यह देखना दिलचस्प है कि जो लोग अब तक सामाजिक आधार पर आरक्षण को प्रतिभा के विलोम की तरह देखते रहे और इसे भारतीय व्यवस्था का नासूर मानते रहे, वे अपील कर रहे हैं कि गरीबों के हक की ख़ातिर यह आर्थिक आरक्षण मान लिया जाए - बिना यह बताए कि हर महीने 65,000 रुपये कमाने वाले लोग किस कसौटी से गरीब कहलाएंगे. वे बस 10 फीसदी आर्थिक आरक्षण को गरीबों का जायज़ हक मानकर इसे नौकरियों और शिक्षा में जल्द से जल्द लागू करने के हक में हैं. निजी क्षेत्र की नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में भले अब तक किसी भी तरह का सामाजिक आरक्षण लागू न हो पाया हो, लेकिन अब वहां भी आर्थिक आरक्षण देने की हड़बड़ी दिख रही है. कुछ राज्य सरकारों ने आर्थिक आधार पर आरक्षण का कानून पास होते ही इसे अमल में लाने का फ़ैसला भी कर लिया है.
और अब मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि देश के 900 सरकारी विश्वविद्यालयों और 40,000 कॉलेजों में आर्थिक आरक्षण बिल्कुल इसी साल से लागू हो जाएगा. यही नहीं, करीब 350 निजी विश्वविद्यालयों और 25,000 से ज़्यादा कॉलेजों में भी इसी साल से आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के लिए कानून लाया जाएगा.
प्रकाश जावड़ेकर यहीं नहीं रुके, उन्होंने दो और घोषणाएं कर डालीं. उन्होंने कहा कि इन तमाम जगहों पर 25 फीसदी सीटें बढ़ाई जाएंगी, ताकि पहले से चले आ रहे आरक्षण पर कोई असर न पड़े. इसके लिए इन संस्थानों की क्षमता भी बढ़ाई जाएगी.
एक-एक कर इन सारी घोषणाओं के पीछे का सच देखें. जिन सरकारी संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण के लिए 25 फीसदी सीटें बढ़ाने का प्रस्ताव है, क्या वहां का बुनियादी ढांचा इस लायक है कि वह इस अतिरिक्त बोझ का वहन कर सके? अब तक लगभग सारी रिपोर्ट बताती हैं कि इस देश के ज़्यादातर शिक्षण संस्थानों में मौजूदा छात्रों को ही समुचित शिक्षा दे पाने के इंतज़ाम नहीं है. विदेशों के बड़े विश्वविद्यालयों के मुकाबले हमारे यहां छात्र-शिक्षक अनुपात बिल्कुल दयनीय है - कहीं-कहीं तो हास्यास्पद. सरकार शिक्षकों का यह मौजूदा कोटा ही नहीं भर पा रही. यही नहीं, शिक्षकों की नियुक्ति में जिस सामाजिक कोटे का ध्यान रखा जाना है, वह भी किसी को हासिल नहीं हो रहा. तो फिर अचानक छह महीनों में 25 फीसदी अतिरिक्त सीटों के लिए पैसे जुटा लिए जाने का जादू फिर कैसे घटित होगा? अचानक सरकार कितनी सारी नियुक्तियां कर लेगी, कितने नए क्लास रूम बना लेगी, कितने सारे अतिरिक्त कर्मचारी रख लेगी? यहां तो आलम यह है कि सरकारी नियुक्तियों के लिए रुटीन में जो पद निकाले जा रहे हैं, उन्हें भरने में बरसों लग जा रहे हैं.
लेकिन फिर सरकार 25 फीसदी सीटें बढ़ाना ही क्यों चाहती है? वह मौजूदा छात्रों में ही आरक्षण क्यों नहीं देना चाहती? उसकी दलील है कि मौजूदा कोटे पर असर न पड़े, लेकिन आर्थिक आरक्षण का जो संविधान संशोधन विधेयक पारित किया गया है, उसमें यह बहुत स्पष्ट उल्लिखित है कि यह आरक्षण मौजूदा सामाजिक आरक्षण से अलग होगा. ज़ाहिर है, सरकार को मौजूदा कोटे की फ़िक्र नहीं, उन अगड़ों की है, जिनकी कुछ सीटें तथाकथित गरीब अगड़े ले उड़ेंगे. ज़ाहिर है, सरकार का यह हड़बड़ाया, आधा-अधूरा दख़ल पहले से पस्तहाल और साधनवंचित सरकारी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को कुछ और बदहाल करके छोड़ देगा, वहां डिग्रियां भले ही बंटनी शुरू हो जाएं, लेकिन शिक्षा का कुछ और तमाशा बन जाएगा.
मामला सिर्फ सरकारी शिक्षण संस्थानों का नहीं है. अब तक सरकार ने इस बात की परवाह नहीं की कि निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों में सामाजिक आधार पर - एससी-एसटी या पिछड़े वर्गों को - आरक्षण की बाध्यता क्यों नहीं है. इन तमाम निजी संस्थानों में कहीं भी आरक्षण नहीं है, लेकिन अब चूंकि यहां 10 प्रतिशत आर्थिक आरक्षण की व्यवस्था का कानून बनाया जा चुका है, इसलिए ज़रूरी है कि यहां भी सामाजिक आरक्षण लागू हो. इसके लिए सरकार बजट सत्र में बिल लाने की बात कर रही है. उसे दरअसल सामाजिक आरक्षण की नहीं, आर्थिक आरक्षण की फ़िक्र है. क्योंकि उसे मालूम है कि इन निजी संस्थानों में शिक्षा की फ़ीस इतनी ज़्यादा है कि ज़्यादातर पिछ़ड़े तबकों के लोग उसका वहन ही नहीं कर सकते. लेकिन फिर आर्थिक आधार पर कमज़ोर लोग कैसे करेंगे? सरकार उन्हें आरक्षण तो दिला देगी, लेकिन क्या उनकी फ़ीस भी भरेगी? या फिर निजी संस्थानों से उनकी फ़ीस माफ़ी का आग्रह करेगी? और क्या निजी संस्थान इसे मानेंगे? शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण का फ़ैसला वैसे भी अदालती मुकदमों में उलझा हुआ है. तो सरकार आख़िर चाहती क्या है? क्या उसकी हड़बड़ाई हुई कोशिशें चीज़ों को और नहीं बिगाड़ेंगी? और क्या निजी क्षेत्रों के शिक्षण संस्थान सीटें बढ़ाएंगे, तो अपने यहां नियुक्तियां भी बढ़ाएंगे? या वे पहले की तरह ही अपने शिक्षकों को मान्य कसौटियों से कम पैसे पर नियुक्त करेंगे और जब चाहेंगे, उन्हें निकाल देंगे?
दरअसल भारत में पूरी शिक्षा के साथ-साथ उच्च शिक्षा की विडम्बनाएं बहुत गहरी हैं. जिस तरह प्राथमिक शिक्षा में सरकार अपना निवेश बढ़ाने को तैयार नहीं है और निजी क्षेत्र के हाथ सब कुछ सौंप रही है, वही काम उच्च शिक्षा में भी होता दिख रहा है. हम लगातार एक रुग्ण शिक्षा-व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, जिसमें एक तरफ तो साधनों से लाचार सरकारी संस्थान हैं और दूसरी तरफ सरोकारों से वंचित निजी संस्थान, जिन्होंने शिक्षा को दुकानदारी में बदल डाला है. शिक्षा कहीं से सरकार की प्राथमिकता सूची में नहीं दिखती. शिक्षा उसके लिए नौकरियों की तरह ही बस एक ज़रिया है, जिससे वह अलग-अलग वर्गों को लुभाने की कोशिश कर रही है. उसके ताज़ा फ़ैसले शिक्षा की इन विडम्बनाओं को कुछ और बढ़ाएंगे ही, यह अंदेशा बेमानी नहीं है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.