मोहम्मद अली जिन्ना की वजह से देश दो हिस्सों में बंट गया. वे भारत विभाजन के गुनहगार हैं. उनकी मदद से अंग्रेजों ने देश बांट दिया. इसलिए आ़ज़ाद भारत में उनकी तस्वीर की कोई जगह नहीं है. यह तर्क इतना सहज और सरल लगता है कि उनकी तस्वीर लगाए रखने वाला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अचानक गुनहगार मालूम पड़ता है. जिस तरह के दबावों के दिन हैं, उन्हें देखते हुए हैरत की बात नहीं कि विश्वविद्यालय प्रशासन इस तस्वीर को हटाने का फ़ैसला कर ले.
लेकिन जिन्ना की तस्वीर से पैदा विवाद अगर इसी मोड़ पर छूट जाएगा तो एक ज़्यादा बड़ी तस्वीर पर हमारी नज़र नहीं पड़ेगी. जो लोग जिन्ना की तस्वीर हटाने की मांग कर रहे हैं, क्या उन्हें मालूम है कि जिन्ना भी वही चाहते थे जो उनकी विचारधारा चाहती है? जिन्ना चाहते थे कि हिंदुस्तान दो हिस्सों में बंट जाए- एक मुसलमानों का देश हो और दूसरा हिंदुओं का राष्ट्र. देश बेशक बंटा, लेकिन हिंदुस्तान ने जिन्ना को नकार दिया. हिंदुस्तान ने कहा कि वह सिर्फ हिंदू राष्ट्र नहीं रहेगा- वह अपनी विविधता और इस विविधता में हर किसी की बराबरी के अधिकार को मान्यता देने वाले देश के रूप में ही जिएगा.
इसलिए जो लोग अब हिंदू राष्ट्र का सपना देख रहे हैं, उन्हें जिन्ना से चिढ़ना नहीं, उनका सम्मान करना चाहिए. आख़िर जो सपना वे अब देख रहे हैं, वह जिन्ना ने 75 साल पहले देखा था. कह सकते हैं कि वह जिन्ना और सावरकर का साझा सपना था. अगर कल्पना करें कि भारत कभी एक हो जाएगा- आखिर अखंड भारत के सपने पर संघियों का एकाधिकार नहीं रहा है, वह समाजवादियों का भी सपना रहा है और कई बार दूसरे फितूरी किस्म के लोगों के सपने में भी झिलमिलाता है- तो आपको शायद गांधी के साथ-साथ जिन्ना की तस्वीर भी लगानी होगी. क्योंकि तब यह देश एक साझा परंपरा और अतीत वाला वह पुराना देश होगा जिसकी लड़ाई गांधी ने भी लड़ी और जिन्ना ने भी. सरोजिनी नायडू ने जिन्ना को कभी हिंदू-मुस्लिम एकता का राजदूत बताया था. यही नहीं, जिन्ना कितने कम मुसलमान थे, यह इस बात से समझा जा सकता है कि जब महात्मा गांधी मुसलमानों को जोड़ने के लिए ख़िलाफ़त आंदोलन चला रहे थे तब जिन्ना इस आंदोलन के ख़िलाफ़ थे.
ख़ैर, यह लेख यह साबित करने के लिए नहीं लिखा जा रहा है कि जिन्ना सांप्रदायिक नहीं, सेक्युलर थे. जिन्ना निजी तौर पर जो भी रहे हों, उन्होंने रास्ता सांप्रदायिक राजनीति का ही चुना जिसके नतीजे इस देश ने भुगते. बल्कि ध्यान से देखें तो उस वक़्त सूट-पैंट वाले जो मुस्लिम नेता थे- जिन्ना और लियाकत अली खान जैसे- वे मुस्लिम लीग में नज़र आते हैं और जो दाढ़ी-टोपी-कुर्ता-पाजामा वाले पारंपरिक मुस्लिम नेता थे- शौकत भाइयों या मौलाना अबूल कलाम आज़ाद जैसे- वे कांग्रेस में थे. यही वजह है कि जितने मुसलमानों ने पाकिस्तान को चुना, उससे ज्यादा मुसलमानों ने हिंदुस्तान को चुना. कई ऐसे भी हुए जो वहां जाकर लौट आए. जोश मलीहाबादी के बारे में यह किस्सा मशहूर है कि वे पाकिस्तान जाकर लौट आए. किसी ने उनसे पूछा कि पाकिस्तान कैसा है. उन्होंने कहा कि बाक़ी तो सब ठीक है, वहां मुसलमान कुछ ज़्यादा हैं.
बहरहाल, मूल मुद्दे पर लौटें.
जिन्ना की तस्वीर हटा देने भर से देशभक्ति के तकाज़े पूरे नहीं होंगे. इसके लिए कुछ और तस्वीरें हटानी होंगी, कुछ और मूर्तियां गिरानी होंगी. लेकिन जिन्ना की तस्वीर के ख़िलाफ़ खड़े लोगों के वैचारिक सखा ही इन दिनों नाथूराम गोडसे की मूर्तियां लगवा रहे हैं. नाथूराम गोडसे कौन था? वह गांधी का हत्यारा भर नहीं था, वह हिंदुस्तान की अवधारणा का भी हत्यारा था. यही वजह है कि वह धार्मिकता से डरता था. उसने सांप्रदायिक जिन्ना को गोली नहीं मारी, उसने सेक्युलर नेहरू को गोली नहीं मारी, उसने धार्मिक गांधी को गोली मारी. वैसे गांधी से पहले जिन्ना को मारने की कोशिश हुई थी, लेकिन वह बंटवारे के ख़िलाफ़ खड़े मुसलमानों के संगठन से जुड़े ख़ाकसारों ने की थी. जून 1947 में जब मुस्लिम लीग ने बंटवारे का अंग्रेज़ों का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था तो उसके कुछ ही मिनट बाद दिल्ली के इम्पीरियल होटल में जिन्ना पर यह हमला हुआ.
कहने का मतलब यह कि भारत विभाजन के ख़िलाफ़ बस हिंदू नहीं थे, बहुत बड़ी तादाद में मुसलमान भी थे और जिन्ना उसके अकेले गुनहगार नहीं थे, बहुत हद तक कांग्रेस भी थी और वे हिंदूवादी नेता तो थे ही जो अलग हिंदू राष्ट्र का सपना देखते थे. लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर के ख़िलाफ़ खड़े लोग गोडसे को पूजते हैं, उसकी मूर्ति लगाना देशद्रोह का काम नहीं मानते.
इस पूरी बहस का एक ख़तरनाक पहलू और है. इस देश की बहुसंख्यक आबादी को लगातार यह समझाने की कोशिश हो रही है कि मुसलमान देशविरोधी हैं, वे इसके प्रतीकों का सम्मान नहीं करते. उपराष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी तक तो ऐसे विवाद में घसीटा गया. एक बार आरोप लगाया गया कि उन्होंने राष्ट्रध्वज को सलामी न देकर उसका अपमान किया और दूसरी बार योग दिवस पर उनकी गैरहाज़िरी पर सवाल खड़े किए गए. इसी तरह सारे धार्मिक प्रतीकों को राष्ट्रीय प्रतीकों में बदला जा रहा है. गोरक्षा का मुद्दा भी राष्ट्रवाद का मुद्दा है. संस्कृत का मुद्दा भी राष्ट्रवाद का मुद्दा है. ताजमहल और लाल क़िले का सवाल भी राष्ट्रवाद की कसौटी का सवाल हो गया है. ऐसे में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तो एक आसान निशाना है. वहां जाकर हल्ला-हंगामा करना अपनी देशभक्ति कुछ इस तरह साबित करना है कि इसमें हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा.
दिलचस्प यह है कि देशभक्ति का यह ज्वार न उन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उठता है जिन्होंने दो सौ साल हम पर गुलामी थोपी और न उस अंग्रेज़ी के ख़िलाफ़ उठता है जो अब तक अंग्रेजी साम्राज्यवाद की पोषक भाषा की भूमिका अदा कर रही है.
अलीगढ़ में जिन्ना की तस्वीर हटा दी जानी चाहिए. लेकिन आ़ज़ादी की साझा विरासत की कौन-कौन सी निशानियां आप हटाएंगे? लाहौर में तो कुछ सिरफिरे भगत सिंह का सम्मान बहाल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं. कभी यह लड़ाई किसी साझा विरासत के काम आएगी.
बहुत आक्रामक देशभक्ति अक्सर संदेह में डालती है. इसे उदार और विनीत होना चाहिए. देश घर जैसा होना चाहिए, जहां आप तनाव न महसूस करें. दुर्भाग्य से कुछ लोग इस विशाल घर को सिर्फ़ अपना घर साबित करने में लगे हुए हैं. उन्हें नहीं मालूम कि अंततः उनकी कोशिश घर को कमज़ोर करती है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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This Article is From May 03, 2018
जिन्ना की तस्वीर और देशभक्ति का ज्वार
Priyadarshan
- ब्लॉग,
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Updated:मई 03, 2018 20:16 pm IST
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Published On मई 03, 2018 20:16 pm IST
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Last Updated On मई 03, 2018 20:16 pm IST
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