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This Article is From Feb 24, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : संसद की बहस में क्‍या सही सवाल उठे?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 24, 2016 22:08 pm IST
    • Published On फ़रवरी 24, 2016 21:26 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 24, 2016 22:08 pm IST
कोई वक्ता रोहित वेमुला पर बोलने लगता तो कोई जेएनयू पर। कोई शुरू में रोहित पर बोलता तो बीच में जेएनयू पर और आखिर में राष्ट्रवाद पर। जब तक आप रोहित वेमुला पर कोई राय बनाते दूसरा वक्ता उठता और बहस को जेएनयू के बहाने राष्ट्रवाद और आतंकवाद की दिशा में ले जाता। लगा कि विचारों और भाषणों का झूला झूल रहे हैं। बेहतर होता ये बहस या तो पूरी तरह से जेएनयू पर होती या रोहित वेमुला पर। समझना मुश्किल था कि राष्ट्रवाद की बहस में रोहित वेमुला कैसे फिट हो रहा है या रोहित वेमुला की बहस में राष्ट्रवाद या जेएनयू कैसे फिट हो रहा है। बीच बीच में संस्थाओं में सरकारी दखल का मसला आकर और भी कंफ्यूज़ किये जा रहा था। मैं लोकसभा में शुरू हुई चर्चा की बात कर रहा हूं।

वक्ता अपने अपने इलाके के मुख्य प्रतिद्वंदी को निशाना बनाने में ज़्यादा दिलचस्पी ले रहे थे। टीआरएस के सांसद को हैदराबाद यूनिवर्सिटी में वेमुला की आत्महत्या के बाद नेताओं का जाना राजनीतिक पर्यटन नज़र आया तो तृणमूल के सांसद ने वेमुला और जेएनयू पर बोलते बोलते सीपीएम को निशाना बनाना नहीं छोड़ा। यही इस बहस की खूबी थी और यही खूबी सरकार के लिए आसान बनी। कांग्रेस और बीजेपी के वक्ता एक दूसरे से आमने सामने भिड़ रहे थे। वक्ता जब हिन्दी में बोल रहे थे तब उनके तेवर जोश भरे और नाटकीय लगे। अंग्रेजी में भाषणों के तेवर बदल जाते हैं। शुरू के दो वक्ताओं सौगत राय और तथागत सत्थपती ने अंग्रेज़ी में बोलना शुरू किया तो लगा कि सदन में कोई प्रोफेसर आ गया है और छात्र चुप हैं क्योंकि वे पढ़कर नहीं आए हैं। जब केरल से सीपीएम के सांसद एम.बी. राजेश ने अंग्रेज़ी में भाषण देना शुरू किया तो वे हिन्दी भाषी नेताओं की तरह अंग्रेज़ी बोलने लगे। इतने जोश में थे कि अनुभवी वेंकैया ने आसानी से कमज़ोर नस पकड़ ली और कह दिया कि हम पूरे जेएनयू को एंटी नेशनल नहीं कह रहे हैं। विपक्ष ऐसे चुप हो गया जैसे पहली बार सुना हो कि किसी ने जेएनयू को एंटी नेशनल भी कहा है क्या। वेंकैया 9 फरवरी के कार्यक्रम में लगे पोस्टर में लिखी हुई बातों को पढ़ कर विपक्ष को मूल सवाल पर आने के लिए पूछते रहे। एम.बी. राजेश ऐसे लड़खड़ा गए जैसे उन्हें सीनियर वेंकैया की गेंद ही नज़र नहीं आई। वेंकैया बहस को भटकने नहीं दे रहे थे और न खुद भटक रहे थे।

अब मैं आज दो दलित नेताओं का ज़िक्र करना चाहूंगा। एक का संबंध लोकसभा की बहस से है और दूसरे का संबंध राज्यसभा से है, मगर रोहित वेमुला से जुड़े होने के कारण प्रासंगिक है। पहले लोकजनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान की बात करना चाहता हूं जो रोहित वेमुला पर बोलने के लिए उठे।

चिराग ने कहा कि रोहित वेमुला के साथ जो कुछ भी हुआ उसे कोई सही नहीं ठहरा सकता। क्या कोई उनकी मां का दर्द कम कर सकता है। अगर इस मुद्दे को गंभीरता से हैंडल किया जाता तो आज नतीजा कुछ और होता यह कहते हुए चिराग पासवान ने केंद्र सरकार की तारीफ भी कर दी कि सरकार ने तुरंत जांच की घोषणा कर अच्छा काम किया। अब उनकी बात से साफ नहीं हो सका कि वे सरकार से जवाब मांग रहे हैं या उसे सर्टिफिकेट दे रहे हैं। चिराग ने एक दो बार ज़िक्र किया कि वे समाज की विचार यात्रा के इस मोड़ से व्यथित और चकित हैं। उनकी बातों से लगा कि देश की दलित राजनीति बदल रही है या फिर दलित राजनेता बदल रहे हैं। चिराग उस ज़मीन से बात कर रहे थे जहां से अब वे जात पात धर्म क्षेत्र से ऊपर उठकर मसलों को देखना चाहते हैं। जिस रोहित वेमुला के मुद्दे को अंबेडकरवादी छात्र दलित मुद्दा बनाकर आगे बढ़ा रहे थे, चिराग उनके असर में नहीं आए। इस मामले में मुझे चिराग का भाषण साहसिक लगा। वैसे चिराग का सूट मुझे पसंद आया। टाई का नॉट भी। ध्यान कभी उनकी बात पर जा रहा था तो कभी उनके सूट पर। बीस साल पहले अगर यही मुद्दा होता तो उनके पिता रामविलास पासवान कैसे बोलते। वे आक्रामक होते या चिराग की तरह आध्यात्मिक। लेकिन क्या चिराग को अपने पिता से स्वतंत्र होकर उन्हीं सवालों को नए सिरे से देखने का हक नहीं है। क्या देखा ही नहीं जाना चाहिए। ऐसे कैसे हो सकता है।

चिराग ने भले अपने पिता की तरह संघर्ष नहीं किया हो लेकिन मायावती तो संघर्ष की राजनीति से आई हैं। राज्यसभा में मायावती ने केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से पूछा कि रोहित वेमुला मामले की जांच की कमेटी में एक भी दलित क्यों नहीं है। शुरू में मायावती ने आक्रामकता दिखाई तो जवाब में स्मृति ईरानी जिस तरह से हावी हुईं वो सदन के भीतर मायावती के साथ शायद ही कभी हुआ होगा। मायावती पर राजनीतिक हमले हुए हैं मगर हमला करते विरोधी भी ख्याल रखते थे कि कहीं मायावती के पीछे खड़ा दलित मतदाता आहत न हो जाए। मायावती को भी दलित नेता होने का लाभ मिलता रहा है लेकिन स्मृति ईरानी ने विनम्रता से जवाब देने के अनुरोध के साथ जिस आक्रामक तेवर से जवाब दिया उससे मायावती भी स्तब्ध रह गईं। स्मृति ईरानी के चेहरे पर गुस्सा था और जवाब साफ साफ कि मायावती जी मुझसे जवाब चाहती हैं तो जवाब देने के लिए तैयार हूं। बसपा के हर नेता और कार्यकर्ता से कहती हूं कि सर कलम कर आपके चरणों में रख दूंगी अगर मेरे जवाब से संतुष्ट न हों। मैंने आपके लिए ईरानी के बयान का कुछ ही हिस्सा पढ़ा है लेकिन उनका गुस्सा बीजेपी को इस मजबूरी से भी मुक्त करता है कि वो यूपी चुनाव में इन चर्चाओं के साथ अब नहीं उतरेगी कि ज़रूरत पड़ी तो सरकार बनाने के लिए बीएसपी की मदद ली जाएगी या बीएसपी को समर्थन देगी। वैसे भी बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में बीएसपी को ज़ीरो पर पहुंचा दिया था। स्मृति ईरानी ने कहा कि कोई नागरिक तभी दलित है जिसे मायावती प्रमाणित करेंगी। वो इस पर बहस के लिए तैयार हैं।

विपक्ष के भाषणों में जिस तरह की आक्रामकता, भावुकता और निर्भिकता आरजेडी से निलंबित पप्पू यादव और आरजेडी के सांसद जयप्रकाश यादव के भाषणों में थी, उतनी कांग्रेस और विपक्ष के अन्य नेताओं में नज़र नहीं आई। उनके भाषणों में ये आया कि कन्हैया बिहार का बेटा है। बाकी आरोपी जहां के बेटे हैं उनके नेता बिहार का बेटा जैसा कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। सवाल है कि लोकसभा में विपक्ष ने अफज़ल गुरु और कश्मीर के सवाल का कैसे सामना किया। भारत विरोधी नारों की निंदा तो सबने की लेकिन अफज़ल गुरु पर विपक्ष की तरफ से किसी ने अपनी तरफ से पक्ष नहीं रखा। वो या तो बच गए या इधर उधर बोलकर रह गए। बीजेपी के नेता अफज़ल गुरु पर टिके रहे और विपक्ष को घेरते रहे। दो नेताओं ने अफज़ल गुरु के सवाल का सामना करने का प्रयास किया।

तिरुपति से वाईएसआर के सांसद रेड्डी ने कहा कि जब जेएनयू के छात्र जम्मू कश्मीर से सहानुभूति में पोस्टर लगाते हैं, अफज़ल गुरु के समर्थन में नहीं। आप इतिहास में जाइये। आप बार बार उन्हें धोखा देते हैं। आपने जनमतसंग्रह की बात कही थी, नहीं की। विश्वविद्यालय में कुछ बातें कही जाती हैं। छात्रों के अधिकार हैं लेकिन सरकार क्यों प्रतिक्रिया देती है। अब ये पर्याप्त दलील थी या नहीं आप तय करें। हैदराबाद से ही असदुद्दीन ओवैसी थोड़े अधिक मुखर नज़र आए। ओवैसी ने कहा कि 1984 में पंजाब के मुख्यमंत्री ने संविधान जलाया, आप उनकी तारीफ कर रहे हैं। आप अफज़ल की बात कर रहे हैं। जो नारे जेएनयू में लगे मैं उसे नहीं मानता। लेकिन श्रीनगर में रोज़ जुमे के दिन नारे लगाये जाते हैं। क्या पूरे श्रीनगर को बंद कर देंगे। पीडीपी की तारीफ आप क्यों कर रहे हैं। कहां गया आपका देशप्रेम। जब पीडीपी ने अफज़ल गुरु को शहीद करार दिया। ओवैसी ने कांग्रेस की भी आलोचना की।

अफज़ल गुरु के सवाल पर पीडीपी बोलती तो कुछ स्पष्ट होता। इस बहस में पीडीपी ने हिस्सा ही नहीं लिया। राहुल गांधी ने बुधवार सुबह कहा था कि बीजेपी बोलने नहीं देगी लेकिन वो तो बोले ही नहीं। उनका न बोलना भी एक सवाल की तरह गूंज रहा है।

वैसे आज की प्रस्तावना स्मृति ईरानी के भाषण पर ही होनी चाहिए थी जो उन्होंने लोकसभा में दिया। आक्रामकता, भावुकता, नाटकीयता के अलावा वो अपने हिसाब से पूरी तैयारी करके आईं थीं। उनका जवाब तब तक सब पर भारी ही कहा जाएगा जब तक विपक्ष की तरफ से कोई बिंदुवार जवाब नहीं देता। लोकसभा में तो मौका चला गया क्योंकि वहां बहस पूरी हो गई है। अपने भाषणों में नाटकीयता और भटकने की छूट विपक्षी नेताओं ने भी ली और स्मृति ईरानी ने भी ली। इसलिए विपक्ष इसकी शिकायत नहीं कर सकता। भाषणों को सुनकर लगा कि विपक्षी खेमे में प्रतिभाशाली वक्ता और खासकर मेहनती वक्ताओं का अकाल है। उनमें से कोई भी स्मृति ईरानी के जैसा प्रभावशाली भाषण नहीं दे पाया। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तुरंत उठकर स्मृति ईरानी की ज़ोरदार प्रशंसा की। गृहमंत्री ने कहा कि देशद्रोह का आरोप लगे या न लगे इस पर बहस हो सकती है मगर पुलिस की जांच की परीक्षा अदालत में हो जाएगी।

सबको तो नहीं सुना न जिनको सुना उनकी सारी बातों का यहां ज़िक्र कर सका हूं। लेकिन क्या जो सवाल बाहर उठ रहे थे वो सदन के भीतर भी ठीक से उठे, जवाब मांगे गए और जवाब दिए गए। क्या नई बात हुई या उन्हीं बातों को ऑन रिकार्ड कहने की औपचारिकता पूरी की गई। कौन बचकर निकल रहा था और कौन सामने सामने से पूछ रहा था या जवाब दे रहा था।

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