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प्रोफेसर नंदू राम: दलितों के जीवन को सामाजिक विज्ञान का विषय बनाने वाला प्रोफेसर

धीरज कुमार और केयूर पाठक
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 03, 2025 23:44 pm IST
    • Published On अगस्त 03, 2025 22:10 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 03, 2025 23:44 pm IST
प्रोफेसर नंदू राम: दलितों के जीवन को सामाजिक विज्ञान का विषय बनाने वाला प्रोफेसर

19वीं सदी में यूरोप में अपने उद्भव के बाद भारतीय अकादमिक जगत में समाजशास्त्र ज्ञान की एक विधा के रूप में बहुत नया नहीं है, लेकिन कम समय में ही इसने भारतीय समाज में अपनी गंभीर उपयोगिता को सिद्ध किया है. भारत के तमाम बड़े केंद्रीय विश्विद्यालय चाहे बीएचयू, इलाहाबाद विश्विद्यालय, दिल्ली विश्विद्यालय या फिर हैदराबाद विश्विद्यालय आदि जगह इसने भारतीय सामाजिक विमर्श में व्यापक योगदान दिया, जिसके कारण भारतीय सामाजिक जटिलताओं को समझने में सहायता मिली.इन विमर्शों में योगदान देने वालों की लंबी लिस्ट है. उनमें से एक नाम जेएनयू के प्रोफेसर नंदू राम का भी रहा है, जिनका पिछले महीने निधन हो गया.

एक अत्यंत ही सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले व्यक्तित्व थे प्रोफेसर राम, लेकिन उनकी सादगी में छिपा था एक गंभीर अकादमिक चिंतन. अपने चिंतन के द्वारा उनका लगातार प्रयास रहा कि दलित विमर्श को समाजशास्त्र में केंद्रीय विषय वस्तु के रूप में स्थापित किया जाए. दलितों के सामाजिक बहिष्करण की तरह दलितों का विमर्श भी लंबे समय तक अकादमिक क्षेत्र से बाहर था.

जाति के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलू 

पिछले चार दशक से अधिक समय तक चली अपनी विद्वतापूर्ण यात्रा में प्रोफेसर नंदू राम ने समाजशास्त्र को न केवल समृद्ध किया, बल्कि इसे भारत की सामाजिक वास्तविकताओं से भी जोड़ा. वे उन गिने-चुने समाजशास्त्रियों में थे जिन्होंने जाति के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं को दलित अनुभवों के आलोक में समझने और समझाने का विस्तृत प्रयास किया. 

परिवर्तन सहजता से ग्राह्य नहीं होते, इसकी स्वीकार्यता से पूर्व एक टकराव की स्थिति बनती है. इसे प्रोफेसर राम ने अपने विमर्शों के द्वारा भी प्रस्तुत किया. उनकी पुस्तक 'The Mobile Scheduled Castes: Rise of a New Middle Class', संरक्षित भेदभाव की नीति के सामाजिक प्रभावों का आंतरिक विश्लेषण है. उन्होंने इस अध्ययन में यह दिखाया कि सरकारी नीतियों से लाभांवित अनुसूचित जाति के कर्मचारियों में सामाजिक गतिशीलता और एक नई पहचान का उदय हुआ है, लेकिन साथ ही यह भी कि यह परिवर्तन पारंपरिक जातिगत ढांचे के साथ टकराव भी पैदा करता है. इस टकराव से उत्पन्न होने वाली 'स्थिति-चिंता' (Status Anxiety) को उन्होंने गंभीरता से रेखांकित किया. उनका मत था कि वर्गीय बदलाव से सामाजिक बदलाव अनिवार्य तौर पर संभव नहीं हो पाता.

प्रोफेसर राम का काम समाजशास्त्रीय चिंतन को केवल अमूर्त अवधारणाओं तक सीमित नहीं रखता था, अपितु वह जमीनी अनुभवों को विश्लेषणात्मक दृष्टि से जोड़कर प्रस्तुत करता है. प्रोफेसर राम ने 'Beyond Ambedkar: Essays on Dalits in India' शीर्षक वाली किताब में आंबेडकर की विचारधारा के आगे जाकर समकालीन दलित अनुभवों और संघर्षों का विश्लेषण किया.प्रोफेसर नंदू राम की लेखनी सांख्यिकीय तथ्यों और हाशिए पर स्थित लोगों की आवाज़ों और अनुभवों पर ध्यान केंद्रित करता है. उनकी लेखनी समाज की गहराई में छिपे जातिगत भेदभाव को उजागर करती है. वे दलितों की शिक्षा, सामाजिक गतिशीलता और अस्मिता के संघर्ष को गंभीरता से समझते हैं. अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने बताया कि वर्गगत उन्नति जातिगत अपमान को नहीं मिटा पाती. उनका लेखन सामाजिक न्याय, असमानता और दलित चेतना पर गंभीर विमर्श प्रस्तुत करता है. वो अपने लेखन से आगाह करते हैं कि आरक्षण नीति से जो उम्मीदें पैदा हुई थीं, वे व्यापक स्तर पर पूरी नहीं हो सकीं. इसका लाभ मुख्यतः एक छोटे से वर्ग को मिला है, जो ऊंची सामाजिक स्थिति की आकांक्षा रखता है. लेकिन इस वर्ग को भी अपने सामाजिक अतीत का बोझ झेलना पड़ता है. उन्हें उन वर्गों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता जिनकी ओर वे बढ़ते हैं. इससे यह स्पष्ट होता है कि वर्गगत उन्नति से जातिगत कलंक समाप्त नहीं होता.

भारतीय समाज की शक्तिशाली संरचना जाति 

उनके द्वारा संपादित 'Encyclopedia of Scheduled Castes in India: South India' जैसे ग्रंथ भी इस बात का प्रमाण हैं कि उनका शोध केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने दलित समुदायों की विविधता और क्षेत्रीय भिन्नताओं को भी समझने का प्रयास किया. प्रोफेसर नंदूराम का हस्तक्षेप समाजशास्त्र के उस पुराने दृष्टिकोण को चुनौती देता है, जिसमें जाति को मात्र पारंपरिक संरचना के रूप में देखा जाता था. उन्होंने दिखाया कि जाति न केवल परंपरा है, बल्कि आधुनिकता के भीतर भी वह एक शक्तिशाली संरचना है, जो अवसर, पहचान और सम्मान को प्रभावित करती है. निश्चित रूप से वर्तमान लोकतांत्रिक संस्थाओं के भीतर भी जाति जैसी प्रवृत्ति के होने से इनकार नहीं किया जा सकता. विशेषधिकार, बहिष्करण, स्वामित्व, शोषण, विषमता- ये सब जाति संरचना के तत्व हैं. ऐसी प्रवृत्तियां आधुनिक संस्थाओं और आधुनिक माने जाने वाले व्यक्तियों के जीवन में भी दिखाई देती हैं. प्रोफेसर नंदू राम की समाजशास्त्रीय अवधारणाओं से असहमति व्यक्त की जा सकती है, लेकिन उनके विश्लेषण की मौलिकता से किनारा नहीं किया जा सकता.

प्रोफेसर राम, जिन्होंने 'अनुभूत अनुभव' (Lived Experience) को भारतीय समाजशास्त्र की मुख्यधारा में स्थान दिलाया जिससे दलित विमर्श की दिशा ही बदल गई. उन्होंने अपने पुस्तकों, लेखों और व्याख्यान से यह स्थापित किया कि जाति केवल सामाजिक श्रेणीकरण का ढांचा नहीं है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक, जीवित और सतत अनुभव है. उसे केवल आंकड़ों से नहीं समझा जा सकता, बल्कि पीड़ित समुदायों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी और उनके संघर्षों के माध्यम से ही समझा जा सकता है. यहां ये कहने से थोड़ा सा भी गुरेज नहीं है कि वे केवल दलित-विमर्श में योगदान देने वाले विद्वान नहीं थे, बल्कि उन्होंने उस विमर्श की बुनियाद भी अपने सक्रिय अकादमिक जीवन में रखी. आज हम जिस 'दलित विमर्श' को सामाजिक विज्ञानों में एक सशक्त परिप्रेक्ष्य के रूप में देखते हैं, उसका ढांचा प्रोफेसर नंदू राम की दृष्टि, लेखनी और संघर्ष से निर्मित हुआ है. उन्होंने दिखाया कि जाति कोई बीता हुआ अवशेष नहीं, बल्कि समकालीन लोकतंत्र, नागरिकता और सामाजिक समानता को प्रभावित करने वाली जीवंत संरचना है. प्रोफेसर नंदू राम ने जाति के सामाजिक इतिहास को पुनर्परिभाषित किया साथ ही उन्होंने ये भी बताया कि ऐतिहासिक अन्याय केवल अतीत में नहीं घटित होते, बल्कि वे वर्तमान की संस्थाओं और अनुभवों में बार-बार प्रतिध्वनित होते हैं. उनके लिए दलितों का संघर्ष केवल प्रतिरोध नहीं था, बल्कि वह इतिहास की पुनर्रचना और स्वाभिमान की पुनःस्थापना भी है.

प्रोफेसर नंदू राम का जाना केवल एक समाजशास्त्री का नहीं, बल्कि एक प्रतिबद्ध बौद्धिक, एक वैकल्पिक दृष्टिकोण और एक सच्चे जनपक्षधर विद्वान का जाना है. उन्होंने जिन प्रश्नों को उठाया, जिन बहसों को जन्म दिया और जिन सच्चाइयों से हमें टकराने के लिए विवश किया, अब वही उनकी सबसे बड़ी विरासत हम सबके पास है. प्रोफेसर राम आज भले हमारे बीच न हों, लेकिन उनकी विचारधारा, लेखन और चेतना हमेशा हमारे साथ रहेगी.

अस्वीकरण: धीरज कुमार काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एमएमवी कॉलेज में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं. केयूर पाठक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखकों के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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