BJP विरोधी वोटर नहीं तो मायावती को किसकी आस?

अगर मायावती 'इंडिया' गठबंधन से जुड़ने की घोषणा करतीं तो ऐसा होता कि 2024 का आम चुनाव स्पष्ट रूप से, खासकर यूपी में दो ध्रुवीय हो जाता. तब सत्ताधारी दल बीजेपी और उसके नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की मुश्किलें बढ़ जातीं.

BJP विरोधी वोटर नहीं तो मायावती को किसकी आस?

2024 में जनवरी महीने में अब तक राम मंदिर निर्माण, राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो' न्याय यात्रा, 'इंडिया' ब्लॉक के प्रमुख के तौर पर मल्लिकार्जुन खरगे का चुना जाना और मायावती का अकेले चुनाव लड़ने का एलान- चार बड़े राजनीतिक महत्व की घटनाएं हैं. मायावती ने अपने जन्मदिन पर 15 जनवरी को कोई नया एलान नहीं किया, बल्कि पुरानी घोषणा को ही दोहराया. फिर भी, यह इस कारण अहम है क्योंकि अपेक्षा थी कि मायावती 'इंडिया' गठबंधन से जुड़ने की घोषणा कर सकती हैं. अगर ऐसा होता तो 2024 का आम चुनाव स्पष्ट रूप से, खासकर यूपी में दो ध्रुवीय हो जाता. तब सत्ताधारी दल बीजेपी और उसके नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की मुश्किलें बढ़ जातीं. सवाल यह है कि मायावती के फैसले से क्या एनडीए को सुकून मिला है? क्या इंडिया ब्लॉक की मुश्किलें बढ़ गयी हैं? क्या बीएसपी अकेले लोकसभा चुनाव लड़कर बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी? बीएसपी के आने से किसे नुकसान होगा और किसे फायदा? ये सारे सवाल अहम हैं जिनके जवाब तलाशे जाने चाहिए.

क्या मायावती ने सही कहा? 
मायावती ने ऐसा क्यों कहा कि गठबंधन से बीएसपी को फायदा नहीं होता? क्या मायावती ने सही कहा? अतीत के उदाहरणों से मायावती ने यह तथ्य स्थापित करने की कोशिश की है कि अकेले चुनाव लड़ने पर उसे फायदा होता है लेकिन हालिया उदाहरण मायावती के दावे के बिल्कुल उलट है. बीएसपी ने 2014 का आम चुनाव अकेले लड़ा था. वह एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव लड़ने पर बीएसपी सांसदों की तादाद 10 तक जा पहुंची. हालांकि, समाजवादी पार्टी की स्थिति में कोई फर्क नहीं आया. उसके खाते में पहले भी 5 लोकसभा सीटें थीं, गठबंधन के बाद भी संख्या वही रही.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने अकेले चुनाव लड़ा और उसका नतीजा यह है कि बीएसपी के पास एकमात्र विधायक है. पार्टी का वोट प्रतिशत 13 के स्तर पर आ गिरा. बिहार के उदाहरण को भी लें तो 2010 और 2015 में बीएसपी ने अकेले चुनाव लड़ा था. उसे एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी. 2022 में बीएसपी ने एआईएमआईएम और रालोसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. एक सीट पर सफलता मिली. यह बात अलग है कि वह बीएसपी विधायक ने सत्ताधारी दल जेडीयू का दामन थाम लिया. बिहार में बीएसपी को विधानसभा चुनाव में 6.29 लाख (1.5%) और लोकसभा चुनाव में 6.82 (2%) लाख वोट मिले थे.

गिरते ग्राफ को संभालने का मौका
बीएसपी का प्रभाव उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा, पंजाब, उत्तराखण्ड, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और महाराष्ट्र में है. पार्टी के पास अधिकतम वोट शेयर 2009 में था जब बीएसपी को 6.17% वोट और 21 लोकसभा सीटें मिली थीं. इनमें से 20 उत्तर प्रदेश से थी. लेकिन, उसके बाद से बीएसपी का ग्राफ लगातार गिरता चला गया है. वोट शेयर गिरकर 3.67% के स्तर तक जा पहुंचा है. हालांकि बीएसपी के पास 10 लोकसभा की सीट हैं. लोकसभा चुनाव में बीएसपी को उत्तर प्रदेश में 19.26% वोट मिले थे. जाहिर है कि आज भी यूपी की सियासत को बदलने का माद्दा मायावती के नेतृत्व वाली बीएसपी के पास है. 

बीएसपी के पास अपने गिरते ग्राफ को संभालने का मौका है. अकेले लड़कर यह मकसद हासिल करना मुश्किल दिखता है. यह बात समझने की है कि मायावती की सियासी सफलता वोटों के जिस समीकरण पर टिकी रही है उसमें मुस्लिम-दलित अहम हैं. ब्राह्मणों के साथ गठजोड़ होने पर सत्ता बीएसपी के पास खिंची चली आती है. 2024 में परिदृश्य बदला हुआ है. कांग्रेस देशभर में अल्पसंख्यकों की पसंद बनकर उभरी है. इसका खामियाजा क्षेत्रीय दलों को भुगतना पड़ा है. कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जेडीएस जैसी क्षेत्रीय पार्टी का जनाधार खिसक गया तो तेलंगाना में एआईएमआईएम और केसीआर गठबंधन सत्ता से बाहर हो गया. बीजेपी विरोधी वोटरों की पहली पसंद बनकर कांग्रेस उभरी है. इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी विरोधी वोटरों की पहली पसंद भी कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाला इंडिया ब्लॉक ही रहने वाली है. ऐसे में बीएसपी के पास भी बीजेपी विरोधी वोटर टिकने वाले नहीं हैं. अकेले चुनाव लड़ने का सबसे बड़ा नुकसान स्वयं बीएसपी को होने वाला है. 

बीएसपी मैदान में अड़ी तो बीजेपी विरोधी वोट बंटेंगे 
बीएसपी जब कमजोर होगी तो बीएसपी के समर्पित वोटर भी बंटेंगे. दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा बीजेपी को वोट करता है. इसकी वजह यह है कि दलितों की सबसे बड़ी नेता का झुकाव राजनीतिक रूप से बीजेपी की ओर देखा गया है. दलित वोटरों के लिए बीएसपी के बाद सबसे पहली पसंद बीजेपी रही है. चूकि उत्तर प्रदेश में भी व्यावहारिक सियासत करती रहीं मायवती ने समाजवादी पार्टी को अपना नंबर वन राजनीतिक शत्रु घोषित कर रखा है तो ऐसे में दलित वोटरों की प्राथमिकता बीएसपी के अलावा सबसे ज्यादा बीजेपी के लिए बन आती है. इसका फायदा बीजेपी उठाती रही है. 2024 के आम चुनाव में अगर बीएसपी अकेले चुनाव लड़ती है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी को ही होने वाला है. जो दलित वोटर या बीएसपी समर्थक वोटर बीएसपी के बाद बीजेपी को प्राथमिकता सूची में ऊपर रखते हैं उनकी प्राथमिकता बदल जाएगी. बीजेपी के प्रति झुकाव कम हो जाएगा और वे या तो बीएसपी या फिर इंडिया ब्लॉक की तरफ रुख कर सकते हैं. 

यह बात भी समझने की है कि कांग्रेस के लिए जो अल्पसंख्यक वोटरों की लामबंदी होनी है उसे बीएसपी अपने पास रोक नहीं पाएगी. अगर बीएसपी ऐसा कर पाती तो कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को सबसे ज्यादा नुकसान और बीजेपी को सबसे ज्यादा फायदा होता. इसका अर्थ यह है कि स्वयं बीएसपी को सबसे ज्यादा नुकसान होगा. अल्पसंख्यक वोट तो उससे दूर होंगे ही, निश्चित हार देखकर बीएसपी के कोर वोटरों का ईमान भी डोलता दिखेगा. इस तरह हर तरह से नुकसान स्वयं बीएसपी का होता दिख रहा है. बीएसपी के अकेले चुनाव में लड़ने का फैसला बीएसपी को सबसे ज्यादा नुकसान देगा. वहीं कांग्रेस या इंडिया गठबंधन को इसका आंशिक लाभ मिलना तय है. बीजेपी उम्मीद कर सकती है कि बीजेपी विरोधी वोटों के बिखराव का सबसे ज्यादा फायदा उसे ही मिलेगा. क्या बीएसपी अपनी कीमत पर बीजेपी के लिए जीत का मार्ग प्रशस्त करेगी? 2024 के नजरिए से बीएसपी के रुख को तौलने का नतीजा बीजेपी के हक में अधिक जाता दिखता है. 

प्रेम कुमार तीन दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं, और देश के नामचीन TV चैनलों में बतौर पैनलिस्ट लम्बा अनुभव रखते हैं...

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.