चिटफंड घोटाले इस देश में नए नहीं हैं. यह बात भी नई नहीं है कि किसी भी दूसरे उद्योग-धंधे के मुकाबले चिटफंड कंपनियों के मालिक राजनीतिक दलों के ज़्यादा क़रीब देखे गए हैं. यही नहीं, ये चिटफंड कंपनियां मीडिया में भी हाथ आज़माती रही हैं. पिछले दो-तीन दशकों में कई चिटफंड कंपनियां शुरू और बंद हुईं और उनके साथ बहुत से गरीबों और मध्यमवर्गीय लोगों की मेहनत की कमाई भी लुट गई. कंपनियों के मालिकों को इससे ज़्यादा फ़र्क पड़ा हो, इसकी ख़बर नहीं है. इन तमाम कंपनियों ने अख़बार और टीवी चैनल शुरू किए, नेताओं से ऐसी क़रीबी रखी कि हर निजी या सामाजिक समारोह में उनकी उपस्थिति सुर्खियां बनाती रही.
इस अतीत को देखते हुए यह मानने की कोई वजह नहीं है कि शारदा घोटाले का वास्ता नेताओं से नहीं रहा है. शारदा चिटफंड के घपले के आरोपी भी पकड़े जाने चाहिए और गरीबों को उनका पैसा वापस मिलना चाहिए.
लेकिन क्या CBI की कार्रवाई भ्रष्टाचार या घपलों से लड़ने की किसी सरकारी चिंता का नतीजा है, या वह एक विपक्षी नेता का बाजू मरोड़ने की कोशिश है...? अगर वाकई BJP सरकार को शारदा घोटाले की फ़िक्र होती, तो वह कम से कम मुकुल रॉय को अपनी पार्टी में शामिल नहीं करती, जो इस घोटाले के मुख्य आरोपियों में एक हैं. उन पर जब FIR हो चुकी थी, तब उन्हें पार्टी में शामिल किया गया और रविशंकर प्रसाद और कैलाश विजयवर्गीय जैसे वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में शामिल किया गया. यही नहीं, अमित शाह से उनकी मुलाकात भी कराई गई. क्या पार्टी को यह पूछना नहीं चाहिए था कि शारदा घोटाले में लिप्त होने के आरोप से घिरने के बावजूद मुकुल रॉय उसके साफ-सुथरे घर में घुसने की कोशिश कैसे कर रहे हैं...?
कहने का मतलब यह नहीं कि अगर मुकुल रॉय को BJP बचा रही है, तो दूसरे भ्रष्ट नेताओं पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. लेकिन जब आप भ्रष्टाचार के कई मामलों की अनदेखी कर और कई मामलों के आरोपियों का बचाव कर किसी एक मामले में अतिरिक्त संवेदनशील हो रहे होते हैं, तो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई को ही कमज़ोर करते हैं, उसे एक राजनैतिक रंग देते हैं.
कोलकाता में धरने पर बैठी ममता बनर्जी यह बात ठीक से समझती हैं, इसलिए जिस क़ानूनी पचड़े से उन्हें और उनके नेताओं को डरना चाहिए था, उसके विरुद्ध वह डटकर खड़ी हो गई हैं. उन्हें मालूम है कि यह लड़ाई भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं है, उनकी राजनीति के विरुद्ध है. अगर उनके अपने लोगों या करीबियों के खिलाफ़ कोई मामला भी है, तो इस राजनीतिक लड़ाई की आड़ में वह इसे छिपाने में कामयाब हो जाएंगी. यह अनायास नहीं है कि ममता को देश भर के गैर-BJP राजनीतिक दलों का समर्थन मिलने में ज़रा भी देर और मुश्किल नहीं हुई.
तो हम पा रहे हैं कि जिसे भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक वास्तविक लड़ाई की तरह लड़े जाने की ज़रूरत थी, उसे केंद्र सरकार की सक्रियता ने एक राजनीतिक लड़ाई में बदल डाला है. जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि एक ईमानदार सरकार के ख़िलाफ़ सारे बेईमान इकट्ठा हो गए हैं, या तो उन्होंने तथ्यों से आंखें मूंद रखी हैं या जान-बूझकर अपना पक्ष चुन लिया है. क्योंकि शारदा घोटाले पर कार्रवाई करने निकली सरकार के वित्तमंत्री इसी हफ़्ते एक और घपले के आरोपियों के पक्ष में खुलकर खड़े होते नज़र आए हैं.
आप याद कर सकते हैं कि पिछले दिनों ख़बर आई कि CBI ने ICICI बैंक की CEO चंदा कोचर और वीडियोकॉन के मालिक वेणुगोपाल धूत के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया है. उन पर आपसी मिलीभगत से बैंक को करोड़ों का चूना लगाने का इल्ज़ाम है. यह इल्ज़ाम कई साल से लगता रहा और कई साल बैंक इसे नकारता रहा. लेकिन तथ्य सामने आते रहे, तो बैंक ने अंदरूनी जांच बिठाई. इस जांच के आधार पर बैंक ने चंदा कोचर पर कार्रवाई की, पहले उनसे इस्तीफ़ा लिया और बाद में उनकी पेंशन तक रोक ली. उनसे वसूली की भी बात हो रही है.
लेकिन इस मामले में CBI की ओर से FIR दर्ज करने वाले अफसर का 24 घंटे के भीतर तबादला कर दिया गया. क्योंकि सात समंदर पार अपना इलाज करा रहे देश के वित्तमंत्री और BJP के सबसे ताकतवर नेताओं में से एक अरुण जेटली ने सार्वजनिक तौर पर ब्लॉग लिखकर CBI जांच को बेमानी करार दिया और चंदा कोचर और बाकी लोगों का बचाव किया. उन्होंने सीधे-सीधे कहा कि यह जांच कहीं पहुंचने वाली नहीं है, क्योंकि इसका मक़सद कुछ लोगों को फंसाना है.
जो लोग भ्रष्टाचार के मामले में अपने ही संस्थान द्वारा सज़ायाफ़्ता एक CEO का ऐसा खुलकर बचाव कर सकते हैं, वे किसी अन्य मामले में संवेदनशील होते हैं, तो दरअसल इससे भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई ही नहीं, इस लड़ाई के लिए बनाई गई संस्थाएं तक अविश्वसनीय होने लगती हैं. यह अनायास नहीं है कि इन वर्षों में CBI सबसे ज़्यादा विवादों में घिरी हुई है. वहां शीर्ष स्तर का टकराव बिल्कुल अदालतों तक जा पहुंचा है. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह CBI के राजनीतिक इस्तेमाल की अति का नतीजा है.
अब दूसरे सवाल पर आएं. BJP को अचानक इस राजनीतिक कार्रवाई की क्यों सूझी...? यह मानना अतिरिक्त भोलेपन का प्रदर्शन करना होगा कि CBI की एक टीम कोलकाता के पुलिस कमिश्नर से बिना राजनीतिक मंज़ूरी के पूछताछ करने पहुंच गई. तो क्या BJP को अंदाज़ा नहीं था कि यह क़दम अपनी नाटकीय राजनीति के लिए मशहूर ममता बनर्जी को नाटक का एक और अवसर देगा...? ममता अपनी राजनीतिक लड़ाइयां बिल्कुल दांत भींचकर लड़ती हैं और इस मामले में भी उन्होंने यह काम किया. उन्होंने इतना ज़्यादा शोर किया कि पूरे देश के नेता जुट आए. अब यह 2019 के पहले का एक और शक्ति प्रदर्शन हो गया है.
निःसंदेह BJP की अपनी रणनीति रही होगी. बंगाल में उसका अपना बड़ा दांव नहीं है - उसके पास दो सीटें हैं, इसलिए उसके पास गंवाने को कुछ नहीं है. लेकिन ममता के ख़िलाफ़ शारदा स्कैम का मोर्चा खोलकर उसने बंगाल कांग्रेस को भी असमंजस में डाल दिया है और CPM को भी वार करने को उकसाया है. ज़ाहिर है, ममता किसी भी तरह कमज़ोर हों, उससे गठबंधन कमज़ोर होगा.
लेकिन यह राजनीति पलट कर वार भी कर सकती है. पीड़ित का अभिनय करना ममता से बेहतर कोई नहीं जानता. उन्हें बंगाल की कहीं ज़्यादा बड़ी सहानुभूति मिल सकती है. इस लिहाज से देखें, तो हाल के दिनों में केंद्र या BJP सरकारों के कई क़दम हड़बड़ाए हुए क़दम दिखाई पड़ रहे हैं. 2013-14 के बीच जिस तरह की गलतियां UPA सरकार कर रही थी, उसी तरह की गलतियां अब मोदी सरकार भी कर रही है. दिल्ली में बिना राज्य सरकार की मंज़ूरी के कन्हैया कुमार और ख़ालिद उमर के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर करना ऐसा ही क़दम था. इस क़दम पर पुलिस को अदालत की फटकार सुननी पड़ी. इसी तरह पुणे में सुप्रीम कोर्ट के संरक्षण के बावजूद प्रोफ़ेसर आनंद तेलतुंबडे की गिरफ़्तारी की वजह से महाराष्ट्र पुलिस को हाईकोर्ट ने फटकारा. हड़बड़ाए हुए ये कदम बता रहे हैं कि पार्टी और सरकार के भीतर घबराहट है. पश्चिम बंगाल में CBI की ताज़ा कार्रवाई भी इसी घबराई हुई मुद्रा का नतीजा है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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