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This Article is From Aug 18, 2014

बात पते की : 'गोरे रंग के गुमान' पर टिके बॉलीवुड में 'श्याम रंग घोलने' वाले गुलज़ार हुए 80 के

Priyadarshan
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  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 15:41 pm IST
    • Published On अगस्त 18, 2014 15:16 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:41 pm IST

जो फिल्मी दुनिया 'गोरे रंग के गुमान' पर टिकी है, वहां 'श्याम रंग का जादू' लेकर आए गुलज़ार... गीतकार के तौर पर अपनी पहली ही फिल्म 'बंदिनी' में 'मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे...' लिखने वाला यह गीतकार आज 80 बरस का हो गया है... यह सोचकर इसलिए भी हैरत होती है कि इस उम्र में भी गुलज़ार के गीतों में नौजवानों को मात करता नशीलापन है, नए ज़माने को पीछे छोड़ती बेबाकी है और अपने लिए नई मंज़िलें हासिल करने का हुनर है...

सच तो यह है कि ज़ार-ज़ार रोने और ज़ोर-ज़ोर से हंसने वाली हर बात को, हर जज़्बे को अतिनाटकीय ऊंचाइयों तक ले जाने वाली मुंबइया फिल्मों में गुलज़ार एक ऐसे शख्स की तरह आए, जिसे मालूम था कि खामोशी भी बोलती है, कि बहते हुए आंसुओं से ज़्यादा तकलीफ़ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं, रुलाइयों से ज़्यादा असरदार भिंचे हुए होठों के पीछे छिपाए हुए दुख होते हैं...

दरअसल, गुलज़ार ने हिन्दी फिल्मों को कम बोलकर ज़्यादा कहने का सलीका दिया... जिस दुनिया में हर फिल्म प्यार के कारोबार पर टिकी होती है, कदम-कदम पर मोहब्बत के नगमे गाए जाते हैं, इश्क के ऐलान किए जाते हैं, वहां एक लहराती हुई आवाज़ इसरार करती है - 'प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं, एक ख़ामोशी है, सुनती है, कहा करती है...'

नूर की बूंद की तरह सदियों से सभ्यताओं को रोशन करने वाली मोहब्बत की यह शमा जब गुलज़ार ने थामी तो परवानों को जलाने का खेल पीछे छूट गया और लोगों ने देखी समंदर में परछाइयां बनाती, पानियों के छींटे उड़ाती और लहरों पर आती-जाती वो लड़की, जो बहुत हसीन नहीं है, लेकिन अपनी मासूम अदाओं में बेहद दिलकश है... गुलज़ार आए तो अपने साथ नई कला लाए और रिश्तों की नई गहराई भी... उनके गानों में चांद तरह-तरह की पोशाकें पहनकर आता है, नैना सपने बंजर कर देते हैं और बताते हैं कि जितना देखोगे, उतना दुख पाओगे...

उनके यहां मोहब्बत सिर्फ जिस्मानी नहीं रह जाती, रूहानी हो उठती है... उनके गीतों में वक्त एक उदास नायक की तरह टहलता दिखाई देता है... बरसों बाद अचानक मिल गए किसी खोए हुए जोड़े को उनके अतीत के दिनों में लौटाता हुआ, जहां 'फुरसत के रात-दिन' हैं और 'मोहब्बत का हल्का-हल्का ताप' है, लेकिन सबसे ज्यादा वह पुकार है, जो बाहर नहीं, भीतर उतरती है... वह छोड़कर जाती नहीं, हमेशा साथ रहती है... याद दिलाती है कि ख़ुद को पहचानने के लिए दूसरों को पहचानना भी ज़रूरी होता है और हम जो बनते हैं, उसमें एक-दूसरे को समझने की, महसूस करने की कुछ ख़ामोश कोशिशों का भी हाथ होता है...

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