प्राइम टाइम इंट्रो : बूंद-बूंद पानी के लिए तरसे लोग

प्राइम टाइम इंट्रो : बूंद-बूंद पानी के लिए तरसे लोग

सूखा मौजूदा सरकार की देन नहीं है। सरकारों की दिक्कत ये है कि वे मुआवज़े और राहत कार्य को सूखे का समाधान समझती रही हैं। जिस संकट को इंसानों ने मिलकर कई साल से बुलाया है वो एक दिन या एक साल में नहीं जाएगा।

राहत कार्य के नाम पर जो राशि जारी होती है वो दिल्ली से चलते वक्त सैकड़ों करोड़ों में सुनाई देती है और किसान के हाथ में पहुंचते पहुंचते सौ-दो सौ रुपये की हो जाती है। किसान जितना सरकार से लाचार है उतना समाज से भी और इन दोनों से ज्यादा अपने आप से भी। उसके लिए सबसे बड़ी तकलीफ है कि कोई उसे सुन नहीं रहा है। आज ही शाम को यूपी के ग़ाज़ीपुर ज़िले के ब्लॉक मरदह के महमूदपुर गांव से एक किसान विनय कुमार हमारे दफ्तर आए थे। सिर्फ इतनी सी बात कहने के लिए कि जब दैवीय आपदा के वक्त मुआवाज़ा दिया जाता है तो वो भूमि के स्वामी के नाम पर दिया जाता है जबकि हम बंटाईदार खेत किराये पर लेते वक्त पूरा पैसा दे चुके होते हैं। हमारा दोहरा नुकसान होता है और भूमि के स्वामी को दोहरा फायदा। विनय किसी सरकार के खिलाफ बोलने के लिए 1200 किलोमीटर चल कर नहीं आया था बल्कि यह कहने आया था कि उसकी बात दिल्ली की मीडिया में उठेगी तो शायद प्रधानमंत्री सुन लेंगे। आज ही पीलीभीत से एक किसान ने फोन किया कि उनके गांव के सैकड़ों एकड़ खेत से नेता जी गेहूं काट ले गए। कोई ख़बर तक छाप नहीं पा रहा। हम इस ख़बर की पुष्टि नहीं कर सके लेकिन सिर्फ इसलिए बता रहे हैं कि किसान अपनी बात कहने के लिए कहां-कहां भटक रहा है। जबकि उसके लिए तो अपना एक किसान चैनल भी है।

कायदे से तो हमारी सहयोगी सांतिया को ये जोखिम नहीं उठाना चाहिए था लेकिन बीड़ के हेलम गांव के इस कुएं में उतरने से पहले सांतिया ने सुरक्षा के सारे बंदोबस्त कर लिये थे। उनके साथ कैमरामैन प्रवीण भी साठ फीट गहरे कुएं में उतर आए। सांतिया के बहाने आप खुद से यह सवाल कीजिये कि क़तरा क़तरा पानी बटोरने का यह दृश्य सर्वनाश का है या निर्माण के आरंभ का। यहां पानी कुएं के तल से धीरे-धीरे रिस-रिस कर ऊपर जमा आता है तो एक घड़ा भरने में एक दो घंटे लग जाते हैं। फिर घड़े को रस्सी के सहारे बांध कर ऊपर इंतज़ार कर रही महिलाओं के हवाले भेज दिया जाता है। यह तस्वीर बयां करती हैं कि पानी का सर्वनाश हुआ है, पानी बटोरने की रचनात्मकता का सर्वनाश नहीं हुआ है। जब लोग इस कदर जान जोखिम में डालकर पानी ला सकते हैं, गंदा पानी पी सकते हैं तो यही लोग एक दूसरे का हाथ थाम कर पानी के इस संकट को समाधान में क्यों नहीं बदल सकते हैं। इन जगहों से पानी को लेकर कोई बड़ा सामाजिक राजनीतिक आंदोलन क्यों नहीं खड़ा हो सका है। जब लोग कुएं में उतर सकते हैं तो कुएं से निकल क्यों नहीं सकते।

केंद्रीय जल आयोग की वेबसाइट के अनुसार देश भर में सबसे अधिक डैम यानी बांध महाराष्ट्र में हैं। 1845 बांध हैं। इनमें से 1693 बांध बन चुके हैं और बाकी बन रहे हैं। फर्स्ट पोस्ट पर तुषार धारा ने लिखा है कि महाराष्ट्र ने सैकड़ों बांध बनाने पर हज़ारों करोड़ फूंक दिये हैं मगर इनसे कुछ लाभ नहीं हुआ। ठेकेदारों की किस्मत तो बदल गई मगर किसान की नहीं। हम अक्सर सोचते हैं कि पानी का संकट किसी दूर दराज़ के इलाके का है। हमारे अपार्टमेंट में तो कभी आएगा नहीं।

रविवार को जब पानी एक्सप्रेस राजस्थान के कोटा वर्कशॉप से पुणे के मिरज पहुंची तो स्थानीय नेताओं ने फूल माला चढ़ाकर स्वागत किया। जैसे पहली बार भारत में रेल चली हो। इस ट्रेन के लिए रेल मंत्रालय और महाराष्ट्र सरकार ने मिलकर काफी मेहनत की है। पुणे के मिरज से ढाई किमी दूर पानी का स्रोत है वहां से पानी लाकर इन टैंकरों में भरा जाएगा। इसके लिए सरकार नई पाइपलाइन भी बिछा रही है। तीन चार दिनों में नई पाइप लाइन बिछ जाएगी। पुरानी पाइप लाइन से भरने में दिक्कत पेश आ रही है इसीलिए एक ट्रेन में पांच लाख लीटर पानी ही भरा जा सका है। नई पाइप लाइन से ट्रेन में 25 लाख लीटर पानी भरा जा सकेगा। ट्रेन मिरज से चलकर लातूर पहुंच चुकी है। रेल मंत्रालय ने इन तेल टैंकरों को साफ करने के लिए विशेष उपाय किये हैं ताकि पानी ख़राब न हो। एक वैगन में 54 हज़ार लीटल पानी आता है।

यह रेल गाड़ी राहत कार्य को लेकर सरकार की गंभीरता का प्रतीक तो है ही समस्या की गंभीरता का भी प्रतीक है। हमारे सहयोगी तेजस मेहता ने विमान से मराठवाड़ा की ये तस्वीरें ली हैं जिन्हें देखकर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि धरती वीरान सूखी और बंजर पड़ी है। कहीं पेड़ नहीं दिख रहे हैं। खेत कटे हुए हैं। पेड़ों की अनुपस्थिति बता रही है कि हमने इस संकट को बुलाने के लिए कितनी मेहनत की है। कितनी मेहनत से यहां के पेड़ों को काटा गया होगा ताकि बादलों को बुलाने वाले बचे ही नहीं। मराठवाड़ा में बारिश लगातार कम होती जा रही है।

प्रधानमंत्री ने भी सूखा प्रभावित राज्यों में राहत के सभी कदम तुरंत उठाने के आदेश दिये हैं। मनरेगा की बकाया राशि के जारी करने का भी ऐलान किया गया है ताकि बकाया देकर हज़ारों मज़दूरों को राहत दी जा सके। मध्य प्रदेश में तो पिछले अक्टूबर में ही साठ प्रतिशत इलाके में सूखा घोषित कर दिया गया था।

शिवपुरी से सिद्धार्थ रंजन दास और रिज़वान ख़ान ने ख़बर भेजी है कि यहां के लोगों को छह से आठ दिनों में एक बार पानी मिल रहा है। टैंकरों को देखते ही लोग दौड़ पड़ते हैं। पानी को लेकर झगड़े होने लगे हैं। आठ दिनों बाद सरस्वती नगर में जब टैंकर पहुंचा तो आप देख सकते हैं कि पोलियो की शिकार 35 साल की प्रकाशी भी पानी के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी है। हर गर्मी में शिवपुरी की यही समस्या है। समाधान के नाम पर ट्रैक्टर से लगा टैंकर है और अब रेल का टैंकर है। राहत के आगे बात बढ़ नहीं रही है नतीजा समस्या अगले साल फिर लौट आती है। गीता रावत के घर में 20 दिन बाद पानी आया है। कल्पना कीजिए कि क्या आप 20 दिन तक बिना पानी के रह सकते हैं। कॉरपोरेटर मीटिंग में कितने दिन डियोडरेंट के भरोसे जाएंगे।

अगर आप वाकई इस समस्या का समाधान ईमानदारी से जानना चाहते हैं तो अपने अपने शहरों में बस इतना पता कर लीजिए कि दस साल पहले तक कितनी झीलें थीं, कितने तालाब थे। वो तालाब केंद्र सरकार ने बनवाये थे या राज्य सरकार ने या फिर सदियों से लोग अपने सामान्य ज्ञान से बनाते आ रहे थे। उन पर कब्जा करने वाले बिल्डर किस पार्टी के समर्थक हैं। यह पता चल जाएगा तो आपको उस पार्टी की सदस्यता लेने में आसानी रहेगी।

सूखे ने देश भर की लाखों महिलाओं को पानी के इंतज़ार में लगा दिया है। उनके पीछे बेटियां घर का काम देख रही हैं। कई बार सूखे की तस्वीरों को देखकर लगता है कि मर्दों को प्यास भी नहीं लगती है। पानी लाना और पानी के लिए सब्र करना औरतों का काम है। जबकि आप बिना दिमाग़ लगाए आसानी से समझ सकते हैं कि पेड़ काटने कौन गया होगा, तालाबों का अतिक्रमण कर उन पर प्लॉट काटने कौन गया होगा। वो कोई औरत थी या मर्द। पर्यावरण पढ़ाने वाला कोई भी बता देगा कि जब संकट आता है तो मार पहले और आखिर तक औरतों पर पड़ती है। नालगौंडा से उमा सुधीर की यह रिपोर्ट फिर से याद दिला रही है कि अब लोग पहल नहीं करेंगे तो कब करेंगे। 22 साल की अरुणा को डॉक्टरों ने सलाह दी थी कि भारी चीज़ न उठाए क्योंकि पिछले साल उसका गर्भपात हो गया था। लेकिन उसे पानी लाने के लिए चलना पड़ रहा है। पेट में दर्द होता है। पीठ में दर्द होता है।

पानी का संकट स्थायी होता जा रहा है। समाधान के किस्से भी मौजूद हैं इस देश में मगर वो संकट के अनुपात में बहुत छोटे हैं। दरअसल हम इसे मौसम का संकट समझ कर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। 29 में से 12 राज्य सूखे की चपेट में है।

तेजस मेहता हमारे सहयोगी हैं। वे बीड़ के असोला गांव पहुंचे तो देखा कि पानी के लिए मारामारी हो रही है। लोग कुएं की मुंडेर पर ख़तरनाक तरीके से झुके हुए हैं। ये कुआं सूखा हुआ है और टैंकर के पानी से इसे भरा गया है। इसे कहते हैं बुद्धि की बलिहारी। कुएं को टैंकर के पानी से भरा जा रहा है। लोगों का कहना है कि पानी के लिए वो कुछ भी करेंगे। यहां छोटे बच्चों को कुएं में नीचे उतार दिया जाता है ताकि वो पानी ला सकें। 2000 में यहां पानी के लिए पाइपलाइन डाली गई थी लेकिन अभी तक उसमें पानी नहीं आया। इस गांव में कुएं में उतरने के चक्कर में इस साल दो लोगों की मौत हो चुकी है, कई लोग अपनी हड्डियां तुड़वा चुके हैं, हर आदमी को बस एक बर्तन में पानी मिल रहा है, उससे ज़्यादा नहीं।

सूखे की समस्या से हमें लगता है कि खेत में अनाज नहीं पैदा हुए इस बार। हम भूल जाते हैं इसके कारण जानवरों की स्थिति भी ख़राब हो जाती है। महाराष्ट्र में कई दशक से जानवरों के लिए छावनियां बनती रही हैं मगर इन छाविनयों में भी जानवरों को चारा देने से लेकर कितने जानवर रखने को लेकर राजनीति हो जाती है। एनजीओ से लेकर प्राइवेट पार्टियों को ठेके पर दिया जाता है। 70 रुपया एक जानवर के लिए दिया जाता है जिसमें से कुछ दस बारह रुपये गोबर के काट लिये जाते हैं, ये मानते हुए कि गोबर से खाद वगैरह बेचकर किसान कमाता होगा। बताइये जिस जगह पर पानी नहीं है, खेती नहीं है वहां गोबर का खाद कौन खरीद रहा है। क्या वहां गोबर का कोई ग्लोबल मॉल बना हुआ है।

आप गूगल करेंगे तो 2002 के फ्रंटलाइन से लेकर 2004 के हिन्दू अखबार में जानवरों की छावनी का ज़िक्र मिलता है। पुरानी रिपोर्ट को पढ़ते हुए और इस बार की रिपोर्टिंग को पढ़ते हुए लगता नहीं कि इन छावनियों की समस्या में कोई सुधार हुआ है। छह सात गांवों पर एक छावनी बनाई जाती है। हर परिवार से एक सदस्य पांच मवेशियों को इस छावनी में रख सकता है। उसे एक कार्ड मिलता है और उसे खुद अपने जानवर की निगरानी करनी होती है कि चारा और पानी मिल रहा है या नहीं। एक जगह पर पांच सौ से हज़ार जानवर रखे जा रहे हैं। जानवरों को गन्ने का चारा देने और कम स्तर का चारा देने को लेकर भी कहासुनी हो रही है। स्क्रोल न्यूज़ साइट ने लिखा है कि जानवरों की छावनी मराठवाड़ा में पुरानी संस्था है। इसबार सरकार ने 237 छावनियां बनाईं हैं। इन्हें प्राइवेट पार्टी चलाती है। इसलिए ये भी एक कारोबार में बदल गया है। पांच लाख की गारंटी जमाकर छावनी चलाने का ठेका मिलता है। आरोप लग रहे हैं कि कारोबारी इसमें मुनाफे की गुज़ाइश की ज़्यादा चिन्ता कर रहे हैं। कुछ जगहों से जानवरों की इन छावनियों के बेहतर ढंग से चलने की भी सूचना आ रही है।

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प्राइम टाइम में हम बात करेंगे सांतिया और तेजस से कि वो ज़मीन पर क्या देख रहे हैं। क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा है, उनकी राय में सरकार को क्या सुझाव दिये जा सकते हैं जिससे सरकार तुरंत कदम उठाये और लोगों को राहत मिले।