आप मानें या न मानें, कहने में बुरा लगेगा, थोड़ी तकलीफ भी होगी। ऐसा नहीं है कि पानी की रेल चलाने से लोगों को राहत नहीं पहुंच रही लेकिन पानी की रेल से कितने लोगों को राहत पहुंच रही है, अब एक सख्त सवाल पूछने का वक्त आ गया है। क्या पानी की रेल पूरे सूखाग्रस्त इलाके को कवर करती है या किसी खास शहर तक। जिस शहर में जाती है क्या उस शहर में पानी के वितरण को लेकर स्थिति में बदलाव आया है। महाराष्ट्र सरकार ने अब तक 4500 करोड़ रुपये सूखा राहत में लगा दिये हैं। उनका क्या नतीजा आया है। क्या लोगों को राहत मिल रही है। हम सिर्फ सरकार की वाहवाही या निंदा के फ्रेम में ही सारा कुछ देखने के आदी होते जा रहे हैं। आपको खुद भी सोचना चाहिए कि पानी की रेल और सूखा ग्रस्त इलाकों में पहले से चल रहे पानी के टैंकरों में क्या अंतर है।
जैसे पानी की रेल जब लातूर पहुंची तो इसे एक बड़े प्रयास के रूप में दिखाया गया। लेकिन उसी लातूर शहर में सैकड़ों पानी के टैंकर चल रहे थे। फर्क यही है कि वे सारे टैंकर अलग अलग ट्रैक्टरों से खींचे जा रहे थे। पानी की रेल एक कतार में टैंकरों को खींचती हुई चली आ रही थी। इसमें कोई शक नहीं कि दूसरी जगह से पानी भर कर लाने में एक मज़बूत सरकारी इरादा दिखता है लेकिन क्या यह सवाल पूछने का वक्त नहीं आ गया है कि इसके पहुंचने से लातूर शहर में ही क्या बदलाव आया। लातूर शहर की आबादी 5 लाख है। क्या आप जानते हैं कि पानी की रेल सिर्फ लातूर शहर के लिए चली है। गांवों के लिए नहीं चली है। 2011 की जनगणना के अनुसार लातूर के गांवों में 18 लाख की आबादी रहती है। तो यह पानी की रेल चली है 5 लाख की शहरी आबादी के लिए। 18 लाख की ग्रामीण आबादी के लिए क्या हो रहा है इसका कोई वीडियो चलते हुए आपको नहीं दिखेगा। पानी की रेल को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे इसने पहुंच कर पूरे लातूर की आबादी की प्यास बुझाने का काम किया हो। सांतिया ने बताया कि कुछ ही दिन के भीतर टैंकरों के दाम भी बढ़ गए हैं। एक टैंकर का औसत दाम हो गया है 1500 रुपये जो कुछ दिन पहले तक 1200 रुपये था और फरवरी में 500 रुपये प्रति टैंकर था।
इसलिए ज़रूरी है कि जो तस्वीर आप देख रहे हैं या जिसकी बार बार बात हो रही है उसे खुरच कर उसकी परतों को भी देखें। यह भी समझिये कि सूखा सिर्फ लातूर में नहीं पड़ा है। लातूर के आसपास के ज़िले परभणी, बीड़, उस्मानाबाद में भी सूखा है लेकिन किसी वजह से सूखे की चर्चा और समाधान के प्रयास का केंद्र लातूर ही बन गया है। इसमें मीडिया की भी कमी हो सकती है लेकिन आपको प्रिंट से लेकर टीवी तक का हिसाब करना होगा। कई पत्रकार लातूर के अलावा भी अन्य जगहों पर गए हैं। पानी की रेल गई भी तो शहर के लिए। गांव के लिए क्या हुआ। यह सोचियेगा क्योंकि सांतिया ने जब लातूर के ज़िला प्रशासन से फोन पर बात की तो उनसे यही कहा गया कि पानी की रेल सिर्फ लातूर शहर के लिए है। तो हमने यही जानने का प्रयास किया कि लातूर शहर के हालात में ही पानी की रेल से क्या बदलाव आया।
लातूर के 5 लाख शहरी के लिए कितने लाख लीटर पानी की आवश्यकता है। इस पर ज़िला प्रशासन कहता है कि शहर को हर दिन ढाई करोड़ लीटर पानी चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ता अतुल देओलेकर का कहना है कि 5 करोड़ लीटर पानी की ज़रूरत है। सिटी कलेक्टर ने हमारी सहयोगी सांतिया को बताया कि इस वक्त अलग अलग ज़रिये से एक करोड़ 20 लाख लीटर पानी की सप्लाई है। इसमें से तीस से चालीस लाख लीटर पानी बोरवेल से आ रहा है। 25 लाख लीटर पानी रेल से आ रहा है। बांध और चेकडैम से चालीस लाख लीटर पानी आ रहा है। पांच लाख लीटर पानी बांध और नदियों की तलहटी की खुदाई कर निकाला जा रहा है। 18 लाख की ग्रामीण आबादी के लिए पानी की रेल नहीं चली है। चली है सिर्फ पांच लाख शहरी आबादी के लिए। गांव के लोगों का सबसे बड़ा कसूर है कि वे ट्वीटर पर नहीं हैं और उन्हें हैशटैग चलाना नहीं आता है। ख़ैर। ढाई करोड़ लीटर पानी चाहिए और इंतज़ाम है 1 करोड़ 20 लाख लीटर पानी का। प्रशासन के दावे के अनुसार जिनता ज़रूरी है उसका आधा पानी ही उपलब्ध है।
स्थानीय लोगों ने सांतिया को बताया कि पहले भी निगम वाले पानी का टैंकर आठ से दस दिन के अंतर पर भेजते थे। आज भी आठ से दस दिनों के अंतर पर ही पानी मिल रहा है। प्रशासन का कहना है कि इस वक्त लातूर शहर के लोगों को पानी चार से पांच दिनों के अंतर पर मिल रहा है। सूखे के वक्त पानी का हिसाब सामान्य दिनों से काफी कम लगाया जाता है। इस वक्त के सरकारी पैमाने के अनुसार एक आदमी को हर दिन 20 लीटर पानी दिया जाता है। एक परिवार में चार लोग हुए तो 80 लीटर पानी रोज़ मिलेगा। यह पानी सिर्फ पीने और खाना बनाने के लिए होता है। दस दिन के अंतर से टैंकर आएगा तो 800 लीटर चाहिए। लेकिन निगम की तरफ से दस दिन पर 200 लीटर पानी दिया जा रहा है।
पानी चाहिए एक ग्लास। सरकार पहुंचा रही है एक कटोरी। ज़ाहिर है सरकार के पास समंदर तो है नहीं लेकिन पानी की रेल को समंदर भी न समझा जाए। यह भी समझिये कि आठ से दस दिन में जो टैंकर आते हैं वो दो से तीन दिन का ही पानी देकर जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सरकारें प्रयास नहीं कर रही होंगी लेकिन आपको समझना यह है कि क्या यह प्रयास पर्याप्त है, कितना बुनियादी हल है, कितना नाम के लिए और कितना दिखावे के लिए। पानी की रेल तो एक ही जगह चली लेकिन ऐसे दिखाया जा रहा है जैसे सारे सूखाग्रस्त ज़िलों में चल रही है। सांतिया ने प्रशासन से बात कर बताया कि लातूर के करीब 940 गांवों में 17 लाख की आबादी रहती है। गांवों के लिए पानी की रेल नहीं चली है लेकिन सूखा घोषित होने पर 9 चरण यानी 9 काम तय किये गए हैं। इसके तहत नए बोरवेल की खुदाई होती है। पुराने बोरवेल की मरम्मत की जाती है। पहले से मौजूद बोरवेल को गहरा किया जाता है। कुओं की सफाई होती है। हैंडपंपों की मरम्मत की जाती है। अस्थायी तौर से पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है। लातूर प्रशासन ने सांतिया को फोन से बताया कि पहले सात चरणों के मुताबिक 500 चीजें कर चुके हैं। आठवां काम होता है प्राइवेट बोरवेल को किराये पर लेना। लातूर प्रशासन ने 1200 प्राइवेट बोरवेल किराये पर लिये हैं। 9वां काम है टैंकरों के ज़रिये पानी पहुंचाना। प्रशासन ने 250 गांवों के लिए टैंकर लगाए हैं जिनकी क्षमता 12 हज़ार लीटर से 25,000 होती है। आपको अभी-अभी तो बताया कि 940 गांव हैं लातूर में। 250 गांवों में टैंकर से पानी पहुंचाने की बात हो रही है। इतने दिनों में प्रशासन को कहना चाहिए था कि हमने सारे गांवों के लिए इंतज़ाम किया है। सांतिया जब कुछ दिन पहले ग्रामीण इलाकों को कवर करने गईं थी तब कई गांवों में लोगों ने बताया कि सात सात दिन पर टैंकर आता है। तभी तो टैंकरों के पानी के लिए मारामारी हो रही है।
अब आप खुद से याद कीजिए। बाढ़ के समय आपने देखा होगा कि हेलिकाप्टर से राहत सामग्री का पैकेट गिराया जाता है। नीचे कई लोग खड़े हाथ फैलाते हैं। सामान गिराया जाता है और कुछ लोगों के हाथ लगता है और कुछ लोगों के नहीं। हेलिकाप्टर आगे बढ़ जाता है। पानी की रेल की हालत भी यही है। यह टीवी पर तो कमाल का दृश्य पैदा करती है मगर सबकी प्यास नहीं बुझाती है।
हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा दिल्ली के जंतर मंतर पर गए। वहां पर तेरह राज्यों से आए किसानों ने आज से प्रदर्शन शुरू किया है। ये सभी सूखाग्रस्त इलाकों से चलकर दिल्ली आए हैं। सैकड़ों की संख्या में महिला और पुरुष किसान यहां आए हैं। आप सभी को जंतर मंतर जाकर इन किसानों से खुद भी बात करनी चाहिए कि सूखे से उनके जीवन पर क्या असर पड़ता है। सुशील महापात्रा को मध्यप्रदेश से आई एक बुज़ुर्ग महिला ने अपनी हथेली दिखाई। महिला ने कहा कि दूर दूर से पानी का बर्तन भर कर लाने से हाथ में छाले जैसे पड़ गए हैं। महिला ने बताया कि उसे पानी लाने के लिए चार घंटे तक पैदल चलना पड़ता है। साठ साल की उम्र में किसी को चार घंटे पैदल चल कर पानी लाना हो तो उसकी तकलीफ के आगे पानी की रेल का वीडियो दिखाना एक मज़ाक से कम नहीं है। कम से कम यह पानी की रेल यह बताये कि इसके आने से लोगों का पानी के लिए चार चार घंटे पैदल चलना बंद हो गया है। गुजरात से आई एक महिला भी यही शिकायत कर रही थी। इन्होंने बताया कि पंद्रह किमी तक पानी के लिए चलना पड़ता है। आपको वाकई हैरानी होनी चाहिए और बिल्कुल यकीन नहीं करना चाहिए कि पानी के लिए किसी को पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है। तभी तो ये महिलाएं आईं हैं आपको दिखाने और बताने के लिए। कई लोग बात करते हुए भावुक हो गए और क्रोधित भी।
खैर पानी की रेल एक और जगह गई है। आप जानते हैं मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में भयंकर सूखा है। बुंदेलखंड के लिए आज केंद्र सरकार ने पानी की एक ट्रेन झांसी भेज दी। किसी ने यह तक नहीं देखा कि जो टैंकर झांसी स्टेशन पर खड़े हैं वो खड़े हैं या नहीं लेकिन राजनीति शुरू हो गई। यूपी के मुख्यमत्री अखिलेश यादव ने पानी की रेल लेने से मना कर दिया। राज्य सरकार की तरफ से कहा गया कि पानी की रेल भेजने से पहले किसी ने ज़िला प्रशासन से पूछा तक नहीं कि पानी चाहिए या नहीं। अगर यह तथ्यात्मक रूप से सही है तो कायदे से राज्य को बताना तो चाहिए था। यूपी सरकार का कहना है कि ट्रेन पहुंचने के बाद रेलवे ने सूचना दी। यही नहीं अखिलेश सरकार ने 10000 टैंकर मांगे थे। पानी नहीं। पानी राज्य के पास है।
बीजेपी ने भी जवाब देने में देरी नहीं की। बीजेपी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि राज्य सरकार को पानी पर राजनीति नहीं करनी चाहिए, जब पानी की ट्रेन गई है तो पानी को वापस करना ग़लत है। जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने भी कहा कि बुंदेलखंड के बीजेपी सांसदों ने अपने इलाकों में पानी की किल्लत की बात कही थी जिसके बाद पानी भेजा गया। उमा भारती ने अखिलेश सरकार को इस सिलसिले में एक चिट्ठी भी लिख दी, लेकिन शाम होते होते पता चला कि जो ट्रेन झांसी गई है वो तो खाली है। उसमें पानी नहीं है। ख़ाली टैंकर को लेकर इतना बवाल हो गया है। टीवी चैनलों पर सबके इंटरव्यू चलने लगे और जमकर आरोप-प्रत्यारोप हो गए जैसे सूखे को लेकर मतदान होने वाला है।
झांसी के ज़िलाधिकारी अजय शुक्ला कई लोगों के सामने टैंकरों को ठोक ठोक कर बताने लगे कि ट्रेन तो खाली आई है। इसमें पानी नहीं है। जबकि बीजेपी प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा कि पानी की रेल आई है तो पानी लेना चाहिए। उमा भारती ने कहा कि बीजेपी सांसदों ने अपने इलाकों में पानी की कमी की बात कही थी जिसके बाद पानी भेजा गया है। दोनों ही बातों की जांच होनी चाहिए। क्या पानी सांसदों की मांग पर भेजा गया। क्या रेल मंत्रालय ने ज़िला प्रशासन को पहले सूचना दी थी या नहीं। क्योंकि लातूर के अनुभव से आपने देखा कि पानी की रेल अब एक विजुअल सिंबल बन गई है। इसका एक शानदार सीन बनता है कि रेल से पानी पहुंचा दी गई है।
दिल्ली ने भी महाराष्ट्र को पानी भेजना का प्रस्ताव दिया था। काफी मज़ाक उड़ा और महाराष्ट्र सरकार ने मना भी कर दिया। सूखा तो मध्य प्रदेश में भी है। मध्य प्रदेश के रतलाम से टैंकर झांसी चले गए। क्या मध्यप्रदेश के इलाकों में गए। यूपी में चुनाव भी तो होने वाला है। दोनों पक्षों ने तथ्यों का सही पता लगाए बहस को जन जन तक पहुंचा दिया ताकि मैसेज जाए कि सूखाग्रस्त इलाकों के लिए बड़ा भारी काम किया जा रहा है।
सूखे का मतलब सिर्फ पानी का संकट नहीं है। रोज़गार का भी संकट है। खेती नहीं हुई है। किसान का कर्ज़ा बढ़ गया है। महाराष्ट्र सरकार ने तय किया है कि 30 मई को चुकाए जाने वाले कर्ज को अब अगले पांच साल तक चुकाया जा सकेगा। सरकार पहले साल का 12 फीसदी ब्याज भी भरेगी। इस पर पांच हज़ार करोड़ खर्च होंगे। लातूर के अतुल देवलेकर ने एक गांव में सर्वे किया है। उन्होंने पाया कि एक गांव में 55 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो आत्महत्या के कगार पर हैं। उनके पास न तो आमदनी है न आमदनी की आस। बारिश हो भी जाए तो वे क्या करेंगे। सरकार ने कुछ जगहों पर सूखाग्रस्त इलाकों में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मुआवज़ा बांटे हैं लेकिन यह मुआवज़ा सिर्फ ज़मीन के मालिकों को मिलता है। ज़मीन पर काम करने वाले भूमिहीन मज़दूरों या गांव के अन्य लोगों को नहीं मिलता है।
महाराष्ट्र सरकार ने कई कदम उठाये हैं। इसमें 2019 तक कई गांवों को सूखामुक्त करने का भी अभियान चलाया जा रहा है। आमिर ख़ान महाराष्ट्र के अमरावती पहुंचे। आमिर खान मिट्टी से भरे तसले को एक दूसरे को पकड़ा रहे हैं। यहां तालाब की खुदाई का काम चल रहा है। आमिर ख़ान और किरण राव का एक पानी फाउंडेशन है। महाराष्ट्र सरकार ने इनके साथ भी मिलकर एक योजना बनाई है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की योजना है जिसका नाम है जलयुक्त शिविर। आमिर खान महाराष्ट्र के अलग-अलग ज़िलों में घूमकर पानी संरक्षण और सूखा राहत का जायज़ा ले रहे हैं। आमिर ने सत्यमेव जयते के दौरान सत्यमेव जयते वाटर कप प्रतियोगिता का एलान किया था। इसमें जो भी कार्यकर्ता सबसे अधिक पानी बचाने में कामयाब रहेगा उसे सम्मानित किया जाएगा।
नाना पाटेकर और अक्षय कुमार ने किसानों की मदद की बात तभी शुरू कर दी थी जब सरकारें कागज़ पर ड्राईंग बना रही थीं। मसान फिल्म के निर्देशक नीरज घहवान और गीतकार वरुण ग्रोवर ने अपनी पुरस्कार राशि से सूखाग्रस्ता इलाकों में राहत पहुंचाने का एलान किया है। नीरज को सवा लाख की पुरस्कार राशि मिली है जिसमें से वो पचास हज़ार रकम दे रहे हैं। वरुण ग्रोवर को पचास हज़ार की राशि इनाम में मिली है और वो अपनी पूरी राशि दे रहे हैं। वरुण ग्रोवर देश के सबसे बड़े उद्योगपति हैं। इनका कोराबार पचास हज़ार करोड़ से लेकर सवा लाख करोड़ तक का है। यह बात मैंने तंज में कही है कि क्या आपने किसी उद्योगपति की ऐसी कोई घोषणा सुनी है। इसलिए वरुण और नीरज के एक लाख रुपये का महत्व काफी है।
इन सब प्रयासों से यह होगा कि सरकार के अलावा समाज के लोग भी आगे आएंगे। ठीक है कि हम सरकार की जवाबदेही को लेकर सख्त रहते हैं और रहना भी चाहिए लेकिन सूखा इतना व्यापक है कि सबको कुछ न कुछ करना होगा। कई लोग काफी कुछ करना चाहते हैं मगर उन्हें पता नहीं किसके ज़रिये क्या कर सकते हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसी कोई विश्वसनीय व्यवस्था बनाए ताकि दूर बैठे लोग भी इस प्रयास से जुड़ सकें। कई राज्यों में सूखा पड़ा है। लेकिन चर्चा कुछ ही जगहों की हो पा रही है।
अब आपको बताते हैं कि देश में जलाशयों का क्या हाल है। देश में कुल 91 बड़े जलाशय हैं, जिन्हें सेंट्रल वॉटर कमीशन मॉनीटर करता है। आज की हालत ये है कि इनमें से 7 बड़े जलाशयों में इस्तेमाल के लायक पानी नहीं बचा है, जबकि 22 ऐसे जलाशय हैं जिनमें क्षमता का 10 फीसदी से भी कम पानी है। इसका मतलब ये है कि एक तिहाई जलाशयों में ये तो पानी नहीं है या दस फीसदी से कम है। भारत के कृषि मंत्रालय ने देश भर में भूमिगत जल की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की है। फरवरी 2016 की रिपोर्ट है जिस पर रूपल सुहाग का नाम लिखा है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने इस रिपोर्ट का अध्ययन कर कुछ बातों को बिन्दुवार रखा है ताकि हम सब जो जल्दी जल्दी में हैं समझ सकें कि समस्या क्या है और करना क्या है। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन और अमरीका की तुलना में भारत के किसान दोगुना पानी का इस्तोमाल करते हैं अनाज उगाने के लिए।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत बड़ी ही तेज़ी से जल संकट की ओर बढ़ रहा है। क्योंकि हम लगातार भूमिगत जल का ज़रूरत से ज़्यादा दोहन करते जा रहे हैं। पानी की गुणवत्ता भी ख़राब हो रही है। भारत में सरफेस वॉटर यानी नदी-नहरों के पानी की उपलब्धता ज़्यादा है लेकिन ये सभी जगहों पर एक समान तरीके से मौजूद नहीं है। नतीजा ये है कि भूमिगत जल का 89% सिंचाई में इस्तेमाल होता है। किसी भी दूसरे देश के मुक़ाबले ये कहीं ज़्यादा है जो काफ़ी ख़तरनाक साबित होने जा रहा है। शहरी इलाकों की 50% पानी की ज़रूरत भूमिगत जल से पूरी होती है, जबकि ग्रामीण इलाकों की 85% पानी की ज़रूरत भूमिगत जल से पूरी होती है।
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 1950 में भूमिगत जल से 30% सिंचाई होती थी लेकिन 2009 तक 61.6% इलाके में सिंचाई भूमिगत जल से हो रही है जबकि नदी, नहरों से होने वाली सिंचाई क़रीब 25% रह गई है। आप सभी को इंडियन एक्सप्रेस में छपे हर्ष मंदर का लेख पढ़ना चाहिए। अंग्रेज़ी में है लेकिन यह लेख हमें कई चीज़ों को समझने में मदद कर सकता है। हमने अकाल और भूखमरी की समस्या पर जीत हासिल की है। किसी वजह से हम सूखे से होने वाली बर्बादी को लगातार अनदेखा कर रहे हैं।
हर्ष मंदर लिखते हैं कि आखिर क्या बात है कि हम सूखे के इन दृश्यों को देखकर बेचैन नहीं होते। लोगों में गुस्सा नहीं आता है। इस एक बात पर आपके एंकर की दूसरी राय है। समस्याओं से भरे इस देश में हर बात के लिए लोगों की तरफ लौटना भी ठीक नहीं है। किसी मसले की सार्थकता तभी पूरी नहीं होती जब बड़े पैमाने पर लोग उत्तेजित ही हों। ज़रूर लोगों को दिलचस्पी लेनी चाहिए और भारत में चल रही तीस प्रकार की सरकारों से पूछना चाहिए। मगर इन सवालों से हम यह न समझें कि सरकारों की भूमिका कम हो गई है। अगर सरकार के पास लोग कम हैं तो सरकारों को नौकरियां बढ़ाकर अपनी जवाबदेही पूरी करनी चाहिए। यह ठीक नहीं है कि स्वच्छता के लिए हम लोगों के लिए ताकें। नैतिकता के लिए हम लोगों की तरफ ताकें और सूखे से निपटने के लिए भी। यह दलील लंबी चली तो एक दिन सरकारें मिलकर लोगों का चुनाव करेंगी कि आप ही दूर कर लीजिए समस्याओं को। लोग सरकार चुनते हैं और सरकार को ही नेतृत्व करना होगा।
बड़ा सवाल है कि क्या हम सूखे के असर को समझते हैं। हर्ष मंदर ने लिखा है कि लगातार तीसरे साल सूखा पड़ा है। इसलिए इस बार इसका प्रभाव ज़्यादा गहरा दिख रहा है। खेती खत्म हो गई है। खेती की स्थिति सुधरने में लंबा वक्त लगेगा। हम यह न समझें कि इन इलाकों में बारिश होते ही अगले दिन से सब ठीक हो जाएगा। 55 फीसदी परिवारों के पास ज़मीन नहीं है और वो पूरी तरह शारीरिक श्रम करके अपने परिवारों का पेट पालते हैं। शहरों में भी काम कम है। लोगों को भरपेट खाना नहीं मिल रहा है। हर्ष कहते हैं कि सरकारी गोदामों में 5 करोड़ से 8 करोड़ टन अनाज भरा हुआ है। यहां तक कि औपनिवेशिक सरकारें भी ऐसी स्थिति में फेमीन कोड्स से गाइड होती थीं। गाइडलाइन होती थी कि उन सभी लोगों को कम पैसे पर नौकरी दी जाए, उनसे सार्वजनिक काम कराये जाएं ताकि गुज़र बसर चल सके। बच्चों, बूढ़ों को खाना देने, मवेशियों के लिए चारे का इंतज़ाम करने और पानी को लाने ले जाने के काम उनसे जोड़े जाते थे। सरकार को मनरेगा पर और ज़ोर देना चाहिए और गांव गांव में रोज़गार पैदा करने का अभियान चलाना चाहिए। ऐसा होता दिखता नहीं है।
सबको इस साल बेहतर मॉनसून की उम्मीद है। लेकिन आप सोचिये और अपने आसपास के इलाके की ओर नज़र दौड़ाइये कि क्या हम अच्छे मॉनसून का फायदा उठाने के लिए तैयार हैं। बारिश का पानी रोकने के लिए क्या उपाय किये गए हैं। इस पर सरकार को भी सोचना है और समाज को भी।
This Article is From May 05, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : पानी की रेल सिर्फ़ लातूर के लिए ही क्यों?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मई 05, 2016 21:44 pm IST
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Published On मई 05, 2016 21:39 pm IST
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Last Updated On मई 05, 2016 21:44 pm IST
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