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This Article is From May 28, 2019

राहुल गांधी को क्यों इस्तीफ़ा देना चाहिए...?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 10, 2019 12:54 pm IST
    • Published On मई 28, 2019 15:13 pm IST
    • Last Updated On जून 10, 2019 12:54 pm IST

देशकाल और राजनीति को निरे वर्तमान के आईने में देखने की हमारी आदत कुछ ऐसी हो गई है कि हम तात्कालिक सफलता-विफलता को लगभग स्थायी मान लेते हैं और उसी आधार पर नेताओं या दलों का मूल्यांकन करते हैं - एक देश के रूप में अपने भविष्य का भी.

यह सच है कि 2014 और 2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी और कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुए हैं. नरेंद्र मोदी और BJP की ऐतिहासिक जीत के आईने में यह हार कुछ और बड़ी और दुखी करने वाली लगती है. लेकिन अतीत में देखें तो ऐसे इकतरफ़ा परिणाम और अनुमान कांग्रेस और BJP दोनों के हक़ में आते रहे हैं और दोनों को हंसाते-रुलाते रहे हैं. 1984 में जब राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें मिली थीं और अटल-आडवाणी को महज 2, तब भी कुछ लोगों को लगा था कि अब तो BJP का सफ़ाया हो गया. लेकिन 1989 आते-आते BJP वीपी सिंह की सत्ता का एक पाया बनी हुई थी. 1996 में वह सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी, 1998 और 1999 में उसने गठबंधन सरकार बनाई और 2003 तक आते-आते लगने लगा कि वह तो बिल्कुल अजेय है. लेकिन 2004 में सोनिया और राहुल की टीम ने फिर से इतिहास का चक्का उलट दिया. 2009 में भी राजनीति का चक्र सोनिया और राहुल के पक्ष में मुड़ा रहा. तस्वीर 2014 से बदली. लेकिन सिर्फ़ इन छह सालों को भारतीय राजनीति का शाश्वत सत्य मान लेने की हड़बड़ी न दिखाएं, तो पाएंगे कि भारतीय राजनीति, भारतीय लोकतंत्र और समाज परिणामवादी चुनावी राजनीति से ज़्यादा बड़े साबित हुए हैं - अपने ठहरावों में भी और अपने बदलावों में भी.

दरअसल, भारतीय राजनीति और समाज में दो-तीन वैचारिक धाराएं हमेशा से चलती रही हैं. आज़ादी की लड़ाई के दौर में जो क्रांतिकारी आंदोलन था, वह भी महाराष्ट्र और गुजरात में अपेक्षया ज़्यादा हिन्दूवादी नज़र आता है, जबकि उत्तर भारत की पट्टी से निकलने वाले क्रांतिकारी गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाए रखने के हामी नज़र आते हैं. इसी तरह कांग्रेस बिल्कुल शुरुआत में किसी हिन्दूवादी दबाव से मुक़्त नज़र आती है, बीच के दौर में हिन्दूवादी प्रभाव उसके भीतर बढ़ता दिखता है और गांधी और नेहरू कांग्रेस के भीतर इस प्रभाव से लगातार लड़ते और उसको निर्मूल करते नज़र आते हैं. कांग्रेस उस दौर में चूंकि देश के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व कर रही है, इसलिए कांग्रेस की बहसें छिटक-छिटककर बाकी देश की बहसें बन जाती हैं.

लेकिन इस सहिष्णु समावेशी भारत के समांतर राजनीति के दबाव में दो और धाराएं विकसित हो रही हैं, जो अपनी-अपनी तरह का राष्ट्र चाह और मांग रही हैं. धर्म के आधार पर द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत एक तरफ़ से विनायक दामोदर सावरकर बढ़ाते हैं और दूसरी तरफ़ से मोहम्मद अली जिन्ना. भारत की आज़ादी एक तरह से भारत के सपने को कुचलती हुई आती है और फिर एक समावेशी भारत के सामने ख़ुद को बचाने की चुनौती रखती है. इस मोड़ पर जिस भारतीय लोकतंत्र को - बड़े पैमाने पर अशिक्षा के बावजूद सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को, और भारत के सामाजिक विभाजन को - दुनिया संदेह से देख रही थी, वही इस राष्ट्र को बचा लाता है. भारत का वोटर अंततः अपने भटकावों के बावजूद अपने देश को बचा लाता है.

आज़ाद भारत में यह वोटर बार-बार मोहभंग का शिकार होता है, बार-बार नए सपने देखने की कोशिश करता है. नेहरू और कांग्रेस का दौर चल ही रहा है कि समाजवादी राजनीति की एक प्रबल धारा एक विकल्प की तरह खड़ी होती दिखाई पड़ती है. 1967 आते-आते लगता है कि अब तो कांग्रेस अतीत हो गई. यह प्रयोग फेल होता है, कांग्रेस फिर लौटती है और 1977 में फिर जैसे कभी न लौटने के लिए चली जाती है, लेकिन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में हासिल दूसरी आज़ादी महज तीन साल के भीतर पिट जाती है और इंदिरा गांधी और कांग्रेस की वापसी होती है.

इस इतिहास को याद रखने का आशय बस यह याद दिलाना है कि दो चुनाव लोकतंत्र में कुछ नहीं होते. यह भी कि वे देश को इस तरह नहीं बदल सकते कि उसके गुण-सूत्र ही बदल जाएं. नरेंद्र मोदी और BJP लाख हिन्दुत्व की अलख जगा लें, गोरक्षा के नाम पर भीड़तंत्र की चाहे जितनी प्रतिष्ठा कर लें, एक तबके में चाहे जितना डर पैदा करें, लेकिन अंततः एक दिन उन्हें भी जाना होगा. अगर इस नियति से बचना चाहते हैं, तो उन्हें अपने-आप को बदलना होगा.

राहुल गांधी पर लौटें. वंशवाद को लेकर उनकी और उनके परिवार की बड़ी आलोचना होती रही है. लेकिन ध्यान से देखें, तो संजय गांधी-मेनका गांधी और राजीव गांधी को छोड़कर गांधी-नेहरू परिवार के किसी भी दूसरे सदस्य को इस वंशवाद का फ़ायदा नहीं मिला. नेहरू के निधन के बाद इंदिरा गांधी को कुर्सी नहीं मिल गई थी. लाल बहादुर शास्त्री के आकस्मिक देहावसान के बाद भी कांग्रेस संगठन के अंदरूनी झगड़े के बीच जो फॉर्मूला निकाला गया, उसमें इंदिरा गांधी को कमज़ोर मानते हुए संगठन ने सत्ता सौंपी थी. बेशक, इंदिरा के प्रधानमंत्रित्व में देश ने संजय गांधी और उनकी पत्नी और BJP सांसद मेनका गांधी की ज़्यादतियां देखीं. इसी तरह 1984 में राजीव गांधी भी सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार का होने के नाते सिर्फ़ दो साल के राजनीतिक अनुभव पर ही प्रधानमंत्री बन गए. अगले पांच साल में उनको अपनी अनुभवहीनता की ख़ासी कीमत चुकानी पड़ी.

लेकिन सोनिया और राहुल की कहानी राजीव और संजय की कहानी नहीं है. सोनिया सात साल तक सत्ता से दूर रहीं. पहले नरसिम्हा राव और बाद में सीताराम केसरी अपनी मर्ज़ी चलाते रहे. संयुक्त मोर्चा सरकार में केसरी के दख़ल और प्रधानमंत्री बनने की उनकी चाहत में सरकार गिरा देने तक के फ़ैसले को लेकर की गई आलोचनाएं अब सार्वजनिक और सर्वविदित हैं. सोनिया इसके बाद लौटीं, बोफ़ोर्स का सवाल लेकर लौटीं और अगले कुछ वर्षों में उन्होंने कांग्रेस संगठन में नई जान डाल दी. 2004 में राहुल बेशक इस लहर की वजह से सांसद बने, लेकिन अगले कई साल तक उन्होंने अपने वंश की दबंगई नहीं दिखाई. दागी सांसदों का बिल फाड़ने का दिखावा उनका इकलौता ऐसा कृत्य नज़र आता है, जब वह किसी उद्धत युवराज की भूमिका में अपने प्रधानमंत्री पर सवाल खड़े करते नज़र आते हैं, लेकिन इसके पहले सोनिया-राहुल मनमोहन सिंह का पूरा सम्मान करते हैं. यहां तक कि जब UPA में हर संगठन की अनसुनी कर मनमोहन सिंह ऐटमी करार के अपने फ़ैसले पर अड़े रहते हैं और लेफ्ट समर्थन वापस लेता है, तब भी सोनिया-राहुल अपने प्रधानमंत्री के साथ खड़े रहते हैं.

इस लिहाज़ से देखें, तो राहुल गांधी ने राजनीति में अपना रास्ता बहुत दूर तक ख़ुद बनाया है. नाकामी के सवाल पर उनके इस्तीफ़े का फिर भी एक तर्क हो सकता है, वंशवाद का आरोप उन पर बस इसलिए लगाना उचित नहीं कि वह गांधी-नेहरू परिवार से आते हैं. लेकिन सच यह है कि अभी इस्तीफ़ा देकर वह BJP को ही मज़बूत करेंगे और कांग्रेस को कुछ और बिखराव की ओर धकेलेंगे. क्योंकि इसमें शक नहीं कि यह कांग्रेस के कायांतरण की घड़ी है, लेकिन इस कायांतरण को किसी संपूर्ण लक्ष्य तक ले जाने का काम जिस धुरी से हो सकता है, वह अब भी राहुल गांधी हैं.

जहां तक देश का सवाल है, वह मोदी के साथ बदलता दिख रहा है, लेकिन बदल नहीं जाएगा. देश के आज़ाद और उदार ख़याल नागरिकों के लिए बेशक यह कुछ संकट और तनाव का समय है, लेकिन यह बीत जाएगा और अंततः हम फिर उसी भारत में लौट जाएंगे, जो एक साथ लड़ता-झगड़ता और फिर भी एक-दूसरे से बंधा रहता है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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