बजट 2021: क्या आत्मनिर्भर भारत अमीरों पर निर्भर भारत होता जा रहा है?

भले ही प्रधानमंत्री कहें कि बजट के दिल में कृषि और किसान हैं, लेकिन उनके और उनकी वित्त मंत्री के दिमाग़ में बड़े पूंजीपति ही हैं. यह बजट सबसे ज़्यादा उनको ही फायदा पहुंचाने वाला है.

बजट 2021:  क्या आत्मनिर्भर भारत अमीरों पर निर्भर भारत होता जा रहा है?

यूनान के वित्त मंत्री रहे अर्थशास्त्री-लेखक यानिस वरॉफ़कीस का कहना है कि अर्थशास्त्र बहुत गंभीर विषय है- इसे अर्थशास्त्रियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. अर्थशास्त्रियों की आंकड़ेबाज़ी असल में एक बुझव्वल जैसी होती है जिनसे आप मनचाहे नतीजे निकाल सकते हैं. मौजूदा सरकार का कोई विरोधी बहुत सारे आंकड़ों की मार्फ़त यह बता सकता है कि यह बजट बहुत मामूली है तो बहुत सारे दूसरे अर्थशास्त्री यह साबित कर सकते हैं कि बजट बहुत अच्छा है.

लेकिन हम फिर बजट को कैसे पढ़ें या समझें? जाहिर है, अपने सामाजिक-राजनीतिक अनुभव की रोशनी में ही हम बजट के प्रावधानों को देख सकते हैं. इस साल यह बात इसलिए ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है कि लॉकडाउन की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था बिल्कुल डगमगाई हुई है और  कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा प्रस्तावित आर्थिक सुधारों के विरोध में दिल्ली की सरहदों पर किसान दो महीने से बैठे हुए हैं. उन्हें रोकने और उनके आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए सरकार सड़क पर कीलें लगवाने से लेकर इंटरनेट पर उन पर पाबंदी लगाने के अलावा पत्रकारों की सीधी गिरफ़्तारी तक के उपाय आज़मा रही है.

जाहिर है, इस बजट को अगर कुछ होना था तो सबसे पहले लॉकडाउन के दौरान अपंग हुई अर्थव्यवस्था को उसके पैरों पर चलाने का प्रयास होना था. लॉकडाउन के दौर में बहुत सारे छोटे और मझोले उद्योग या तो बंद हो गए या फिर सिकुड़ गए. लाखों लोगों की नौकरियां छूटीं और उसका असर मांग और पूर्ति के जाने-पहचाने सिद्धांत पर पड़ा. बाज़ार बंद रहे और उनके गोदामों में सामान ख़राब होता रहा और जब वह बंदी के दौर से बाहर निकला तो उसे ख़रीदने वाले लोग दुकानों तक नहीं पहुंचे. क्योंकि उनकी क्रय क्षमता भी घटी थी और जीवन की अनिश्चितता भी बढ़ी थी. बहुत सारे लोगों के हाथ में पैसे नहीं थे और जिनके पास पैसे थे वे उसे भविष्य के लिए बचा लेना चाहते थे.

इसलिए बहुत सारे विशेषज्ञों का यह सुझाव था कि लोगों के हाथ में पैसा पहुंचाया जाए. पैसा होगा तो लोग बाज़ार जाएंगे. सामान बिकेगा तो कुछ पूंजी और अर्थव्यवस्था की रौनक लौटेगी. वह सिर्फ़ शेयर बाज़ार के अंकों के भरोसे नहीं रहेगी. इसलिए यह भी माना जा रहा था कि शायद इस बार आयकर में कुछ और छूट मिले. वैसे भी मुद्रास्फीति का हिसाब लगाएं तो पांच साल पहले मानक छूट के लिए 2.5 लाख की वार्षिक आय की सीमा वास्तविक मूल्य के हिसाब से अब तक पांच लाख की हो चुकी होगी. लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया. उल्टे ढाई लाख से ऊपर के पीएफ को टैक्स के दायरे में ला दिया. इसका सीधा असर यह होगा कि लोग अब और ज़्यादा बचत को मजबूर होंगे और नई खरीद को सीमित रखेंगे.

उनके इस फ़ैसले के पीछे एक और वजह होगी. बहुत सारी उपभोक्ता सामग्री के दाम इस बजट के हिसाब से बढ़ते लग रहे हैं. टीवी-फ्रिज-मोबाइल सब पर महसूल बढ़ा दिया गया है. तर्क यह है कि इससे आत्मनिर्भर भारत का रास्ता खुलेगा. यानी ये सारे सामान भारत में बनाए जाने लगेंगे. लेकिन जब तक भारतीय उत्पादक तंत्र पूरी तरह विकसित नहीं होता तब तक उपभोक्ता क्या करेंगे? क्या वे महंगा सामान खरीदने को मजबूर होंगे या फिर ख़रीदने की योजना स्थगित करने को? भारत के मध्यवर्ग ने बहुत सारे ऐसे साल देखे हैं जब घर की महिलाओं ने दिवाली-दशहरे पर साड़ी-कपड़े ख़रीदने का काम अगले सालों के लिए-मुल्तवी किया है ताकि और ज़रूरी ख़र्च निबटाए जा सकें. क्या फिर उन्हीं दिनों की वापसी हो रही है?

देसी उद्यम की आत्मनिर्भरता बढ़ाने का ख़याल एक सुंदर ख़याल है, लेकिन इसके लिए बाहर से आने वाली वस्तुओं पर ड्यूटी बढ़ाने की नीति दरअसल पुराने संरक्षणवादी दौर का ही विस्तार है जिसकी एक दौर में ख़ूब आलोचना की गई. अगर आपको इस नीति पर फिर से अमल करना है तो भी इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन क्या आज की भूमंडलीय दुनिया जहां पहुंच गई है, वहां आर्थिक इतिहास के चक्र को वापस लौटाना मुमकिन है? अगर नहीं तो घरेलू उद्यमिता के लिए प्रतियोगिता के अवसर बंद करने से उद्योगों को जो भी राहत मिलेगी, वह उपभोक्ताओं के लिए अरसे तक संकट और सीमित विकल्पों की वजह बनेगी.

दूसरी बात यह कि देसी उद्यमिता के नाम पर पैदा किए जाने वाले इन अवसरों का लाभ किनको मिलना है? इस सवाल का जवाब अर्थशास्त्र से ज़्यादा राजनीति विज्ञान में मिलेगा. यह अनायास नहीं है कि लॉक डाउन के जिस दौर में छोटी कंपनियां बिल्कुल मारी गईं या अधमरी हालत में पहुंच गईं, उसी दौर में बड़ी कंपनियों की काया और बड़ी होती चली गई. जाहिर है कि आत्मनिर्भर भारत के नाम पर संरक्षणवाद की यह जो छुपी हुई वापसी है, उसके फ़ायदे सबसे ज़्यादा बड़ी कंपनियों को मिलेंगे. बेशक, उनके सहारे कुछ अनुषंगी इकाइयां भी चल पड़ेंगी, लेकिन आत्मनिर्भर भारत का यह महोत्सव भारत की छोटी-मझोली कंपनियों के हिस्से आता नज़र नहीं आता. उनको राहत देने के लिए पंद्रह हज़ार करोड़ रुपये उनकी ज़रूरत के लिहाज से नाकाफ़ी हैं- जबकि सबसे ज़्यादा रोज़गार यही क्षेत्र मुहैया कराता है.

दरअसल दिल्ली की सरहदों पर बैठे किसानों का जो इल्ज़ाम है- कि ये सारे क़ानून बड़े पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए बनाए गए हैं- वह किसी शून्य से नहीं, बल्कि ऐसे अनुभव से ही निकला है. इस अनुभव से पैदा होने वाले संदेह और भी हैं. बजट का सबसे बड़ा ढिंढोरा यह है कि इसमें स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में 137 फ़ीसदी वृद्धि की गई है-  इसे क़रीब सवा दो लाख करोड़ का बजट दिया गया है. मगर फिर सवाल वही है- इन सवा दो लाख करोड़ का क्या होगा. 35000 करोड़ बेशक, कोविड के नाम पर दिए गए हैं. लेकिन इस स्वास्थ्य बजट में अब पोषण अभियान योजना और जल जीवन मिशन का बजट भी शामिल है. आयुष्मान भारत  का बजट पिछले साल के ही बराबर है. यानी जानकारों के मुताबिक स्वास्थ्य क्षेत्र में भी वास्तविक आवंटन बढ़ोतरी उतनी नहीं है जितनी बताई जा रही है.

लेकिन असली सवाल फिर भी यह नहीं है कि स्वास्थ्य क्षेत्र में कितना पैसा दिया जा रहा है, बल्कि यह है कि इस पैसे का इस्तेमाल क्या होना है. इस सवाल का हमारे पास ऐसा कोई जवाब नहीं है जो आश्वस्त करते कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी सुविधाएं बहुत सुधरेंगी या बदलेंगी. अगर इस देश में सरकारी सेवाएं सबसे बदहाल किसी क्षेत्र में हैं तो वह स्वास्थ्य का क्षेत्र है. इस क्षेत्र में निजी अस्पताल बस पैसा पीटने में लगे हैं- यह आरोप आम है, बल्कि कोविड से लड़ाई के दौरान भी देखा गया. तो इस देश को और ज़्यादा सरकारी अस्पतालों की ज़रूरत है, सरकारी अस्पतालों के भीतर और ज़्यादा बजट प्रावधानों की ज़रूरत है. लेकिन इसको लेकर बजट ख़ामोश है. अगर मुफ़्त इलाज का हमारा सरकारी तंत्र बहुत मज़बूत होता, अगर सरकारी अस्पतालों के इंतज़ाम बेहतर होते तो शायद आयुष्मान भारत के बीमे की इतनी ज़रूरत नहीं पड़ती जिसका असली फ़ायदा मोटा बिल बनाने वाले निजी अस्पतालों के खातों में पहुंचता है. जाहिर है, क्रोनी कैपिटलिज़्म- या चंपू पूंजीवाद- को बढ़ावा देने के आरोप से घिरी सरकार के बजटीय प्रावधानों पर ऐसा संदेह स्वाभाविक है.

बजट में जिसे सबसे 'बोल्ड' क़दम बताया जा रहा है, वह बजट घाटे को 6.8 फ़ीसदी तक रखने का इरादा है. पिछले साल यह बजट घाटा 9.5 फ़ीसदी था. लेकिन बजट घाटे का मतलब क्या होता है? यही कि आपके पास जितना पैसा है, आप उससे ज़्यादा ख़र्च कर रहे हैं. आपके पास बस 94 रुपये 20 पैसे हैं, लेकिन आप 100 रुपये ख़र्च कर रहे हैं. तो फिर यह बाक़ी पैसे कहां से आते हैं? अगर घर चलाते हुए ऐसी नौबत आती है तो लोग क्या करते हैं? साफ़ है कि उन्हें घर का कोई सामान बेचना पड़ता है, अपनी बचत का हिस्सा निकालना पड़ता है. इस लॉकडाउन में लोगों ने अपना पीएफ निकाल कर ख़र्च किया, अपने सोने और गहने बेच कर मकानों की क़िस्त और बच्चों की फ़ीस चुकाई.

सरकार भी दरअसल इसी रास्ते से अपना ख़र्च निकालेगी. वह 70 बरसों के दौरान खड़ी की हुई सरकारी संपत्ति को बेचेगी. सही है कि यह प्रक्रिया पंद्रह-बीस साल से चल रही है, लेकिन मोदी सरकार के समय उसकी रफ़्तार अचानक काफी तेज हो गई है. लेकिन लाखों-करोड़ों और अरबों की ये कंपनियां कौन ख़रीदेगा? जाहिर है, वे पूंजीपति जो इन्हें ख़रीद कर सरकार पर उपकार करेंगे. लेकिन क्या वे उचित दाम देंगे? इसमें संदेह है. संदेह यह भी है कि फिर ये संपत्ति नेताओं के मित्र ही ख़रीदेंगे.

कुल मिलाकर यह समझ में आता है कि भले ही प्रधानमंत्री कहें कि बजट के दिल में कृषि और किसान हैं, लेकिन उनके और उनकी वित्त मंत्री के दिमाग़ में बड़े पूंजीपति ही हैं. यह बजट सबसे ज़्यादा उनको ही फायदा पहुंचाने वाला है. आत्मनिर्भर भारत दरअसल अमीरों पर निर्भर भारत होता चला जा रहा है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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