आजकल आप ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का विवाद खूब सुनते होंगे। ख़बर है कि चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों को 14 जुलाई को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया है। अगर चुनाव आयोग ने इन्हें दोषी पाया तो इनकी सदस्यता जा सकती है। यह मामला दिल्ली में आम आदमी पार्टी बनाम भारतीय जनता पार्टी बनाम कांग्रेस पार्टी बना हुआ है। चुनाव आयोग की रिपोर्ट के बाद इस पर भारत के राष्ट्रपति फैसला लेंगे। राष्ट्रपति इस मामले में केंद्रीय मंत्रिपरिषद से राय नहीं लेते हैं। इस मामले में चुनाव आयोग ही अपनी रिपोर्ट भेज सकता है। संविधान की तमाम व्याख्याओं के अनुसार ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के मामले में कानूनी रूप से केंद्र सरकार या मंत्रिपरिषद का कोई रोल नहीं है। आम आदमी पार्टी ने एक कानून बनाकर राष्ट्रपति को भेजा था लेकिन राष्ट्रपति ने मंज़ूरी नहीं दी। अब यह मामला दिल्ली सरकार के ऊपर तलवार की तरह लटक रहा है। इस विवाद के ज़रिये हमारे आपके लिए फिर से समझने का मौका है कि संविधान में निर्वाचित प्रतिनिधि की किस तरह से कल्पना की गई है ताकि वह सरकार से स्वतंत्र रहे और अपने क्षेत्र की जनता के प्रति ज़िम्मेदार रहे।
हम और आप जब भी किसी सांसद या विधायक को देखते हैं तो हमेशा उसे सत्ता पक्ष या विपक्ष के प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं। लेकिन लोकसभा या विधानसभा अपने सदस्यों को सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं देखती है। सदन की कल्पना इस पर आधारित है कि विधायक या सांसद उसके भीतर जनता की आवाज़ हैं। सदन में जो सदस्य मंत्री हैं सिर्फ उन्हें ही सरकार की आवाज़ या प्रतिनिधि माना जाता है। संविधान ने ऐसी कल्पना की है कि विधायक या सांसद सरकार के किसी भी प्रकार के प्रभाव में न आए। इसके लिए ज़रूरी है कि वो ऐसा पद स्वीकार न करे जहां से उसे वेतन आदि की सुविधा मिले, जिससे उससे सत्ता में हिस्सेदार होने का मौका मिले और जो सरकार के सीधे संरक्षण में आ जाए जिस पर सरकार का बस चले। ऐसा इसलिए किया गया है कि सदन में विधायक या सांसद सिर्फ जनता की नुमाइंदगी करें। सरकार के पास अनेक पद होते हैं। वो हर पद में अपने सांसदों को बिठा सकती है, विधायकों को दे सकती है। अगर ऐसा हुआ तो सदन में सरकार का प्रतिनिधित्व बढ़ जाएगा और सदन में जनता का प्रतिनिधित्व घट जाएगा। ध्यान रखियेगा कि सदन के ही सदस्य मंत्री होते हैं जिनकी कुछ निश्चित संख्या होती है। मगर सारे सदस्य मंत्री या चेयरमैन न हो जाएं इसके लिए ही ऑफिस ऑफ प्रॉफिट की कल्पना की गई है ताकि उनकी सदस्यता रद्द की जा सके। संविधान निर्माता समझते थे कि अगर विधायक या सांसद सरकार के प्रभाव या संरक्षण में आ गया तो वो स्वतंत्र नहीं रह पाएगा। सदन के भीतर सदस्य को बिना किसी के प्रभाव में आना चाहिए।
ये आदर्श व्यवस्था है। व्यावहारिक व्यवस्था कुछ और है। पैसे लेकर सवाल पूछने के आरोप में हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों ने सदस्यता गंवाने का इतिहास बनाया है। दल का नाम लेने से कोई लाभ नहीं। आप देख ही रहे हैं कि राज्य सभा के चुनाव में विधायक किस तरह से धन के प्रभाव में अपना वोट इधर से उधर कर रहे हैं। कुछ लोग चुनाव में पार्टी की सेवा कर देते हैं फिर वे राज्य सभा से लेकर विधान परिषद में आ जाते हैं। पहले पार्टी को अपने प्रॉफिट में से कुछ देते हैं फिर उस पार्टी की सरकार से ऑफिस ले लेते हैं। ऐसे सदस्य को आप पद दे या न दें, क्या किसी भी तरह से आप ऑफिस ऑफ प्रॉफिट की नैतिकता से मुक्त रख सकते हैं। कई दलों ने ऐसे सदस्यों को सदन में भेजा है जो बिना ऑफिस ऑफ प्रॉफिट लिये सरकार को भी प्रभावित कर रहे हैं और सदन के भीतर नीति निर्माण पर भी असर डाल रहे हैं।
21 अगस्त, 1954 को लोकसभा के पहले स्पीकर जी वी मावलंकर साहब ने राज्य सभा के चेयरमैन से मशवरा कर ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के लिए एक कमेटी बनाई। इस कमेटी के अध्यक्ष थे पंडित ठाकुर दास भार्गव जिनके कारण इसे भार्गव कमेटी के नाम से जाना जाता है। भार्गव साहब हिसार के सांसद थे। कमेटी ने सुझाव दिया कि एक व्यापक बिल लाकर साफ किया जाए कि कौन सा पद लाभ का पद है और कौन सा लाभ का पद नहीं है। ध्यान रहे यह काम सरकार नहीं करती है बल्कि संसद की संयुक्त समिति करती है। तब से लेकर हर लोकसभा के दौरान संयुक्त कमेटी बनती है और लाभ के पद को परिभाषित किया जाता है। जो सदस्य लाभ के पद को स्वीकार करते हैं उनकी सदस्यता चली जाती है। सरकार सार्वजनिक उपक्रम को आदेश भी देती है कि अगर कोई सांसद उनकी कमेटी का सदस्य है तो उसे किसी भी प्रकार का वेतन न दिया जाए।
संसद या विधानसभा के सदस्यों की स्वतंत्रता की कितनी ख़ूबसूरत कल्पना की गई है। जानबूझ कर कल्पना कहा क्योंकि जो कहा है गया क्या वो अक्षरश: साकार हुआ है या हो रहा है? जैसे किसी विधेयक पर मतदान से पहले सदन परिसर में ही संसदीय दल की बैठक में सामूहिक फैसला ले लिया जाता है। सांसद या विधायक पार्टी लाइन से अलग नहीं बोलते। सदस्य सामूहिक फैसले के साथ जाएं इसलिए व्हीप लगा दिया जाता है। इसलिए ऑफिस ऑफ प्रॉफिट की मूल भावना कहां तक लागू है इसे आप समझ भी लेंगे तो कुछ नहीं कर पाएंगे। राजनीतिक व्यवस्था आपके समझ जाने से नहीं बदलती है। राजनीति आपको ही बदल देती है।
ज़रूरी है कि हम ऑफिस और प्रॉफिट की परिभाषा को समझें। ऑफिस वो सरकारी विभाग है जिसके ज़रिये आप समाज के लिए काम करते हैं। उसके बदले वेतन और अन्य भत्ते मिलते हैं। यात्रा भत्ता या या कुछ खर्च इसमें शामिल नहीं है। पैसे का लेन-देन होना इसके केंद्र में है। हर पद ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के दायरे में नहीं आता है। हमें यह समझना होगा कि कोई सरकार अपने विधायकों या सांसदों को पद देकर उस पर किस हद तक अपना प्रभाव कायम करती है। पी डी टी आचार्य की संपादित किताब के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने ऑफिस ऑफ प्रॉफिट निर्धारित करने के लिए कुछ टेस्ट निर्धारित किये हैं। पहले टेस्ट होता है कि ऑफिस है या नहीं। फिर टेस्ट होता है कि प्रॉफिट हुआ या नहीं। सबसे बड़ा टेस्ट इस बात को लेकर होता है कि क्या सरकार नियुक्ति करती है। यह देखा जाएगा कि सरकार विधायक के बॉस की तरह काम तो नहीं करती यानी उसे उस पद से बर्खास्त कर सकती है, हटा सकती है और काम पर नियंत्रण रख सकती है। क्या सरकार उसे वेतन आदि मौद्रिक भुगतान करती है। इससे साबित होता है कि सरकारी ऑफिस होता है या नहीं। इसके बाद प्रॉफिट का टेस्ट होता है। पांडिचेरी के मेयर के पद पर विधायक की नियुक्ति हुई। चुनाव आयोग ने ऑफिस ऑफ प्रॉफिट माना क्योंकि कई तरह के भत्ते मिलते थे। मगर इसे नहीं माना गया क्योंकि मेयर का पद सरकार के नियंत्रण में नहीं आता है। इसलिए इसकी कोई एक व्याख्या नहीं दिखती है।
अब आते हैं आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के मामले पर। बाद में दिल्ली विधानसभा ने एक विधेयक भी पास कर व्यवस्था दी कि मुख्यमंत्री और मंत्रियों के संसदीय सचिव का पद ग्रहण करने पर उनकी सदस्यता नहीं जाएगी, क्योंकि ये लाभ के पद नहीं हैं। विधानसभा ने इसे पास कर दिया मगर राष्ट्रपति ने मंज़ूरी नहीं दी। यह भी एक मसला है। क्या राष्ट्रपति ने अंतिम रूप से लौटा दिया या अभी भी उनकी शंकाओं का समाधान कर उप राज्यपाल दोबारा भेज सकते हैं। 2006 में भी ऐसा एक मामला हुआ था। तब दिल्ली में शीला दीक्षित ने कांग्रेस के 19 विधायकों को कई प्रकार के पद दिये थे। संसदीय सचिव से लेकर Trans-Yamuna Area Development Board के चेयरमैन,वाइस चेयरमैन, ग्रामीण विकास बोर्ड वगैरह। नियुक्ति के बाद चुनाव आयोग ने इन 19 विधायकों को ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का नोटिस भेज दिया। शीला दीक्षित अपनी सरकार बचाने के लिए एक बिल ले आईं और 14 कार्यालयों को ऑफिस ऑफ प्रॉफिट की लिस्ट से बाहर कर दिया। शीला दीक्षित ने कहा था कि मेरी सरकार बचाना मेरा हक है, हम संवैधानिक तौर पर ऐसा कर रहे हैं। ऐसे ही बिल छत्तीसगढ़ और झारखंड में पास किये गए हैं। राष्ट्रपति कलाम ने 31 मई 2006 को शीला का यह बिल वापस कर दिया था। शीला दीक्षित ने दोबारा भेजा और राष्ट्रपति ने मंज़ूरी दे दी।
तब केंद्र और दिल्ली में एक ही पार्टी की सरकार थी। अब स्थिति अलग है। आम आदमी पार्टी तो कांग्रेस संस्कृति के ख़िलाफ़ नई राजनीति करने आई थी। इतने विधायकों को संसदीय सचिव बनाने की क्या ज़रूरत था या वो काम क्यों किया जो शीला दीक्षित कर चुकी थीं। बीजेपी ने तब भी विरोध किया था अब भी विरोध कर रही है। सांसद मीनाक्षी लेखी ने प्रेस कांफ्रेंस कर कहा था कि दिल्ली की विशेष संवैधानिक व्यवस्था है। ये राज्य नहीं, एक शहर है। इस शहर में केवल 7 मंत्री हो सकते हैं और 7 के ऊपर 21 सचिव लगाये जाते हैं। 21 एमएलए की जो नियुक्ति हुई है, वो गैर-कानूनी है। कानून में इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं है। संसदीय सचिव कार्यपालिका का हिस्सा है। आप उस तंत्र को नियंत्रित कर सकते हैं। इसलिए यह लाभ का पद होता है। भले आप कोई सैलरी न ले रहे हों।
संसदीय सचिव क्यों बनाए जाते हैं, क्योंकि कानून मंत्रियों की संख्या विधान सभा के सदस्यों की संख्या का 15 फीसदी ही हो सकता है। दिल्ली में ये 10 फीसदी है। ये इसलिए किया गया है कि मंत्रियों की संख्या अधिक न हो जाए और सरकार पर बोझ न पड़े। लेकिन आप देखते हैं कि तमाम राज्यों में राज्य मंत्री का दर्जा बांट दिया जाता है। गाड़ी, गार्ड लेकर विधायक जी क्षेत्र में फ्लैश करते रहते हैं। कई लोगों को सचिव वगैरह बना दिया जाता है। हरियाणा में 13 मंत्री हैं मगर वहां 4 मुख्य संसदीय सचिव हैं। राजस्थान में भी 5 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया है। गुजरात में भी 5 संसदीय सचिव हैं।
पिछली सरकार में ममता बनर्जी ने 24 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया था। वे इसके लिए कानून भी लेकर आईं, लेकिन 2013 में एक जनहित याचिका दायर हुई। कलकत्ता हाईकोर्ट ने ममता बनर्जी के उस कानून को असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया और 24 विधायकों की नियुक्ति रद्द कर दी। लेकिन उनकी सदस्यता नहीं गई। जबकि ये विधायक संसदीय सचिव रह चुके थे। 2006 में छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रिवेंशन ऑफ डिस्क्वालिफिकेशन अमेंडमेंट बिल लाकर 90 पदों को ऑफिस ऑफ प्रॉफिट से बाहर कर दिया। अब दिल्ली में हंगामा हुआ तो छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी ने मांग शुरू कर दी है कि जिन 11 संसदीय सचिवों को हटाया जाए जिसे बीजेपी सरकार ने नियुक्त किये हैं। कांग्रेस इसे लेकर बीजेपी पर दोहरे मानदंड का आरोप लगा रही है जबकि 2006 में दिल्ली में ही उसकी सरकार ऐसा कर चुकी है।
This Article is From Jun 27, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : दिल्ली में लाभ के पद का विवाद
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
-
Updated:जून 27, 2016 22:14 pm IST
-
Published On जून 27, 2016 22:14 pm IST
-
Last Updated On जून 27, 2016 22:14 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं