण में यह मुद्दा सबसे ज्यादा गंभीर रूप लेकर आया. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर बनाने की बात कही. इन संस्थाओं को उन्होंने लोकतांत्रिक देश की आत्मा बताया. मिसाल के तौर पर उन्होंने रिजर्व बैंक और प्रेस का जिक्र किया. उन्होंने जो कुछ कहा उसका सार यह निकलता था कि सरकार की तरफ से लिए गए नोटबंदी के फैसले से रिजर्व बैंक जैसी महत्वपूर्ण संस्था की स्थिति हास्यास्पद बन गई है. हम ऐसा कह सकते हैं कि राहुल गांधी ने संभवतया आज सुबह अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा का भाषण जरूर सुना होगा क्‍योंकि ओबामा के भाषण में भी लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संस्‍थाओं के साथ विविधता पर जोर दिया गया था.  

नए-नए कार्यक्रमों के पीछे मुंह छिपाते रहे मोदी
मोदी सरकार के अब तक के कामकाज की समीक्षा वाकई नहीं हो पाई है. सरकार के काम में बहुत ही जल्दी-जल्दी बदलती चली गई प्राथमिकताओं के कारण मीडिया और विपक्ष की तरफ से यह समीक्षा करने का मौका ही नहीं बन पाया. इस बारे में राहुल गांधी के आज के भाषण में मोदी सरकार के स्वच्छता अभियान से लेकर नोटबंदी तक के निर्णय को उन्होंने बहुत ही कारगर तरीके से याद दिलाया. उन्होंने याद दिलाया कि पिछले चुनाव में किए भारी-भरकम वायदों से मुंह छिपाने के लिए मोदी एक के बाद एक कार्यक्रमों का ऐलान करते रहे और किसी भी कार्यक्रम को पूरा किए बगैर कूदकर दूसरे कार्यक्रम के पर्दे के पीछे छुपते रहे.

ऐसे ही कार्यक्रमों के नाम गिनाते हुए उन्होंने योग कार्यक्रम का भी रोचक अंदाज में जिक्र किया. योग के प्रचार कार्यक्रम के दौरान उन्होंने मोदी जी की एक फोटो का भी जिक्र किया. उन्होंने कहा कि आमतौर पर बिना पद्मासन के योग नहीं हो पाता. भाषण के दौरान इस संतुलित व्‍यंग्‍य में रोचकता का तत्‍व भी आ गया. ऐसी ही रोचकता उस वक्‍त उत्‍पन्‍न हुई जब उन्‍होंने स्वच्छता अभियान के प्रचार में नरेंद्र मोदी के झाड़ू पकड़ने के दृश्‍य को उपस्थित किया.

मोदी सरकार में देश की बिगड़ती हालत
राहुल के भाषण में मौजूदा सरकार के ढाई साल में एक के बाद एक तमाम नाकामियों का तर्कपूर्ण ब्‍यौरा था. इसे बताने के लिए उन्होंने ज्यादा मशक्कत नहीं की. उन्होंने तमाम कार्यक्रमों योजनाओं के नाम गिनाते हुए सिर्फ याद भर दिलाया. जिनमें स्वच्छता अभियान, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप, स्किल इंडिया जैसे नारों को आते-जाते दिखाया गया था. आखिर में नोटबंदी का हवाला था.

इस बारे में उन्होंने देश और सारी दुनिया के अर्थशास्त्रियों की राय का हवाला दिया. इसी दौरान उन्होंने देश की माली हालत की मौजूदा हालत बताई. विनिर्माण के सबसे बड़े क्षेत्र यानी वाहन उद्योग की हालत को उन्होंने सबूत के तौर पर पेश किया और बताया कि देश में दुपहिया और कारों के निर्माण की रफ्तार कम ही नहीं हुई बल्कि पहले से भी कम हो गई है. इस आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी इस बीच कहीं से देश की आर्थिक स्थिति को समझने में अच्छा खासा वक्त लगाकर आए हैं.

बेरोजगारी को सबसे बड़ी नाकामी बताया
यह ऐसा मसला है जिस पर सरकार आंकड़े तक नहीं बताती. लेकिन किसी देश के सुख-दुख के नापने का यह एक पैमाना माना जाता है. राहुल गांधी ने इन ढाई साल में तेजी से बढ़ी बेरोजगारी का हवाला संजीदगी के साथ दिया. लगता है कि आने वाले दिनों में किसानों की बदहाली के बाद दूसरा मुख्य मुद्दा वे बेरोजगारी को ही बनाने वाले हैं.

भाषण को बनाया रोचक
मसलन पीएम मोदी के 'मन की बात' पर राहुल ने कहा कि वे दिल को खोलकर मन की बात नहीं कह पाते. आर्थिक मामलों में अर्थशास्त्रियों के बजाए उनके सलाहकार रामदेव और बोकिल जैसे लोग होते हैं. इस तरह राहुल गांधी का अंदाज कुछ मौकों पर सहज व्‍यंग्‍य का भी बन गया दिखा.

कांग्रेस के योगदान पर चर्चा
लगता है राहुल गांधी को अब यह भी समझ आ गया है कि उनकी पार्टी की एक कमी पिछले सात दशकों की उपलब्धियों को ना बता पाने की भी रही है. आज का भाषण इस लिहाज से खास है कि उन्होंने अपने सुबह के भाषण में अपनी पार्टी के इतिहास पर सांकेतिक रूप से बोला था लेकिन शाम को तो उन्होंने आजादी के पहले और बाद के इतिहास को सिलसिलेवार रूप से पेश कर दिया.

इसमें सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं और बड़े युवा नेताओं को निर्भीकता का संदेश दिया. उन्होंने साफ कहा कि मौजूदा सरकार भय को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही है. राहुल गांधी ने जिस तरह से इस बात पर जोर दिया उससे लगता है कि राहुल गांधी आने वाले समय में निर्भीक और निसंकोच अंदाज में आने को तैयार हो गए हैं. तर्क, विश्वसनीयता के महत्व को तो वे समझ ही चुके हैं.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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