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This Article is From Dec 20, 2016

जेठ की दुपहरी में शीतल साये सा ‘अनुपम’ अहसास

Pankaj Shukla
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 20, 2016 16:13 pm IST
    • Published On दिसंबर 20, 2016 16:13 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 20, 2016 16:13 pm IST
वह जेठ की तपती दोपहर थी. मई 2008 का वह दिन जीवनभर के लिए यादगार हो गया. उस अलसाई दुपहरी मेरा मोबाइल बजा. नंबर दिल्‍ली का था और लैंडलाइन से था. मैंने लगभग अनिच्छा से फोन रिसीव किया. दूसरी ओर से मीठी सी आवाज आई- ‘भैया, अनुपम बोल रहा हूं.’ यकीन मानिए, मरूथल की गर्म दुपहरी में शीतल साए की तरह लगी थी वह आवाज. मैं तो अनुपम जी के फोन आने के ही सुखद अहसास से बाहर नहीं निकल पा रहा था और वे लगातार मुझे चौंकाते जा रहे थे. वे कहते रहे और मैं धन्‍य–धन्‍य होता रहा.

बात कुछ यूं थी कि मैंने पानी पर कुछ कच्‍चा–पक्‍का लिखा था. और सामाजिक विषयों पर काम करने वाली एक संस्‍था को दे दिया था. एक दिन अचानक उनके यहां से फोन आया कि वह इसे प्रकाशित करना चाहते हैं. बस फिर क्‍या था, पानी पर अपनी किताब होगी, इस कल्‍पना के साथ यह संकल्‍प भी बलवती हो गया कि इसकी भूमिका को अनुपम जी ही लिखेंगे. किताब का काम पूरा हुआ. और अनुपम जी को आग्रह प्रस्‍तुत कर दिया गया. भोपाल की सांस्‍कृतिक पत्रिका ‘कला-समय’ के संपादक विनय उपाध्‍याय के माध्‍यम से 2004 में अनुपम जी से पहला संवाद हुआ था. फिर लगातार मुलाकातें और संवाद जारी रहा. कई बार आलेख मांगा, मिला. कभी डाक से कभी फोन पर संवाद के माध्‍यम से. कई बार साधिकार सामग्री मांगी. लेकिन, इस बार काम निजी था. बड़े ही संकोच के साथ मैंने अनुपम जी से आग्रह किया वे पाण्‍डुलिपि देख कर अनुशंसित करें कि उसे प्रकाशित होना चाहिए या नहीं. यदि प्रकाशन की स्‍वीकृति हो तो कृपया भूमिका लिख दें.

उस दिन का फोन यही सुखद सूचना के साथ था कि पाण्‍डुलिपि ठीक है और प्रकाशित होना चाहिए. मैंने भूमिका का आग्रह किया तो अनुपम जी ने अपने स्‍वभाव के अनुरूप ही बड़ी संवेदनशीलता के साथ मुझे टालना चाहा. कई तरह के प्रस्‍ताव रखे कि वे किसी ओर बड़े नामचीन व्‍यक्ति से भूमिका लिखने को कह देंगे. मगर मैं भी ढीठ था. नहीं माना. तब उन्‍होंने कहा कि वे लिख देंगे लेकिन समय कितना लगेगा, बताया नहीं जा सकता. मैंने भी कह दिया चाहे जितना समय लगे. अनुपम जी भूमिका लिखेंगे तो ही पुस्‍तक प्रकाशित होगी. कुल जमा पांच-सात मिनट की चर्चा में बड़ा आश्‍वासन मिल गया था. आप अचरज करेंगे इस चर्चा के सात दिनों के अंदर ही मुझे अनुपम जी का पत्र मिला साथ में पुस्‍तक की भूमिका थी. यह दूसरा आश्‍चर्य था. कहा गया था कि समय बहुत लगेगा लेकिन सात दिनों में ही भूमिका उपलब्‍ध थी. मैंने फोन लगा कर आभार जताना चाहा तो दूसरी ओर से मुझे ऐसी गुंजाइश ही नहीं मिली.

बाद भी, 15 जनवरी 2014 को वह दिन भी आया जब अनुपम जी के हाथों ‘पानी’ शीर्षक वाली पुस्‍तक का विमोचन हुआ. चलते-चलते बस एक किस्‍सा और. एक बार अनुपम जी एक भेल के एक कार्यक्रम के लिए भोपाल आने वाले थे तो मैं भी भेल के दो अफसरों के साथ उनकी अगवानी करने पहुंचा गया. उन्‍हें पता चलता कि हम तीन लोग उनकी अगवानी करने पहुंच रहे हैं तो वे कदापि नहीं आने देते. फिर जब दो वरिष्‍ठ अधिकारियों ने उन्‍हें खादी कुर्ते में देखा तो उनके मन में एक सामाजिक कार्यकर्ता की चिर-परिचित छवि बनी लेकिन जब उन्‍हें पता चला कि अनुपम जी मोबाइल फोन नहीं रखते और चिटि्ठयों से संवाद करते हैं तो यह उनके लिए आसमान से गिरने जैसा था. अधिकारियों को भीतर तक अहसास हुआ वे बेवजह तकनीक के गुलाम हो गए हैं. मुझे यकीन है, अनुपम जी से मुलाकात के बाद उन्‍होंने एक-दो ‘अवगुणों’ को तो त्‍यागा ही होगा.

ये किस्‍से नितांत व्‍यक्तिगत हैं, लेकिन यह अनुपम जी के व्‍यक्तित्‍व के कई पहलुओं से परिचित करवाते हैं. वे विचारों को आचरण में जीते थे और आचरण से दूसरों को पाठ पढ़ा देते थे. बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जिन्‍होंने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ को नहीं भी पढ़ा होगा, लेकिन अगर वह अनुपम जी से कभी भी मिले होंगे तो वह बता सकते हैं कि कैसे अनुपम जी के साथ मुलाकातें हमें पानी का संस्‍कार दे जाती थी. किताबें तो रहेंगी लेकिन अनुपम जी के साथ आचरण को जीने वाले मनीषियों की पीढ़ी के खत्‍म होने का सिलसिला जारी है.

पंकज शुक्‍ला, मप्र से प्रकाशित ‘सुबह-सवेरे’ के संपादक हैं. जल और जंगल से जुड़े विषयों पर अनुपम जी से निरंतर जुड़े रहे हैं.

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