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This Article is From Feb 06, 2019

आनंद तेलतुंबडे को बचाए रखना होगा

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 06, 2019 14:28 pm IST
    • Published On फ़रवरी 06, 2019 14:28 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 06, 2019 14:28 pm IST

आनंद तेलतुंबडे किसी और देश में होते तो सम्मानित जीवन जी रहे होते. कुछ किताबें पढ़ रहे होते, कुछ लेख लिख रहे होते और इस बात के लिए सराहे जाते कि उन्होंने अपने समाज में बराबरी की लड़ाई में अपना अहम योगदान दिया है.

लेकिन भारत में पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर, विचार-विमर्श भूल कर, वे गिरफ़्तारी से बचने की कोशिश में लगे हुए हैं.  पहले उनके ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने का मामला दर्ज किया गया, फिर उनके माओवादी लिंक खोजे गए, सीधे प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश से उन्हें जोड़ दिया गया, अदालत ने राहत दी तो पुलिस ने इसकी परवाह नहीं की, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. हाइकोर्ट की फटकार पर छोड़ा गया.

लेकिन आनंद तेलतुंबडे अब भी निरापद नहीं हैं. अदालतें एक हद तक ही उनकी मदद कर सकती हैं. सत्ता चाहे तो उनके दमन और उत्पीड़न के कई और तरीक़े निकाल सकती है. भारत में पुलिसवालों को मालूम है कि किसी को तंग करने के कितने कानूनी रास्ते हुआ करते हैं. 

आनंद तेलतुंबडे अकेले नहीं हैं. उनके साथ और भी लोग हैं जो यह सारे आरोप झेल रहे हैं. 

कहा जा सकता है कि जब आप सत्ता के प्रतिरोध के लिए निकलते हैं तो उसके नतीजों के लिए भी आपको तैयार होना चाहिए. दुनिया भर में ऐसे लेखकों और कवियों की कमी नहीं है जिनको अपने विचार की वजह से प्रताड़ित होना पड़ा. उन्हें पीटा गया, संगसार किया गया, जेलों में डाला गया और फांसी पर भी चढ़ाया गया. दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी नीतियों का विरोध करने वाले कवि बेंजामिन मोलोइस को 1985 में फांसी पर चढ़ा दिया गया था. उसके तीन साल बाद भारत में आतंकवादियों ने अवतार सिंह पाश को गोली मार दी थी. जबकि पाश वे कवि थे जिन्होंने सत्ता का जम कर प्रतिरोध किया था. 1990 में इराक की सरकार ने पत्रकार फ़रज़द बज़ौफ़ को सज़ाए मौत दी थी. दिलचस्प ये है कि फ़रज़द ईरान की क्रांति के ख़िलाफ़ लिखते रहे और उनका इराक में भरपूर स्वागत होता रहा. लेकिन जब कुर्ग इलाक़े में एक रासायनिक हमले की ख़बर छपी तो इराक सरकार ने उनको ज़िम्मेदार माना और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. आपातकाल के दौरान भारत के कई लेखकों-कवियों और पत्रकारों ने जेल काटी. हाल में गुज़र गईं पाक शायरा फ़हमीदा रियाज को सात साल जलावतन रहना पड़ा. इस दौर में उन्होंने हिंदुस्तान को अपना घर बनाया. 

तो सत्ता के हाथों प्रताड़ित होने वाले लेखकों-बौद्धिकों की सूची बहुत लंबी है. कहने की ज़रूरत नहीं कि लोकतांत्रिक आज़ादी और मनुष्य की अस्मिता के पक्ष में चले संघर्ष में उनका योगदान बहुत बड़ा है. 

लेकिन भारत में किसी लेखक या बुद्धिजीवी के सामने ये हालात क्यों आने चाहिए? आज़ादी की लड़ाई में तपते हुए भारतीय राष्ट्र राज्य ने अपना एक मन विकसित किया था. यह समझ बहुत साफ़ थी कि भारत चाहे जितनी भी समस्याएं भुगते, वह अपने नागरिकों की आज़ादी और गरिमा बनाए रखेगा. भारतीय लोकतंत्र में बोलने की जो आज़ादी है, वह इसी सोच और समझ का नतीजा है. आपातकाल इस नियम में एक अपवाद की तरह आया जिसकी सज़ा इंदिरा गांधी को भुगतनी पड़ी. देश के बौद्धिकों को भी यह बात समझ में आई कि अपनी आज़ादी बनाए रखने के लिए गाहे-बगाहे लड़ना और पिटना पड़ सकता है. 

इन दिनों सरकार की आलोचना से दुखी बहुत सारे लोग यह सवाल उठाते दिखते हैं कि क्या हम किसी और देश में- मसलन, चीन या पाकिस्तान में- इतनी आज़ादी के साथ अपनी बात रख सकते हैं? वे भूल जाते हैं कि यह आज़ादी किसी सरकार की दी हुई नहीं है, भारतीय जनता की कमाई हुई है और इसकी तुलना किसी ने नहीं हो सकती. सच तो यह है कि दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में प्रेस की आज़ादी का स्तर भारत से बेहतर है. 

बहरहाल, आनंद तेलतुंबडे पर लौटें. पिछले दिनों उनकी मार्मिक अपील पढ़ कर मन ख़राब रहा. यह लगता रहा कि इस देश का आम नागरिक कितना बेबस है. सरकारें चाहें तो उसे कितनी आसानी से कुचल सकती हैं. संभव है, आनंद तेलतुंबडे बहुत क्रांतिकारी या जुझारू तबीयत के शख़्स न हों जैसे हमारे बहुत सारे साथी नहीं हैं. इन पंक्तियों का लेखक भी नहीं है. लेकिन कई तरह के अन्यायों से बिंधा उनका अपना जीवन एक स्वाभाविक प्रतिरोध रचता है. इन अन्यायों के प्रति उनकी चेतना उन्हें लिखने और बोलने को मजबूर करती है. उन्हें एक सामूहिक या सांगठनिक लड़ाई उचित और ज़रूरी लगती है. 

सत्ता इसी चेतना से घबराती है. वह आनंद तेलतुंबडे जैसे लोगों को सबसे ख़तरनाक मानती है. क्योंकि वे बहुत ईमानदारी से अपनी बात कहते हैं और उनकी बात असर करती है. लेकिन यह सिर्फ आनंद तेलतुंबडे को दबाने का मामला नहीं है, यह दूसरों को डराने की भी कोशिश है- यह बताने की कि अगर वे सत्ता के ख़िलाफ़ बोलेंगे तो उनको इसकी सज़ा भुगतनी पड़ेगी.

लेकिन चाहे डरते-डरते करें या फिर निडर होकर, इसका प्रतिरोध तो करना होगा. वरना एक लेखक के तौर पर हमारा कोई मोल नहीं बचा रहेगा. लेखक को अंततः सत्ता के ख़िलाफ़ और कमजोर लोगों के हक़ में खड़ा होना होता है- यह समझ लिखने वालों को सदियों से रही है. तो इस लेखक की कुछ डरी, कुछ दबी हुई आवाज़ को भी आनंद तेलतुंबडे के पक्ष में की जा रही अपील की तरह देखा-माना जाए. आनंद और उन जैसे लेखक निरापद रहें, पढ़ने-लिखने और प्रतिरोध करने की दुनिया में सहज ढंग से विचरण कर सकें, इससे हमारा बौद्धिक और राजनैतिक समाज कुछ समृद्ध ही होगा और एक देश के तौर पर हम कुछ मज़बूत ही होंगे. 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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