मंदिरों और मज़ारों में प्रवेश और पूजा का अधिकार अभी तक पूरी तरह से सभी को हासिल नहीं हो सका है. हमारे समाज में आज तक छुआछूत अलग अलग रूपों में मौजूद हैं. कई बार हाउसिंग सोसायटी में अघोषित तरीके से मज़हब और जाति के आधार पर पाबंदियों के किस्से सुनने को मिलते रहते हैं. बीसवीं सदी से मंदिरों में प्रवेश के अधिकार की लड़ाई हो रही है, इक्कीसवीं सदी के 16वें साल में भी चल रही है. भूमाता ब्रिगेड और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने इस संघर्ष को फिर से ज़िंदा कर दिया है. उनकी लड़ाई इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वो उन्हीं बुनयादी सवालों को प्रेरित करती हैं कि ऐसा क्यों हैं. कई बार हम स्वीकार कर लेते हैं कि ऐसा ही हैं.
ए आर रहमान का एक गाना मशहूर हुआ है पिया हाजी अली हो. इस गाने में हाजी अली, बाबा भी हैं और पिया भी हैं. व्यापक बोलचाल की भाषा में पिया प्रेमिका को ही तो कहते हैं. सूफी परंपरा में प्रेम कब किस ऊंचाई पर प्रेमी का रूप ले लेता है और किस गहराई में प्रेमिका का यह परंपरा की बंदिश पर निर्भर नहीं करता है बल्कि बंदगी पर निर्भर करता है. हाज़ी अली की मज़ार में 2012 के पहले तक ख़वातिन जाती थीं मगर उसके बाद हाज़ी अली दरगाह ट्रस्ट ने पंरपारओं का हवाला देते हुए औरते के भीतरी हिस्से तक जाने पर पाबंदी लगा दी. यूं तो इसी इस्लामी परंपरा में इन्हीं दरगाहों को ग़ैर इस्लामी कहा जाता है लेकिन मज़हब को वो रूप जिसे लोग गढ़ते हैं उन पर लोगों का अधिकार ज्यादा होना चाहिए.
शुक्रवार को बांबे हाई कोर्ट ने कहा कि भीतरी गर्भ गृह तक औरतों को जाने देना चाहिए. दरगाह ट्रस्ट और राज्य को ज़िम्मेदारी दी गई है कि वो वहां जाने वाली महिलाओं की सुरक्षा का भी ख़्याल करेंगे. जस्टिस वी एम कनाडे और जस्टिस रेवती मोहिते देरे की बेंच ने कहा है कि महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध आर्टिकल 14, 15 और 19 का उल्लंघन है. आर्टिकल 14 में कानून की नज़र में सबको समान माना गया है, आर्टिकल 15 की नज़र में धार्मिक आधार पर भेदभाव करने की मनाही है, आर्टिकल 21 व्यक्तिगत जीवन और आज़ादी की सुरक्षा की गारंटी देता है. राज्य सरकार ने अपना पक्ष यह कहते हुए रखा था कि जब तक दरगाह ट्रस्ट यह साबित नहीं कर देता कि कुरआन के अनुसार प्रतिबंध लगा, औरतों को जाने की इजाज़त होनी चाहिए. भारतीय मुस्लिम महिला संघ ने कहा है कि मुस्लिम महिलाओं के लिए यह बड़ी जीत है. इस खुशी में तृप्ति देसाई भी शामिल हैं उन्होंने भी महाराष्ट्र के शनि शिगणापुर मंदिर में महिलाओं के धार्मिक अधिकार की लड़ाई लड़ी थी.
जो लोग नास्तिक हैं उनका यह सवाल वाजिब हो सकता है कि जिन धार्मिक परंपराओं के हवाले से औरतों पर इतनी ग़ैर बराबरी थोपी गई है वो मंदिरों और मज़ारों में जाकर कौन सी बराबरी हासिल करती हैं. जो लोग आस्तिक हैं उनका भी सवाल वाजिब है कि मंदिर या मज़ार में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं होनी चाहिए. जब वो घर में इबादत कर सकती हैं तो मंदिर मस्जिद में क्यों नहीं. दुनिया में गैर बराबरी के अनगिनत रूप हैं तो इस एक रूप को क्यों छोड़ दिया जाए. आप कल्पना कीजिए कि 1930 के मार्च महीने में क्या उत्साह रहा होगा जब नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए दलितों ने सत्याग्रह किया था और मंदिर प्रवेश की एक ठोस बुनियाद रखी. 2 मार्च 1930 के रोज़ आस पास से 15000 दलित जमा हुए थे, इनमें 500 औरतें भी शामिल हैं. कई लोगों की गिरफ्तारी भी हुई थी जिसमें सीताबाई और रमाबाई भी थीं. बाद में डॉक्टर अंबेडकर ने स्पष्ट किया था कि मंदिर प्रवेश आंदोलन इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं यह चाहता था कि वंचित वर्ग मूर्ति पूजक बन जाए या वे मंदिरों में प्रवेश से हिन्दू समाज का हिस्सा हो जाएंगे और उन्हें बराबरी मिल जाएगी. डॉक्टर अंबेडकर का कहना था कि समानता के अधिकार से हमें वंचित किया गया है उसके खिलाफ ये सत्याग्रह था. मेरा मकसद था इसके ज़रिये वंचित समाज को अपने अधिकारों के प्रति जागृत करना. उसके बाद डॉक्टर अंबेडकर किसी मंदिर प्रवेश आंदोलन का समर्थन नहीं किया. आज भी देश के कई मंदिरों में दलितों को प्रवेश नहीं है. मंदिर छोड़िये, घोड़ी चढ़ने पर कुछ लोग दूल्हे पर पत्थर फेंकने लगते हैं. दूल्हे को हेल्मेट लगाकर निकलना पड़ता है.
नवंबर 1936 में केरल के त्रावणकोर में वहां के महाराजा ने त्रावणकोर सरकार के तहत आने वाले सभी मंदिरों को सभी के लिए खोल दिया था. जबकि वहां 1919 के साल से मंदिर प्रवेश के सवाल उठ रहे थे. जब तक प्रतिबंध है तब तक तो इसे तोड़ना बनता है. हाज़ी अली दरगाह में प्रवेश की इजाज़त का मामला हो या शनि शिगुणामंदिर में प्रवेश का हो या त्रयंबकेश्वर मंदिर में गर्भ गृह तक जाने का मामला हो. ये तमाम लड़ाइयां इस मामये में महत्वपूर्ण तो हैं ही. वर्ना हम फिर से वही गलती कर बैठेंगे जो इतिहास में करते रहे हैं. कायदे से देखिये तो तमाम त्योहार और परंपराएं औरतों के भरोसे चली आ रही हैं. उन्हीं को किसी खास स्थान तक पहुंचने से रोक दिया जाए यह किस तर्क से जायज़ है. पर इस जीत को हाज़ी अली दरगाह तक ही सीमित रखना ठीक नहीं होगा.
जो संस्था इसकी लड़ाई लड़ रही है उसके कुछ और भी सवाल हैं, जो हाज़ी अली दरगाह में प्रवेश से कहीं ज्यादा तल्ख और मुस्लिम समाज के भीतर मर्दों के वर्चस्व को चुनौती देते हैं. इस संस्था के उभार से खास तौर से उन मौलानाओं की दुनिया में हड़कंप तो मची ही होगी जो रस्मो रिवाज की व्याख्या करते समय मुस्लिम औरतों के हक के सवाल को टाल जाते हैं. इसलिए एक बड़े टकराव के लिए तैयार रहना चाहिए. 2007 में यह संस्था बनी थी और संविधान के फ्रेम के तहत मुस्लिम महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ने का इरादा रखती है. मुस्लिम पर्सनल ला में कानूनी सुधार की बात करती है. धर्म की सकारात्मक और उदार व्याख्या में यकीन रखती है. मुस्लिम औरतों के आर्थिक और धार्मिक अधिकारो में बराबरी लाना चाहती है. मुस्लिम समाज के भीतर जातिगत भेदभाव के प्रति समझ पैदा करना चाहती है. दलित मुस्लिमों के सवाल उठाना चाहती है. पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, फासीवाद और साम्राज्यवाद का विरोध करती है. यह संस्था मुस्लिम समाज के भीतर एक वैकल्पिक प्रगतिशील आवाज़ बनना चाहती है. 15 राज्यों में इसके 30,000 सदस्य हैं. पुरुष भी इसके सदस्य बन सकते हैं.
मुंबई के बांद्रा से शुरू हुए भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की मज़बूती किसी न किसी को परेशान तो कर रही है. इस आंदोलन ने देश के कुछ राज्यों में महिला शरिया अदालत की स्थापना की है जो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से काफी अलग है. तो हाज़ी अली से क्या हासिल हुआ और हाज़ी अली के आगे क्या होगा.
This Article is From Aug 26, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : हाजी अली दरगाह जा सकेंगी महिलाएं
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 26, 2016 21:34 pm IST
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Published On अगस्त 26, 2016 21:34 pm IST
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Last Updated On अगस्त 26, 2016 21:34 pm IST
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