मराठी फिल्म 'सैराट' कई हफ्ते पहले ही आ चुकी है और महाराष्ट्र के तमाम शहरों कस्बों में ख़ूब देखी जा रही है। फिल्म मराठी में बनी है मगर इस फिल्म की भाषा मराठी नहीं है। 'सैराट' कामयाब हो गई है, कई करोड़ कमा लिये हैं फिर भी कामयाब फिल्म नहीं है क्योंकि इसकी कहानी हमारी आपकी सभी की नाकामी की कहानी है। हम नाइंसाफियों की सीढ़ियां ऊंची करते जा रहे हैं। जो सबसे ऊंचे पायदान पर है वो कामयाब नज़र आता है जो नीचले पायदान पर है को नाकाम।
शुक्रवार का दिन आता नहीं कि 24 घंटा पहले से मुंबई से स्टार यार कलाकार और पत्रकार दिल्ली आने लगते हैं। पूरी टीम दोपहर दो बजे से लेकर रात के दस बजे तक दिल्ली दिल्ली घूम कर चैनल चैनल नाप देती है और आपकी शाम फिल्म फिल्म कर देती है। उनके जवाब दस साल से टाइप और टाइप्ड हो चुके हैं। यानी कि रोल चैलेंजिंग था, आइडिया न्यू है। स्टार बहुत कोऑपरेटिव है और डायरेक्टर इज़ लाइक अ बड्डी जो बहुत स्पेस देता है, इट्स अ फन टू वर्क विद हिम। ऑनर फॉर मी टू वर्क विद हिम। वेरी ओरिजनल, क्रिएटिव, हिरोइन से अलग से पूछ लिया जाता है कि आपका इस हीरो के साथ कैसा वर्किंग रिलेशन है, कई बार इंटरव्यू क्रांतिकारी करना हो तो यह बुलवा लिया जाता है कि फिमेल एक्टर को कम पैसे मिलते हैं। उसके बाद सब सामान्य हो जाता है। इतनी बात को मैं एक शब्द में भी कह सकता था जिसे हम लोग प्रमोशन कहते हैं।
इसलिए मैंने कहा कि 'सैराट' पर तब बात करने जा रहा हूं जब फिल्म को रिलीज हुए कई हफ्ते हो गए हैं। फिल्म मैंने देखी है। 'हरिश्चंद्राची फैक्ट्री', 'एलिज़ाबेथ एकादशी', 'कोर्ट', 'फैंड्री' और अब 'सैराट'। क्या मराठी सिनेमा अपने किसी नए दौर से गुज़र रहा है। जहां बात फंड और वितरण की नहीं हो रही है। कहानी और किरदार की होने लगी है। विष्णु खरे के शब्दों में मराठी सिनेमा की बहु आयामीय अस्तिमा का एक नया टोटल स्कूल विकसित होने लगा है।
2009 में 'हरीशचंद्राची फैक्ट्री' आई थी। परेश मोकाशी की इस फिल्म की काफी चर्चा हुई थी। इस फिल्म को मराठी में श्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। 2009 में इसे श्रेष्ठ विदेशी भाषा की फिल्म की श्रेणी में भारत से भेजा गया था। इस फिल्म को भी कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। परेश मोकाशी की एक और फिल्म ने धूम मचाई। 'एलिज़ाबेथ एकादशी'। मैंने ये फिल्म भी देखी है। इस फिल्म को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। 2016 में एक और फिल्म आई थी 'कोर्ट'। 28-29 साल के निर्देशक चैतन्य तम्हाणे की 'कोर्ट' अभी तक नहीं देख सका हूं पर इरादा ज़रूर है। 2016 में भारत की तरफ से कोर्ट को ही ऑस्कर में भेजा गया था। 'कोर्ट' को भी 18 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिला ही है।
अब आते हैं 'फैंड्री' और 'सैराट' पर। ये दोनों ही फिल्में मैंने देखी हैं। 'सैराट' देखने के बाद जब 'फैंड्री' देखने बैठा तो लगा कि 'सैराट', 'फैंड्री' से ही निकली है। 'फैंड्री' के तमाम दृश्य और किरदार 'सैराट' में जवान होते हैं। हरित क्रांति से बंज़र ज़मीन लहलहाने लगती है, उदारीकरण के चलते कस्बे में कारखाना लगता है और सीमेंट के मकान बड़े होने लगते हैं, मगर इस दौरान एक अंतर पहले से लेकर अब तक बना नज़र आता है। जो दलित किरदार है उसके कपड़े तो बदल गए हैं, वो पढ़ाई में अच्छा और आत्मविश्वास से भरा तो नज़र आता है मगर अर्थव्यवस्था की चोट से घायल नज़र आता है। 'फैंड्री' का सुअरबाड़ा ख़त्म हो जाता है मगर 'सैराट' में दलित बस्ती का दूसरा चेहरा नज़र आता है जिसे हम झुग्गी कहते हैं। दूसरी तरफ 'फैंड्री' में कुछ अधिक संसाधनों से शुरू करने वाला पाटिल परिवार 'सैराट' में आते आते साधन संपन्न हो जाता है। खेत खलिहान से लेकर गाड़ियों का काफिला तक नज़र आता है। 'सैराट' के कई किरदार 'फैंड्री' में 1990 के भारत के पहले के किरदार लगते हैं। 'सैराट' के किरदार 1990 के भारत के बाद के हैं। 'फैंड्री' की दो चोटी वाली नायिका 'सैराट' में बुलेट चलाने लगती है। 'फैंड्री' के सुअरबाड़े का नायक 'सैराट' में भी दौड़ लगा रहा है। अंदाज़ से पता चलता है महत्वाकांक्षाएं दस्तक देने लगी हैं। सरकारी ज़ुबान में 'सैराट' का नायक पारधि जाति से आता है जो एक अनुसूचित जनजाति है।
'फैंड्री' और 'सैराट' में सूखे पेड़ से लेकर चिड़ियों के अलावा तमाम सीन और किरदारों की निरंतरता दिखती है। ऐसा लगता है कि एक पार्ट वन है और दूसरा पार्ट टू। नागराज के तमाम सीन 'फैंड्री' से लेकर 'सैराट' तक में चलते हैं।
'फैंड्री' में भी कुएं का दृश्य है जहां अबोध जाब्या उस ख़ौफनाक सपने में डूब रहा है कि जब वो लड़की सूअर से छू जाने पर अपवित्र हो जाती है तो सूअरबाड़े में रहने वाले जाब्या के करीब कैसे आ पाएगी। बालक सोचता है कि फिर वो लड़की अगर जान गई कि उसके पिता सूअर पकड़ने का ही काम करते हैं तो फिर उस प्यार का क्या होगा। लेकिन 'सैराट' तक आते आते ये कुआं जवान हो जाता है। सूखे में आपने टीवी में महाराष्ट्र के घायल पड़े कुओं को देखा होगा। 'सैराट' में कुओं की वास्तुकला, उसकी गहराई और साफ पानी में खिलती जवानी के ऐसे रंग शायद ही किसी फिल्म में नज़र आए होंगे। 'सैराट' का कुआं 'फैंड्री' के सूअरबाड़े के लड़के को कूदने के लिए आमंत्रित करता है। उसी कुएं में जहां 'सैराट' की आर्ची घोड़े पर सवार होकर अपनी सखियों के साथ नहाने आती है। 'सैराट' तक आते आते इतना तो बदला है कि पाटिल की बेटी दलित के घर जाकर पानी पीती है और उसी कुएं में दोनों बारी बारी से नहा आते हैं।
कई लोग फिल्म पर सवाल कर रहे हैं तो कई लोग फिल्म देखने के बाद समाज के उस चेहरे के सामने खुद को खड़ा पाते हैं जो उनके लिखने बोलने से बदला ही नहीं। मैं आपके सामने उन विश्लेषणों के चंद हिस्सों को पेश करना चाहता हूं। एक पूरे लेख से एक टुकड़ा चुनना ख़तरे से ख़ाली नहीं मगर टीवी की मजबूरी है। ये ख़तरा इसलिए उठा रहा हूं ताकि आप देख सकें कि कुछ लोगों ने फिल्म देखने के बाद इसे लिखते वक्त कैसे देखा है। पहली टिप्पणी वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे की है।
क्या दर्शकों ने सिर्फ उस सुपरिचित, लगभग टपोरी पहले घंटे को चाहा? क्या उन्हें बीच का "दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे"- स्पर्श अच्छा लगा? क्या उन्हें कस्बाई माफिया द्वारा नायक-नायिका को चेज़ करने और उस पलायन में पराजित होने में आनंद आया? क्या वह आंध्र प्रदेश में अपने आदर्शवादी 'पवित्र' नायक-नायिका के सफल संघर्ष से खुश हुए? क्या वह जानना चाहते थे कि बाद की सुख-स्वपन जैसी ज़िंदगी न चले? फिर यह दर्शक है कौन? इनके पैसे कैसे वसूल हुए? कितने दलित, कितने सवर्ण, किन जातियों के? कितने किशोर/युवा, कितने वयस्क बुद्धिजीवि? क्या सब सवर्णवाद के आजीवन शत्रु रहेंगे? क्या वाकई 'सैराट' कोई जातीय सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न उठाती है? यह वह त्रासदी को ही उनका एकमात्र हल बनाकर पेश कर रही है तो उसमें कहां मनोरंजन हो रहा है कि फिल्म सुपर हिट है?
समालोचन डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट इन पर विष्णु खरे के लेख के बाद कैलाश वानखेड़े ने अपनी समीक्षा पेश की। 'सैराट' एक नायिका प्रधान कमर्शियल फिल्म है। डॉक्यूमेंट्री नहीं है। इसलिए इसमें झिंगाट संगीत और गाने हैं। लेकिन यह आम फिल्म नहीं है। आप इसे किस जगह से खड़े होकर देख रहे हैं क्या देख रहे हैं, एक अदना सा दृश्य दो शब्द, बर्ताव, चेहरे के भाव तय कर देते हैं पूरी फिल्म के उद्देश्य को, अब दलित को गाली देना उतना सरल नहीं रहा तो वे अपनी घृणा की अभिव्यक्ति इसी तरह से बदले हुए शब्द, बर्ताव और हाव भाव से प्रताड़ित करते हैं, प्रताड़ित होने वालों की निगाह से 'सैराट' में बहुत कुछ टूटता बनता है, यह समझ पाना मुश्किल है क्योंकि जहां सर्वज्ञ से भरा हुआ ज्ञान है वहां अभी तक जिस तरह से जाति आई है फिल्मों में उस तरह से इसमें जाति सामने नहीं आती है। इसमें तो वह बिना बड़बोलेपन से, गाली से, भाषण से नहीं आई, वह चेहरे पर, उसके व्यवहार में परिलक्षित होती है।
समालोचन डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट इन पर ही मयंक सक्सेना इन बहसों को आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं कि फिल्म बनाना भारत में सिर्फ विधा तो नहीं है, यह एक अर्थशास्त्र है, जहां अच्छी से अच्छी फिल्म के लिए आपको पैसे जुटाना मुश्किल होता है, हिट फ्लॉप का गणित सबकुछ बेकार कर देता है और जैसे ही आप ऐलान कर देते हैं कि फिल्म गंभीर है विमर्श की है, जाति प्रथा पर है तो अंधेरा ओढ़ कर सो जाने के अभ्यस्त लोग सिनेमा हॉल तक ही नहीं आते। नागराज मंजुले को इस बार पुरस्कार के लिए फिल्म नहीं बनानी थी। आपकी आंखों में ज़बरन ड्रॉप से सच डालने की थी।
जानकीपुल डॉट कॉम पर सुदीप्ति सत्यानंद ने भी 'सैराट' की समीक्षा लिखी है। शायद कोई बड़ी फिल्म संपूर्ण न होते हुए भी इसलिए बड़ी हो जाती है कि उसे देखने के बाद लोग फिल्म के बारे में कम, समाज और अपने बारे में ज्यादा सोचने लगते हैं। मुझे इन सवालों से क्या मतलब, मैंने क्यों देखी सैराट, मराठी आती नहीं, भारतीय भाषाओं की फिल्म का कोई खास शौक नहीं, फिर क्यों इतनी उत्सुक हो गयी थी, लोगों से तारीफ सुनकर क्या, मुझे देखने के लिए मजबूर करने के लिए एक सूचना भर काफी थी, नागराज मंजुले को हिन्दी सिनेमा के कई ऑफर मिले पर उन्होंने अपनी मातृभाषा में फिल्म बनाते रहना चुना। मैं ऐसे व्यक्ति का सिनेमा देखने के लिए सहज उत्सुक थी, जिसकी जिद है कि मेरा काम देखने के लिए तुम मेरी मातृभाषा में आओ और जब 'सैराट' मुझ पर इतनी छा ही गई तो लिखती हूं कि क्या देखा।
जयंत पवार ने मराठी में इसकी समीक्षा लिखी है, जिसका हिन्दी अनुवाद किया है भारत भूषण तिवारी ने। जयंत इस फिल्म से अभिभूत नहीं है लेकिन खारिज भी नहीं करते हैं, जो सवाल उन्होंने उठाये हैं शायद वो फिल्म के साथ साथ इस समाज से भी हैं जिसमें हम और आप रहते हैं। जयंत लिखते हैं कि 'शोषक सभी जातियों में हैं। हर जाति अपने से नीचे वाली जाति को तुच्छ समझती है और विवाह संबंध की बात होने पर हैवान बन जाती है। ऑनर किलिंग हर जाति में होती है और ऐसे अनेक उदाहरण महाराष्ट्र में घटे हैं। इसलिए बहुजन कलाकारों को यहां से आगे यथार्थ से भिड़ते हुए शोषण की इन भीतरी सलवटों का बहादुरी से सामना करना होगा। 'सैराट' ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की मगर आगे की राह ज़रूर स्पष्ट की है। कोई दूसरा हमारे साथ अन्याय करता है इस यथार्थ में सुभीता है मगर हम खुद अपने आदमियों के साथ अन्याय करते हैं यह दिखाना आसान नहीं होता।
कोई जाति को लेकर बात कर रहा है। कोई नायक नायिका को लेकर, कोई आर्थिक विकास के चेहरे को लेकर बात कर रहा है तो कोई कुछ। हमने सोचा कि एक परेशान कर देने वाली कामयाब फिल्म बनाने वाला भी क्या उतना ही परेशान है। इसलिए मैं आपको मराठी सिनेमा के इस निर्देशक से मुलाकात करवाता हूं। जिसका नाम है नागराज पोपटराव मंजुले।
This Article is From Jun 01, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : 'सैराट', दलितों से नाइंसाफी की कहानी
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जून 01, 2016 22:22 pm IST
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Published On जून 01, 2016 22:22 pm IST
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Last Updated On जून 01, 2016 22:22 pm IST
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