छोटे-छोटे कमरे अंडमान निकोबार की सेलुलर जेल की तरह बने हुए हैं। एक कमरे के ऊपर कमरे ताश के पत्तों की तरह बना कर टिका दिए गए हैं। ये कमरे नहीं हैं। गुफा हैं। जाने और निकलने का एक ही रास्ता है। बहुत कम कमरों में खिड़किया हैं। इन मकानों में आप जब चाहें प्रवेश कर जाइये आपको सुरक्षा को लेकर कोई चिन्ता नहीं दिखेगी। सौ सौ मज़दूर जिन मकानों में रहते हैं वहां सीढ़ियों पर रेलिंग तक नहीं है। गलियारों में घुप अंधेरा है। खाना बनाने की जगह पर उतनी ही गंदी है जितनी कचरा फेंकने की जगह गंदी होती है। क्या आप यहां खाना चाहेंगे।
इन कमरों में रहने वाला मज़दूर अलग तरह की असुरक्षा का सामना करता है। हवा नहीं आती है। कमरे में खाना बनाना और नहाना। ज़ाहिर है प्रदूषण भी होता होगा। इससे उनके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता होगा। उनकी उत्पादकता भी कम होती होगी। जहां भी मज़दूर रहते हैं वहां चले जाइये। गुड़गांव, फरीदाबाद, इनकी सीमाओं से लगे दिल्ली के गांव। मज़दूरों को नारकीय स्थिति में रहना पड़ता है। नगरापालिकाएं कम से कम यहां कचरा साफ कर सकती हैं। प्रशासन कम से कम सफाई की व्यवस्था कर सकता है। शौचालय का इंतज़ाम कर सकता है। हर घर में शौचालय बनाने का दावा हो रहा है। यहां तो सौ सो कमरे पर चार शौचालय हैं। वो भी बहुत खराब। पानी नहीं है।
भूकंप आ गया तो ये मकान कितनी देर टिकेंगे कोई नहीं जानता। इन्हें देखकर ही किसी आशंका का अहसास होता है। हम जो भी दिखा रहे हैं वो कोई नई बात नहीं है। ये सारे मकान दस पंद्रह साल पुराने तो होंगे ही। हमारी कोशिश है कि किसी तरह से इनकी समस्याएं आपकी नज़र में आएं। आपकी प्राथमिकता में ये बात आएगी तो सरकार भी तत्पर होगी यहां साफ सफाई और न्यायपूर्ण व्यवस्था बहाल करने में। इसके लिए प्रधानमंत्री ही बोलें ज़रूरी नहीं है। प्रशासन को इन जगहों के बारे में पता नहीं होगा ऐसा तो हो नहीं सकता। सवाल ये है कि होता कुछ क्यों नहीं है।