विज्ञापन
This Article is From Mar 10, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : नेता से सुनिए चुनाव प्रचार के कटु अनुभव...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 10, 2017 23:35 pm IST
    • Published On मार्च 10, 2017 23:31 pm IST
    • Last Updated On मार्च 10, 2017 23:35 pm IST
पतझड़ में जैसे पत्ते बिखरे होते हैं वही हाल इस बार एग्ज़िट पोल के नंबरों का है. लोग उलट पलट कर देख तो ले रहे हैं मगर यह सोच कर नहीं उठा रहे हैं कि गिरे हुए पत्ते किस काम के. एग्ज़िट पोल की ऐसी दुर्गति कभी नहीं देखी गई. टीवी चैनलों के चुनावी कवरेज़ में एग्ज़िट पोल की अपनी विश्वसनीयता होती थी. ग़लत होते हुए भी लोगों को बहुत दिनों तक यकीन रहा कि इन आंकड़ों की अपनी वैज्ञानिकता है. जल्दी ही विश्वसनीयता और वैज्ञानिकता ग़ायब होने लगी. धीरे-धीरे शक करने लगे, एग्ज़िट पोल ग़लत होने लगे. सरकार के दबाव में एग्ज़िट पोल के नंबर बढ़ाने का आरोप लगा. हालत यह हो गई कि जब ये ग़लत निकले तो सरकारों का भी एग्ज़िट पोल में यकीन कम हो गया. राजनीतिक दल अपना अपना सर्वे करने लगे जिसे आप इंटरनल सर्वे या अपना सर्वे के नाम से जानते हैं. पांच राज्यों के इस चुनाव में एग्ज़िट पोल अधमरे से पड़े हुए हैं. इनके लिए कोई एंबुलेंस भी नहीं बुला रहा है. इस बार अगर ये सही निकले तो एग्ज़िट पोल के फिर से जी जाने की उम्मीद की जा सकती है, ग़लत निकले तो डॉक्टर ही इन्हें ऑपरेशन टेबल पर छोड़ आएंगे. जब दुनिया में हर चुनाव डेटा के आधार पर होने लगा है, कितना अजीब है कि भारत में डेटा पर आधारित एग्ज़िट पोल दम तोड़ रहा है. 11 मार्च को अगर ये सही के करीब हुए तो फिर से इनकी शाखों में हरे पत्ते लग जाएंगे. फिर से एग्ज़िट पोल पेश करने वाले सामने आकर दावा करने लगेंगे.

एग्ज़िट पोल के आधार पर किसी भी पार्टी में जश्न का माहौल नहीं है. इसका मतलब यह नहीं कि यूपी में कोई नहीं जीतेगा. आज की रात नेता चैन से सो लेंगे. उन्हें इतना तनाव झेलना आता है. आप सब भी मतदाता ही हैं. आप ही बता सकते हैं कि आपने किस पोल में अपना मत दिया है. क्या आप वोट देने के बाद किसी एग्ज़िट पोल वाले को सही बोल रहे थे. कई लोग जानना चाहता हैं कि ये पोल वाले आते कब हैं, उनका आज तक उन्हें से तो कोई सर्वे वाला नहीं टकराया. क्या आप ऐसे किसी को जानते हैं जिन्होंने किसी सर्वे में भाग लिया है. अगर लिया है तो आपने क्या वाकई सही में बोला है कि सही में इस पार्टी को वोट किया है. बहुमत भी कई प्रकार के होते हैं जैसे ऐतिहासिक बहुमत, प्रचंड बहुमत, स्पष्ट बहुमत, साधारण बहुमत, भारी बहुमत, पूर्ण बहुमत, दो तिहाई बहुमत, क्लियर बहुमत, अस्पष्ट बहुमत और बंपर बहुमत. इन दस प्रकार के बहुमत का पता चला है.

मीडिया की भाषा में बहुमत सिर्फ बहुमत नहीं होता है. टीवी की भाषा पर भी आपका ध्यान जाना चाहिए. कल आप कुछ सुर्ख़िया देख सकते हैं जो इस प्रकार है...
- मोदी मोदी मोदी
- मोदी मैजिक चल गया
- यूपी को बदलाव पसंद है
- बीजेपी बहुमत के पार
- लहराया केसरिया, छा गया भगवा
- यूपी यूपी फूल खिला है
- बनवास से लौटी बीजेपी
- नहीं चला मोदी का जादू
- शाह को मिली यूपी में मात
- मोदी लहर पर अखिलेश का टूटा कहर

अखिलेश जीते या हारे तो ये हेडलाइन होगी...
- काम बोल गया है
- चल गई साईकिल
- टीपू बना यूपी का सुल्तान
- काम नहीं बोल सका है
- हाथ ने पंचर कर दी साइकिल
- यूपी को ये साथ पसंद नहीं है


हम एंकरों की भाषा का अध्ययन होना चाहिए. कई बार शब्द घिस गए से लगते हैं. वही विशेषण हैं जो हर बार इस्तमाल में लाए जाते हैं. किसी भी मौसम में चुनाव हो, मगर चुनावी गर्मी ज़रूर बोलेंगे. सियासत हमेशा गरमा जाती है. इन्हें हम कैच लाइन, टैग लाइन और हेडलाइन कहते हैं. हिन्दी में सुर्ख़ियां कहते हैं. काले बादल छंटने वाले हैं, चल गई झाड़ू, किसकी मनेगी होली, यूपी में मनेगी केसरिया होली. लोकतंत्र में अभी तक हम राजसिंहासन और राजतिलक, ताजपोशी, का इस्तमाल करते हैं. हम आपको बता दें कि अगले बीस साल तक ऐसे ही करते रहेंगे.

पत्ता साफ़ और सूपड़ा साफ़ के बिना तो कोई चुनाव पूरा नहीं होता है. 11 तारीख को कोई न कोई सूपड़ा साफ का इस्तमाल ज़रूर करेगा. यूपी में कांग्रेस का तो पंजाब में अकाली दल का सूपड़ा साफ. सफाया भी एक जुमला है. अकाली दल का सफाया. साइकिल का सफाया. अब साइकिल का सफाया का तो दो मतलब हुआ. या तो किसी ने साफ कर चमका दिया या साफ कर ग़ायब कर दिया. हम एंकर बैठे हों या खड़े हों मगर हम बार बार कहते हैं अब यहीं से सवाल खड़ा होता है. ख्वामख़ाह सवाल को क्यों खड़ा कर देते हैं हम लोग. ऐसे बोलते हैं जैसे जिससे पूछ रहे हैं वो कुर्सी से गिर जाएगा. कहीं न कहीं, इसके बिना तो किसी ने भारत में एंकरिंग ही नहीं की है. ये कहीं न कहीं क्या होता समझ नहीं आता है. सबसे सरदर्द होता जी हां सुनकर. ये जी हां क्या होता है जैसे आप दर्शक को हम बता भी रहे हैं और आपको बेवकूफ भी समझ रहे हैं. इसलिए प्रिय पत्रकारों, दर्शकों के सामने ये जी हां मत बोलना. जैसे ही एंकर बोलता है कि कहना न होगा तभी मुझे लगता है कि अब सुनना न होगा. आप कहने के लिए ही बैठे हैं तो क्यों बोलते हैं कि कहना न होगा. एंकर कहने के लिए बैठा है या नहीं कहने के लिए बैठा है. ग़ौरतलब है आप सुन कैसे लेते हैं. पता ही नहीं चलता है किस पर ग़ौर करना है और तलब किस चीज़ की लगी है. ज़ाहिर है जैसे ही कोई एंकर बोलता है, लगता है कि बस अभी तक जो बोल रहा था कुछ ज़ाहिर नहीं था. अब जाकर ज़ाहिर हुआ है. ऊंट किस करवट बैठेगा से बचें. और अब देखना ये है के बिना जो भी एंकरिंग करेगा उसे मैं दस रुपये की टॉफी दूंगा. तस्वीर का रुख या तस्वीर साफ या तस्वीर बनती हुई दिखाई दे रही है. ख़ास तौर पर और आम तौर पर जैसे ही आता है दिमाग़ इस बात में उलझ जाता है कि क्या एंकर के दिमाग़ में ये बात साफ है कि कौन सी बात आम है और कौन सी ख़ास क्योंकि वो साफ़ तौर पर भी इस्तमाल करता है. रू-ब-रू सुनते ही लगता है कानपुर भाग जाएं. बेबाक बोल, इशारे-इशारे में, इन सबसे कौन है जो हम एंकरों को मुक्त कर सकता है. वैसे कोई मुक्त होना नहीं चाहता फिर भी.

कांटे की टक्कर, ये सुनकर ही लगता है कि एग्ज़िट पोल फ़र्जी है. पटखनी, चित्त ये सब तो न जाने कितने ऐसे हैं जिनके कारण हमारी भाषा मरती हुई लगती है. ऐसा लगता है कि मोदी जीते या अखिलेश जीते हम चुनाव को इन्हीं सब मुहावरों से समझेंगे. नेता भी बोलने लगे हैं और अब आप किसी के सामने माइक लगाइये वो भी इन्हीं सब मुहावरों में बोलने लगता है. एक तरह से देखेंगे कि टीवी और अखबार की भाषा लोगों की ज़ुबान पर चढ़ने लगती है. आम लोग भी उसी तरह सोचने बोलने लगते हैं जिस तरह अखबार और टीवी से सीखते हैं. अब यहीं बस करते हैं वरना हमारे साथी लोग नाराज़ हो जाएंगे पर ये जुमले हमारे चैनल के एंकर भी करते हैं, मैं ख़ुद करता हूं. मैंने कुछ कोशिश की है. चुनाव लड़ चुके कुछ उम्मीदवारों से पूछा है कि क्या वे अपनी कुछ बात कह सकते हैं जो जनता के सामने नहीं कह सके, कि नाराज़ हो जाएगी तो वोट न दे. क्या वे अंत:करण की आवाज़ आप तक पहुंचाना चाहेंगे. उसमें कितनी ईमानदारी होगी, हमने ऐसा कोई पैमाना नहीं बनाया है. स्क्रोल वेबसाइट पर आज समाजवादी पार्टी के थाना भवन से उम्मीदवार सुधीर पंवार का लेख पढ़ा. इस लेख को आपको भी पढ़ना चाहिए. सुधीर पंवार जीव विज्ञान के प्रोफेसर हैं और समाजवादी पार्टी से लड़ने गए. उन्होंने चुनावी अनुभव जिस तरह से बयां किया है, पढ़कर लगता है कोई कांटे चुभा रहा है.

पंवार कहते हैं, 'मैंने रातों रात हिन्दुओं और मुसलमानों को उन उम्मीदवारों के हक में बंटते हुए देखा जो अपने अपने समुदाय के गौरव का प्रतीक बन गए थे. जब चुनाव लड़ने पहुंचा तो ज़िलाध्यक्ष ने बग़ावत कर दी. कार्यालय पर ताला लगाकर चला गया. ज़िला यूनिट की बैठक बुलाकर निर्देश दिया कि मेरा विरोध किया जाए. यही नहीं, मेरे क्षेत्र की दो पार्षद मुसलमान थे और सपा के थे. लेकिन उन लोगों ने भी मेरा विरोध कर दिया क्योंकि अगर वे हिन्दू उम्मीदवार का समर्थन करते तो अगले चुनाव में मुसलमानों का वोट उन्हें नहीं मिलता. मैं सांप्रदायिक सद्भावना के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहा था. कागज पर समीकरण मेरे पक्ष में थे लेकिन हकीकत में कुछ और था. स्थानीय नेताओं ने मदद करने की पहल की लेकिन वोट ट्रांसफर कराने के लिए पैसे मांगे, शराब की मांग की. मैंने मना कर दिया. मेरा अनुमान है कि उन्होंने दूसरे उम्मीदवारों से ऐसी डील कर ली.'

राजनीति का यह वो यथार्थ है जो किसी एग्ज़िट पोल में नहीं आता है. अगर चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवार अपने अनुभवों को लिखें तो शायद मतदाताओं को भी समझने का मौका मिलेगा और चुनाव के वक्त स्थानीय कार्यकर्ताओं का क्या व्वयवहार होता है. हम अक्सर कहते हैं कि नए लोगों को राजनीति में जाना चाहिए मगर दिक्कत यह है कि ऊपर से तो नए लोग भेजे जाते हैं मगर नीचे जो पुराने होते हैं वो चुनाव को उस तरह से नहीं देखते हैं जिस तरह से हम और आप देखते हैं. यूपी की जनता ही ईमानदारी से बता सकती है कि नोटबंदी के इस दौर में शराब बंटी या नहीं. नोट बंटे या नहीं. वैसे चुनाव आयोग ने चुनावी राज्यों में 112 करोड़ कैश पकड़े हैं. बहरहाल सुधीर पंवार के लेख को पढ़ते हुए हमें आइडिया आया कि क्यों न कुछ उम्मीदवारों से पूछा जाए कि वो कौन सी बात है जो चुनाव लड़ते समय उन्हें दुखी कर रही थी. जो वो उस वक्त वोट छिटक जाने के डर से नहीं कह पा रहे थे. राजनीति उनके लिए घुटन लग रही थी. कम समय में हम जितने भी उम्मीदवारों तक पहुंच सके उन्होंने जिस हद तक अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सामने रखी है वो हम आपके सामने रखना चाहते हैं. इसके लिए हमने कंफेशन बाक्स बनाया है. चर्च में गुनाह कबूल करने के लिए कंफेशन बाक्स होता है. तो आप सुनिये कि ये उम्मीदवार क्या कहते हैं. उनके हवाले से आज की राजनीति के यथार्थ कैसे हैं.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
प्राइम टाइम, Prime Time, रवीश कुमार, Ravish Kumar, विधानसभा चुनाव 2017 परिणाम, Assembly Polls 2017 Results
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com