विज्ञापन
Story ProgressBack
This Article is From Dec 22, 2015

प्राइम टाइम इंट्रो : सारा जोर सजा पर, सुधार पर क्यों नहीं?

Written by Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    December 22, 2015 21:14 IST
    • Published On December 22, 2015 21:17 IST
    • Last Updated On December 22, 2015 21:17 IST
क्या सज़ा मिलने से इंसाफ़ मिल जाता है? सज़ा का मकसद क्या सिर्फ पीड़ित को इंसाफ़ दिलाना होता है या अपराधी के लिए भी कुछ मकसद होता है? अपराध से किसी बच्चे को परिभाषित किया जाए या उसकी उम्र की नासमझी से उसे देखा जाए। क्या नया कानून बाल मन की समझ और सुधार की संभावना की बात करता है या जघन्य अपराधी को अधिकतम से अधिकतम सज़ा देने की भूख मिटाता है?

हम बात निर्भया केस के एक मुजरिम के सज़ा काटने के बाद रिहा होने से पैदा हुई परिस्थिति को लेकर कर रहे हैं। अख़बार, टीवी, रेडियो चैनलों द्वारा उत्पादित सीमित दर्शकीय जनभावना के सहारे यह सवाल उठा कि निर्भया के मुजरिम को सज़ा पूरी होने के बाद भी बाल सुधार गृह से नहीं छोड़ा जाना चाहिए। एक सवाल यह भी उठना चाहिए था कि सज़ा पूरी होने के बाद क्या उसे मुजरिम माना जाएगा या सज़ा पूरी होने के बाद वो कुछ कानूनी प्रतिबंधों के साथ सामान्य नागरिक की तरह जिएगा। यह कानून तय करेगा या समाज अलग-अलग मामलों के हिसाब से तय करेगा।

दिसंबर 2012 की घटना से उभरी जनभावना के कारण ही तो जस्टिस वर्मा कमेटी ने रिकार्ड समय में पहले से कहीं बेहतर कानून देश को दिया। उस दौर में भी उन्होंने बलात्कारी के लिए फांसी की सज़ा नहीं मानी और जुवेनाइल की उम्र को 18 से कम नहीं किया। लेकिन निर्भया के मुजरिम को बाहर आते ही इस तरह से देखा और दिखाया जाने लगा कि उसका बाहर आना निर्भया का इंसाफ नहीं है। निर्भया के माता-पिता बिल्कुल संतुष्ट नहीं थे। उनकी इस पहल का शुक्रगुज़ार होना चाहिए और तारीफ की जानी चाहिए कि मई में लोकसभा में जो कानून पास हो गया था उस पर कम से कम राज्य सभा में बहस तो हुई। जनदबाव में कानून बनने में चूक हो सकती है लेकिन जनदबाव का यह सकारात्मक असर तो है ही।

राज्य सभा में जुवेनाइल जस्टिस बिल 2014 का समर्थन करते हुए तृणमूल सांसद डेरेक ओ ब्रायन की एक बात से ठिठक गया। यह वो सवाल है जिसका जवाब देना शायद हर किसी के लिए मुश्किल होगा। लेकिन क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि हर किसी के लिए मुश्किल होगा या हर किसी का एक ही जवाब होगा। जैसा डेरेक ओ ब्रायन का जवाब था। डेरेक ने कहा कि अगर 16 दिसंबर की घटना मेरी 20 साल की बेटी के साथ हुई होती तो मैं क्या करता। क्या मैं सबसे अच्छा वकील लाता, अदालत की मदद लेता या एक बंदूक खरीदता और अपराधी को मार देता। मुझे पता नहीं लेकिन मेरा दिमाग कहता है कि शायद उसे मार दिया जाना चाहिए। यह एक इमोशनल इश्यू है।

इसी साल 24 अगस्त के दिन 'इंडियन एक्सप्रेस' में सुनंदा मेहता की एक बेहतरीन रिपोर्ट छपी। रिपोर्ट भारत में रेस्टोरेटिव जस्टिस सिस्टम के प्रसार की बात करती है। रेस्टोरेटिव सिस्टम में अपराधी को पीड़ित के परिवार से मिलवाया जाता है, उसे प्रायश्चित करने का मौका दिया जाता है और फिर पीड़ित परिवार कई बार उसे माफ भी कर देता है।

आप अवंतिका माकन हैं। छह साल की थीं तब आपके पिता ललित माकन और मां गीतांजली की तीन आतंकवादियों ने हत्या कर दी। आपका बचपन तबाह हो गया और पूरी ज़िंदगी आप इस भूचाल को अपने भीतर समेटे रहीं। तीन में दो आतंकवादियों को फांसी होती है और एक कूकी जो पंजाब कृषि विश्वविद्यालय का गोल्ड मेडलिस्ट था, उसे आजीवन कैद की सज़ा होती है। जब कूकी की आजीवन कैद की सज़ा बदलवाने की याचिका आती है तो अवंतिका बंदूक ख़रीदने के बारे में नहीं सोचती हैं बल्कि 2008 में शीला दीक्षित के पास जाती हैं और कहती हैं कि इसे माफ कर दिया जाए। इससे पहले अवंतिका, कूकी के घर जाती हैं। उसके पिता के साथ खाना खाती हैं और अपने पिता के हत्यारे को माफ कर आती हैं। अवंतिका ने 'इंडियन एक्सप्रेस' से कहा कि मैं नहीं चाहती थी कि एक और परिवार इस घटना के दर्द को ज़िंदगी भर ढोए। क्या अवंतिका का यह साहसिक कदम निर्भया के मामले में हमें नए तरीके से सोचने का रास्ता देता है। कूकी इन दिनों ब्लॉग लिखता है। अगर आपको गुरमुखी आती है तो नौजवानी डॉट कॉम पर जाकर आपको पढ़ना चाहिए कि नया जीवन मिलने के बाद वो समाज और देश के बारे में क्या लिख रहा है। क्या सोच रहा है।

ग्राहम स्टेंस की पत्नी ने भी अपने पति और बच्चों के हत्यारों को माफ कर दिया। प्रियंका गांधी ने भी अपने पिता के हत्या की सजा काट रही नलिनी की फांसी को माफ कर दिया। 'इंडियन एक्सप्रेस' की सुनंदा की रिपोर्ट का ही हिस्सा ये सब। इसी से एक दास्तान और। मुंबई हमले में अपने पति एलन और 13 साल की बेटी नाओमी की हत्या के बाद भी किया ने आतंकवादी कसाब को दिल से माफ कर दिया। कसाब को खत भी लिखा था, मगर वो पहुंचा नहीं। एलन की पत्नी ने बताया कि ऐसा करके उन्हें बहुत शांति पहुंची। उन्होंने एक संगठन भी बनाया है One Life Alliance। जिसका काम है मोहब्बत और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाना। किया ने कहा कि अगर मैं आतंकवादी को माफ कर सकती हूं तो किसी को भी माफ कर सकती हूं। माफ कर देने से हम नफरत, गुस्से और बदले की भावना से आज़ाद हो जाते हैं।

मुझे नहीं मालूम कि इन प्रसंगों से आप दर्शकों या डेरेक ओ ब्रायन को को कोई जवाब मिला या नहीं। राज्य सभा ने जुवेनाइल जस्टिस केयर एंड प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन एक्ट 2000 की जगह नया कानून बना दिया है। नए कानून के अनुसार 16 से 18 के बीच के किशोरों के ऊपर जघन्य मामलों में बालिगों जैसा मुकदमा चलेगा। जुवेनाइल के अपराध को जघन्य अपराध, गंभीर अपराध, मामूली अपराध में बांटा गया है। अपराध के अनुसार बाल अपराधी को तीन साल से लेकर सात साल तक सज़ा मिल सकेगी। देश के हर ज़िले में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड बनाया जाएगा।

क्या जुवेनाइल की उम्र 18 से कम कर 16 कर दी गई या 16 से 18 की नई कैटगरी बना दी गई है। समाज एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने कहा कि 16 से 18 करने के बाद भी अपराध जघन्य है या नहीं, बाल मन की नासमझी में किया गया है या जानबूझ कर इसका फैसला उम्र से नहीं होगा। जुवेनाइल बोर्ड तय करेगा कि बाल अपराधी को पुनर्वास के लिए भेजा जाए या उस पर बालिगों के समान मुकदमा चले।

जस्टिम वर्मा ने तो कहा था कि जुवेनाइल जस्टिस सिस्टम फेल हो चुका है। मेनका उसी सिस्टम को यह तय करने का अधिकार दे रही हैं। राज्य सभा में बहस के दौरान वाम दलों ने कहा कि सलेक्ट कमेटी में भेजिये। हर अपराध को उम्र से नहीं जोड़ना चाहिए। किसी ने कहा कि जघन्य अपराध में बलात्कार लिखा होना चाहिए। किसी ने कहा कि 18 से 16 करने के अपने खतरे हैं, क्योंकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र से करार किया है। किसी ने कहा कि बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं। अपराध में किशोरों की भागीदारी काफी बढ़ गई है। अलग-अलग अपराधों में इनका इस्तेमाल होने लगा है। कई वक्ताओं ने अमरीका और दूसरे देशों के उदाहरण दिये। सारी बहस में सज़ा ही प्रमुख हो गया है। जबकि जुवेनाइल कानून और बोर्ड सुधार पर ज़ोर देता है।

नल्सर लॉ कालेज के वाइस चांसलर फैज़ान मुस्तफा ने लिखा है कि अमरीका के सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में 18 साल से कम उम्र के बच्चों को फांसी की सज़ा समाप्त कर दी है। आखिर क्या बात है कि संयुक्त राष्ट्र के तमाम सदस्य देशों से अलग भारत दूसरा रास्ता अपना रहा है। नया कानून जनभावना या चैनल भावना को संतुष्ठ करने के लिए बना है या वाकई इससे कोई इंसाफ होता है। किसका इंसाफ होता है। सारा ज़ोर सज़ा पर है। सुधार पर क्यों नहीं है। हम माफी, प्रायश्चित को इंसाफ़ क्यों नहीं मानते।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
डार्क मोड/लाइट मोड पर जाएं
Our Offerings: NDTV
  • मध्य प्रदेश
  • राजस्थान
  • इंडिया
  • मराठी
  • 24X7
Choose Your Destination
Previous Article
121 लाशें, कई सवाल : मौत के इस 'सत्संग' पर आखिर कौन देगा जवाब?
प्राइम टाइम इंट्रो : सारा जोर सजा पर, सुधार पर क्यों नहीं?
मीरा रोड बवाल : कब-कब सांप्रदायिक आग में झुलसा मुंबई? 130 साल का इतिहास
Next Article
मीरा रोड बवाल : कब-कब सांप्रदायिक आग में झुलसा मुंबई? 130 साल का इतिहास
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com