प्रियदर्शन की बात पते की : चमड़ी के रंग से कौन डरता है?

नई दिल्‍ली:

सोनिया गांधी के रंग ने कांग्रेस को डराया है या गिरिराज सिंह को? नाइजीरिया के काले रंग से कांग्रेस चिढ़ती है या गिरिराज सिंह? गिरिराज सिंह ने गोरी चमड़ी पर कांग्रेस की मानसिकता को लेकर जो कुछ कहा, वह कई मायनों में अभद्रता से भरा है।

यह सच है कि सोनिया गांधी इतालवी हैं और गोरी त्वचा वाली हैं। लेकिन इस देश में आकर उन्होंने अपनी चमड़ी ही नहीं, अपनी आत्मा का रंग भी खुरचने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मगर गिरिराज यह नहीं देख पा रहे तो यह सिर्फ़ उनकी नज़र की सीमा नहीं है, कहीं न कहीं हम भारतीयों के भीतर बहुत गहरे बसा भेदभाव है जो बहुत खुरचने पर भी नहीं जा रहा।

इस भेदभाव का दूसरा सिरा नाइजीरियाई लोगों के रंग पर गिरिराज सिंह के बयान से जुड़ता है। दुर्भाग्य से यहां भी हम गिरिराज सिंह की दुर्भावना में साझा करते हैं जिसकी मिसालें एक से ज़्यादा हैं। काले रंग के लोगों को हम बाज़ार में पीटते हैं, और उनकी लड़कियों को घरों से बाहर निकाल कर जांच के लिए मजबूर करते हैं।

दरअसल वर्ण व्यवस्था का मारा भारतीय समाज गैरबराबरी की इतनी सारी क़िस्मों का आदी है कि वह बराबरी के किसी व्यवहार के बारे में कायदे से सोच भी नहीं पाता है। वर्ण का एक अर्थ रंग होता है और दूसरा अर्थ जाति। इस लिहाज से हमारा रंगभेद बहुत गहरा है। हम ख़ुद को किसी के आगे कमतर महसूस करते हैं तो किसी के आगे अपने बड़े होने के अहंकार में डूबे रहते हैं।

गिरिराज सिंह की मुश्किल यही है। वे केजरीवाल पर हमला करते हैं तो उन्हें मारीच याद आते हैं। वे सोनिया गांधी पर हमला करते हैं तो उन्हें उनकी त्वचा का रंग याद आता है, भारतीय राजनीति से उनके जुड़ाव का अच्छा या बुरा असर नहीं। जब तक हमारे भीतर बराबरी का सहज एहसास पैदा नहीं होगा तब तक हम कभी किसी के गोरे रंग को लांछित करेंगे और कभी किसी के काले रंग को।

हाल ही में अपने सम्मेलन में आरएसएस ने हर गांव में एक कुआं, एक श्मशान और एक मंदिर बनाने की बात कही- मुश्किल ये है कि उसकी बराबरी की समझ भी हिंदुत्व के दायरे से बाहर नहीं जाती, पूरे समाज की समरसता और समानता की बात नहीं करती। उसके ऊपर जो मुलम्मा चढ़ा हुआ है, वह भी अपनी तरह के भेदभाव का मारा है।


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