प्राइम टाइम इंट्रो : क्या तीन तलाक़ की प्रथा ख़त्म होनी चाहिए?

प्राइम टाइम इंट्रो : क्या तीन तलाक़ की प्रथा ख़त्म होनी चाहिए?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

हम जिस दौर में जी रहे हैं उसमें पितृसत्ता को लगातार मिलने वाली चुनौतियां तेज़ होती जा रही हैं. कब कौन सी बहस किस रफ्तार से उठेगी इस पर अब किसी का बस भी नहीं चल सकता. तीन तलाक को समाप्त किये जाने की बहस बेहद रोचक दौर में है. इसका स्वागत होना चाहिए और इस बहाने राजनीतिक पूर्वाग्रहों को स्थापित करने के प्रयासों से सतर्क भी रहना चाहिए. न ही किसी दूसरे भय के आधार पर तीन तलाक का विरोध होना चाहिए. इस टॉपिक पर बहस शुरू नहीं हुई कि फैसला आ जाता है. मैं उल्टा चाहता हूं. फैसले से पहले हम दोनों पक्षों के बारे में ऐसे बात करें जिससे समाज धर्म और अधिकारों की लड़ाई को समझने में मदद मिले.

उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानो. फरवरी 2016 में एक जनहित याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई कि तीन तलाक की प्रथा समाप्त हो. बल्कि इसके साथ साथ हलाला और बहुविवाह भी समाप्त हो जाए. शायरा बानो के साथ साथ जयपुर की आफ़रीन रहमान, हावड़ा की इशरत जहां भी महिलाओं के अधिकार को लेकर मैदान में आ गईं. सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी मामलों को एक साथ सुनना शुरू कर दिया. फरवरी से अक्टूबर तक आते आते इस मामले में पक्ष विपक्ष से कई पैरोकार जुड़ गए हैं. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन भी इस मामले में पक्षकार बन गया. आंदोलन ने 50000 मुस्लिम महिला और पुरुषों के दस्तख़त जुटाए. तीन तलाक की समाप्ति की याचिका पर सुनवाई जैसे जैसे आगे बढ़ी है वैसे वैसे इसे लेकर सार्वजनिक स्पेस में बहस भी बढ़ने लगी है.

जिस तरह से तमाम मुस्लिम संगठनों ने तीन तलाक के हक़ में सक्रियता दिखाई है, उससे लगता है कि मुस्लिम समाज की कोई बेचैनी बाहर आ रही है. समान आचार संहिता अलग मसला है लेकिन इसके सहारे तीन तलाक का समर्थन करना क्या वक्त की मांग को अनदेखा करना है या वाकई उनका इस बात में यकीन है कि तीन तलाक महिलाओं के लिए बेहतर व्यवस्था है. तमाम संस्थाओं, शहरों से लेकर लेकर तमाम दफ्तरों को महिलाओं के हिसाब से कानून बदलने पड़ रहे हैं. क्या मुस्लिम संगठन सिर्फ इस आधार पर इस आवाज़ को अनसुना कर सकते हैं कि तीन तलाक के ख़िलाफ़ तीन चार महिलाएं ही मैदान में हैं.

जमात ए इस्लामी हिन्द ने कहा कि केंद्र सरकार ने तीन तलाक की प्रथा का जो विरोध किया है वो धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के ख़िलाफ है. जमात के मुखिया जलालुद्दीन उमरी ने कहा है कि तलाक और बहुविवाह उनके मज़हब का अंतरंग हिस्सा है, इसलिए शरिया कानून का ही पालन होना चाहिए. इसे समाप्त नहीं किया जाना चाहिए. दिल्ली में 13 अक्टूबर को दस मुस्लिम संगठनों के साथ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की प्रेस कांफ्रेंस हुई. कहा गया कि सभी प्रमुख मुस्लिम संगठन लॉ कमीशन की उस प्रश्नावली को खारिज करते हैं. लॉ कमिशन ने समान संहिता लागू करने की दिशा में अपनी वेबसाइट पर लोगों से कुछ सवाल पूछे हैं. सारे सवाल हां या ना में पूछे गए हैं और कारण बताने के लिए कुछ जगह भी छोड़ी गई है. भारत सरकार ने कहा है कि तीन तलाक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने हलफनामे में कहा है कि तीन तलाक होना चाहिए. 70 पेज के हलफनामे का फ्लेविया एग्नेस ने विश्लेषण करते हुए लिखा है कि बोर्ड की कुछ बातें नकाबिले बर्दाश्त हैं तो कुछ बातें सकारात्मक भी हैं. एग्नेस का कहना है कि पहले भी इस मामले में पर्सनल ला बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को स्वीकार किया है. भारत की सभी धर्मों की महिलाएं प्रोटेक्शन ऑफ वीमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट 2005 के तहत हक मांग सकती हैं. बोर्ड ने भी यह स्वीकार किया है. फ्लेविया कहती है कि बोर्ड के इस पोज़िशन से यह जो मिथ फैला है कि मुस्लिम औरतें इस कानून के तहत इंसाफ नहीं मांग सकती है, वो दूर हुआ है. सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों से साबित होता है कि बोर्ड अंतिम अथॉरिटी नहीं है.

आज हम सिर्फ तीन तलाक के मसले पर बात करेंगे. वर्ना आप कब तीन तलाक पर बात करते करते समान आचार संहिता पर चले जाएंगे और समान आचार संहिता पर बात करते करते भूल जाएंगे कि तलाक पर बात कर रहे थे. भारत सरकार ने लॉ कमिशन को जिम्मा सौंपा है कि समान आचार संहिता लागू हो. तमाम धार्मिक समुदाय परंपराओं के नाम पर कानून से आगे जाकर छूट लेते रहे हैं. अभी समान आचार संहिता को सिर्फ हिन्दू बनाम मुस्लिम के संदर्भ में भी देखा जा रहा है, लेकिन देखना चाहिए कि यह बहस किसी और दिशा में जाती है या नहीं. क्या समान आचार संहिता बनाते वक्त सभी धर्मों और समाजों की पंरपराओं को एक कानून के तहत लाया जाएगा या जा रहा है.

जैसे हैदराबाद की 13 साल की अराधना जैन परंपरा के अनुसार 68 दिनों का उपवास करती है. इसके नतीजे में वो इतनी कमज़ोर हो जाती है कि मौत हो जाती है. पुलिस इस मामले की जांच कर रही है कि कहीं मां बाप ने उकसाया तो नहीं. इसकी काफी आलोचना हो रही है. जैन समाज के संतों का कहना है कि उनकी परंपराओं के आगे लोग न आएं. लोग उनके समुदाय को बदनाम कर रहे हैं. यानी जैन संत मोक्ष प्राप्ति की दिशा में उपवास का समर्थन कर रहे हैं. अपनी धार्मिक परंपरा का बचाव कर रहे हैं. क्या सरकार इन परंपराओं पर रोक लगाने के बारे में विचार कर सकती है या 13 साल की लड़की 68 दिन का उपवास न करे इसे लेकर कोई कानून बना सकती है. संथारा पर रोक लगाने का मामला अभी भी अदालत में लंबित है.

बाल विवाह से लेकर सति प्रथा तक इन सबको कानून और सामाजिक आंदोलन से ही धार्मिक मान्यताओं से अलग किया गया है. ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे. आज भी यह काम होता ही रहता है. कई बार हम सफल रहे हैं कई बार सफल होकर भी असफल रहे हैं. जैसे सुप्रीम कोर्ट ने ही माना है कि हिन्दू कोड बिल के बाद बहुविवाह पर रोक लगा दी गई लेकिन ज़मीन हकीकत कुछ और है. लेकिन इस आधार पर नई पहल न हो यह भी बात उचित नहीं लगती है. कोई ठोस आंकड़ा तो नहीं है लेकिन तमाम मुस्लिम महिलाएं शरिया कानून की जगह भारतीय दंड संहिता के तहत अपने अधिकारों की लड़ाई पहले भी लड़ती रही हैं और आज भी लड़ रही हैं. कुछ सवालों के जवाब जानने का प्रयास करूंगा.

- क्या तीन तलाक ही तलाक देने का एकमात्र या प्रचलित तरीका है?
- क्या तलाक सिर्फ पुरुष मुसलमान ही देते हैं?
- ख़ुला प्रथा के तहत महिलाएं तलाक़ देती हैं
- क्या महिलाएं ख़ुला का इस्तमाल करती हैं?
- फ़स्ख़ ए निकाह के तहत जब बीबी तलाक चाहती है और मियां नहीं देता है तो शादी ख़त्म कर दी जाती है.
- तफ़़वीज़ ए तलाक़ के तहत बीबी को तलाक़ का हक़ दे दिया जाता है.
- क्या इन परंपराओं का इस्तमाल होता है?


मेरा ज़ोर इस बात पर है कि अंतिम फैसले पर पहुंचने से पहले हम दोनों पक्षों के बारे में जानें. दिक्कत यह है कि हम जिस मसले पर बहस कर रहे हैं, उससे संबंधित ठीक आंकड़े नहीं हैं. जैसे हम नहीं जानते कि कितने पुरुष तीन तलाक का इस्तमाल करते हैं या कितनी महिलाएं तलाक़ के अपने अधिकारों का इस्तमाल करती हैं. कुछ सवाल मेरे मन में अनुषा रिज़वी के लेख को पढ़ते हुए आए कि क्या तीन तलाक की परंपरा सभी मुस्लिम समाज यानी फिरके में पाई जाती है? हनफ़ी, शाफ़ई हंबली, और मालिकी इस्लामी कानून के ये चार स्कूल माने जाते हैं. शियाओं की भी अपनी अलग व्यवस्था है. क्या सभी महिलाओं के लिए बने सेकुलर कानून मुस्लिम महिलाओं पर लागू नहीं हैं? घरेलु हिंसा कानून 2005, दहेज़ निषेध कानून 1961.

क्या क़ुरआन में लिखा है कि तीन तलाक़ होना चाहिए. अगर नहीं लिखा है तो फिर इसका बचाव किसके लिए किया जा रहा है. क्या मुस्लिम संगठन दावा कर सकते हैं कि तीन तलाक से महिलाओं को नुकसान नहीं है. क्या मुस्लिम संगठनों की यह नाकामी नहीं है कि काशीपुर, जयपुर और हावड़ा की औरतों को सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा. अगर इसमें अच्छाई है तो वो बताया जाना चाहिए. 33 देशों में तीन तलाक बंद है. इनमें से 22 इस्लामिक मुल्क हैं. 2005 में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने मॉडल निकाहनामा बनाया था जिसके अंदर कहा गया था कि तीन की जगह एक ही तलाक काफी है. उसके बाद 90 दिनों का वक्त मिलेगा जिस दौरान तलाक देने वाला सोच सकता है, परिवार में लोग सुलह का प्रयास कर सकते हैं, तीन महीने बाद इसे वापस भी लिया जा सकता है. 15 साल बाद फिर से यह सवाल उठा है इसका मतलब यह है कि औरतों की आवाज़ को सुकून नहीं मिला है. बिल्कुल तलाक होना चाहिए. लेकिन तलाक का तरीका न तो इतना आसान हो और न ही बहुत जटिल.


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