'चले जाओ मेरा देश छोड़कर'. इस तरह की सनक ने भारतीयों का पीछा करना शुरू कर दिया है. इन्हें किस हद तक बढ़ा-चढ़ा कर देखा जाए या ऐसी घटनाओं से आतंकित हुआ जाए या राष्ट्रपति ट्रंप के आश्वासन के बाद कितना निश्चिंत हुआ जाए, यहां बैठकर उसकी कल्पना करना ठीक नहीं. मगर बात होनी चाहिए, अगर आपका मन यूपी की नौटंकियों से नहीं भरा है तो इस पर बात कर सकते हैं कि जिन बच्चों के इंजीनियर बनाने में आपने लाखों खर्च किए, उनके सपने पर 'मेरा देश मेरी नौकरी' टाइप की कुंठित राजनीति का असर पड़ा तो क्या होगा. मीडिया का ऐसा हाल आपने किया है या आपके लिए मीडिया ने अपना कर लिया है, इस पर आप ही बेहतर बता सकते हैं. मीडिया की ऐसी कोई सच्चाई अब आपसे नहीं छुपी है, अगर आप भारत के लोकतंत्र के लिए इसी तरह का मीडिया बेहतर समझते हैं तो जरूर आपने कुछ गंभीरता से सोचा ही होगा. क्योंकि आप समझदार हैं, जागरूक हैं, इस बात को लेकर मुझे कभी शक नहीं रहा. बहरहाल, भारतीय उद्योग जगत के लोग न यहां की सरकार पर सवाल उठा सकते हैं, न अमरीका की सरकार पर. हर हाल में उम्मीद जताना और ख़तरों को कम बताना उनकी मजबूरी भी है और उनके लिए ज़रूरी भी है. आप किसी भी उद्योगपति से बात कीजिए, वो संकट के शीर्ष पर बैठा होगा, बात ऐसे करेगा जैसे बसंती हवा चल रही हो, लेकिन भीतर ही भीतर वो छंटनी करने में लगा रहेगा, सैलरी कम करने के तरीके खोजता रहेगा. जब तक बैठ नहीं जाता, डूब नहीं जाता तब तक वो ख़तरे को ख़तरा नहीं बताता है. वो हर ख़तरे को अवसर बताता है. फिर भी अमरीका में जो घट रहा है, उसे लेकर सरकार चिंतित न होती तो विदेश सचिव अमरीकी प्रशासन के पास अपनी बात रखने नहीं गए होते.
H1-B immigrant worker visa. ये एक तरह की तत्काल सेवा है. 15 दिन के भीतर 1225 डॉलर की फीस देकर अमरीका के लिए वीज़ा मिल जाता है. अमरीका ने 3 अप्रैल के बाद इस तत्काल सेवा पर रोक लगा दी है. इस वीज़ा के तहत हर साल 85,000 पेशेवर को वीज़ा दिया जाता है. एक अनुमान के अनुसार इसका 75 फीसदी भारतीय लाभ उठा लेते हैं. अनुमान के अनुसार तीन लाख भारतीय H1-B वीज़ा पर अमरीका में काम कर रहे हैं.
जब आपकी बेटी या बेटे का फोन आता है कि अगले महीने अमरीका जाना है तो कैसा लगता है. यही सोचते होंगे कि बड़ा मौका मिला है, बड़ी संभावनाओं के करीब आपके बच्चे जा रहे हैं. जब आपको पता चले कि वहां की सरकार ऐसी नीति बना रही है जिससे उसके वहां जाने की संभावना पहले से कम हो जाए तो कैसा लगेगा. विप्रो, एचसीएल टेक्नोलॉजी, टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज जैसी बड़ी कंपनियां हर महीने सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को भेजती हैं. अब कहा जाता है कि इस वीज़ा के सहारे भारतीय इंजीनियर कम पैसे पर काम करते हैं, अमरीकी इंजीनियरों को कम मौका मिलता है. अब यहां एक सवाल अपने पैनलिस्ट से पूछूंगा कि क्या अमरीका भारत के जितना या भारत के जैसा इंजीनियर पैदा करता है. ऐसा नहीं है कि भारत ने प्रयास नहीं किया. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अधिकारी अमरीकी प्रशासन से मिलकर अपनी बात समझाते रहे, उन्हें उम्मीद भी थी लेकिन वीज़ा पर छह महीने का रोक लगाकर अमरीका यह संकेत दे रहा है कि फिलहाल अपनी नीति पर चलेंगे.
भारत की कुल जीडीपी का 9 प्रतिशत आईटी सेक्टर से आता है. भारत-अमरीका के रिश्ते के बीच यह बिजनेस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इंफोसिस जैसी कंपनी का आधा राजस्व अमरीका से मिलने वाले बिजनेस पर निर्भर करता है. यहीं पर एक सवाल बनता है कि क्या भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए अमरीका के अलावा कोई और बड़ा बाज़ार है. इस वक्त उनको किस देश के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों से चुनौती मिल रही है और इसका भारत में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ रहे लाखों छात्रों पर क्या असर पड़ेगा. रिपब्लिकन सिनेटर ने बिल पेश किया है कि जो भी बाहर से अमरीका आए उसे कम से कम एक लाख डॉलर की सैलरी दी जाए. यानी सैलरी इतनी ज़्यादा हो कि कंपनियां मजबूर हो जाएं कि वे सस्ते भारतीय इंजीनियरों की जगह अमरीकी इंजीनियरों को मौका दें. अमरीका में भारतीय इंजीनियरों को रोकने के लिए या बाहरी इंजीनियरों को रोकने के लिए एक बिल भी पेश किया गया है ताकि कंपनियां अमरीकी इंजीनियरों को ज्यादा प्राथमिकता दें. अमरीका के श्रम विभाग ने सॉफ्टवेयर कंपनी ऑरेकल पर मुकदमा भी किया है कि कंपनी ने श्वेत, हिस्पानिक, अफ्रीकी अमरीकी लोगों को कम नौकरियां दी हैं और एशियाई, खासकर भारतीयों को ज़्यादा प्राथमिकता दी है.
भारतीय कंपनियां अमरीकियों को भर्ती करने लगें तो भारतीय इंजीनियरों का क्या होगा. यह भी एक सवाल है. कंपनियां तो फलती-फूलती रह जाएंगी, मगर इनमें नौकरी पाने की उम्मीद लिये जो नौजवान कॉलेजों में हैं उनकी गाड़ी कहां फंसेगी. क्या भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों ने इस तरह का भर्ती अभियान शुरू कर दिया है कि भारतीयों की जगह अब अमरीकी लोगों को रखा जाए. आखिर विदेश सचिव और उनकी टीम की कोशिशों के बाद भी अमरीकी प्रशासन ने भारत का पक्ष क्यों नहीं सुना. कई लोग कह रहे हैं कि तत्काल सेवा टाइप वाली वीज़ा पर छह महीने की रोक अस्थायी है. पुरानी कमियों को ठीक किया जा रहा है. मगर अमरीका ने अपनी तरफ से ऐसा कुछ नहीं कहा है. ऐसे में भारतीय कंपनियों के अलावा इंजीनियरों को क्या करना चाहिए. क्या उन्हें इस तरह की मानसिकता के खिलाफ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए. अगर इंजीनियर अपने मुल्क में ऐसी बातों का समर्थन करेंगे तो अमरीका को लेकर विरोध कहां करेंगे. उनका साथ कौन देगा. पर दुनिया में सब चुप नहीं हैं
इसी 16 फरवरी को अमरीका भर के इमीग्रेंटस ने अपने आपको एक दिन के लिए काम से दूर रखा. इस विरोध प्रदर्शन का नाम था "A Day Without Immigrants." ट्रंप सरकार की नीति का विरोध करने के लिए बाहरी मुल्कों से आए लोगों ने अपनी एक दिन की सैलरी और मज़दूरी छोड़ दी. इस प्रदर्शन का मकसद अमरीका के लोगों को बताना था कि उनके एक दिन काम पर नहीं आने का क्या मतलब है. उनकी सेवाओं पर क्या असर पड़ेगा. इसके समर्थन में अमरीका में कई होटल रेस्त्रां वालों ने पोस्टर भी लगाए. नारा दिया कि इमीग्रेंट्स ने अमरीका को महान बनाया है. वे अमरीका को महान बनाते हैं. वे आपका खाना बनाते हैं. आपका काम करते हैं. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस प्रदर्शन में शामिल होने के कारण कुछ लोगों की नौकरियां भी चली गईं. तो यह मानसिकता कंपनियों में भी घुस गई है. 'देश से बाहर जाओ' की राजनीति का वही सुर है जो आपके भारत में बात बात में पाकिस्तान भेज देने की राजनीति के शोर में सुनाई देता रहता है.
क्या भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियां अपने बिजनेस के बदले अमरीका को कुछ नहीं देती होंगी. ऐसा तो हो नहीं सकता कि भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों के बिजनेस से अमरीका को कोई लाभ नहीं है. वहां के इंजीनियरिंग कॉलेजों में यहां से लोन लेकर पढ़ने गए छात्रों से कोई लाभ नहीं है. तथ्य क्या है. तथ्य की कोई भूमिका भी है. जब यहीं नहीं होती तो वहां हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं फिर भी यह जानना ज़रूरी है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था को भारतीय कंपनियां क्या देती हैं.
This Article is From Mar 06, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : क्या H1B वीजा से अमेरिकी पेशेवरों के साथ भेदभाव हो रहा है?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मार्च 06, 2017 21:27 pm IST
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Published On मार्च 06, 2017 21:27 pm IST
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Last Updated On मार्च 06, 2017 21:27 pm IST
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