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This Article is From Mar 04, 2017

किसानी के संग कलम- स्याही करने वाले फणीश्वर नाथ रेणु

Girindranath Jha
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 05, 2017 10:14 am IST
    • Published On मार्च 04, 2017 00:06 am IST
    • Last Updated On मार्च 05, 2017 10:14 am IST
आज (4 मार्च) मेरे प्रिय लेखक फणीश्वर नाथ रेणु का जन्मदिन है. रेणु अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन खेत में जब भी फसल की हरियाली देखता हूं तो लगता है कि रेणु हैं, हर खेत के मोड़ पे. उन्हें हम सब आंचलिक कथाकार कहते हैं लेकिन सच यह है कि वे उस फसल की तरह बिखरे हैं जिसमें गांव-शहर सब कुछ समाया हुआ है.

उनका कथा संसार आंचलिक भी है और शहराती भी. यही कारण है कि रेणु आंचलिक होकर भी स्थानीय नहीं रह जाते. खेती-बाड़ी करते हुए इस कथाकर-कलाकार से मेरी अक्सर भेंट होती है, आप इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन जब भी रोज की डायरी लिखने बैठता हूं तो लगता है वे खड़े हैं सामने. छोटे-छोटे ब्योरों से लेखन का वातावरण गढ़ने की कला उनके पास थी. रेणु को पढ़ते हुए गांव को समझने की हम कोशिश तो कर ही सकते हैं.

परती परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं. गांव की बदलती हुई छवि को वे लिख देते हैं. वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए. हर गांव की अपनी कथा होती है, इतिहास होता है. इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों  में गढ़ देते हैं. गांव की कथा बांचते हुए रेणु देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं.

एक पाठक  के तौर पर रेणु की कृति 'परती परिकथा' मुझे सबसे अधिक पसंद है. दरअसल इस किताब में ज़िंदगी धड़कती है. इस कथा का हर पात्र मुझे नायक दिखता है. भवेश, सुरपति, मेरी, ताजमनी, जितेंद्र ..इन सबकी अपनी-अपनी दृष्टियां हैं. कथा के भीतर कथा रचने की कला रेणु  के पास थी. कथा में वे मन की परती तोड़ते हैं, यही मुझे खींच लेती है. दरअसल खेती करते हुए हम यही करते हैं, परती तोड़ते हैं.

परती परिकथा में सामाजिक संबंधों में बदलाव के कई प्रसंग आते हैं. मलारी और सुवेश का प्रेम मुझे सबसे करीब दिखता है. प्यार की जाति नहीं होती है. लेकिन समाज का तानाबाना उन्हें परेशान करता है और दोनों गांव छोड़कर भाग खड़े होते हैं. गांव का तमाम जीवन कुछ संस्थाओं और तथाकथित संस्कारों से बंधा होता है. जातियां ऊंची हों या नीची , सभी समान जड़ता के शिकार हैं.

निर्मल वर्मा रेणु को संत मानते थे. उन्होंने लिखा है कि जिस तरह साधु संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का अहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं, रेणु जी की मूक उपस्थिति हिंदी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती है. वहीं रेणु जैसे महत्वपूर्ण कथाशिल्पी का पत्रकार होना अपने आप में एक रोचक प्रसंग है. उन्होंने अपने रिपोतार्जों के जरिए हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध किया है.

'एकांकी के दृश्य' पुस्तक में उनके रिपोतार्जों को संकलित किया गया है. उन्होंने बिहार की राजनीति, समाज-संस्कृति आदि को लेकर पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लेखन किया था.

'चुनाव लीला- बिहारी तर्ज ' नाम से रेणु की एक रपट 17 फरवरी 1967 को प्रकाशित हुई थी. इसमें उन्होंने लिखा था-  "पत्र और पत्रकारों से कोई खुश नहीं है. न विरोधी दल के लोग और न क्रांगेस-जन. एक पत्र को विरोधी दल की सभा में मुख्यमंत्री का पत्र कहा गया. और उसी पत्र के पत्रकार को मुख्यमंत्री के लेफ्टिनेंट ने धमकियां दीं. मुख्यमंत्री को शिकायत है कि पत्रकार उनके मुंह में अपनी बात पहना देते हैं. अ-राजनीतिक लोगों का कहना है कि चुनाव के समय पत्रकारों की पांचों उंगलियां घी में रहती हैं...."

राजनीति के इस वाद-विवाद काल में रेणु की यह बात मुझे बार-बार किसानी में लगे रहने  लिए प्रेरित करती है-
" सुन रे मानुष भाई,
सवार ऊपर मानुष सत्य
ताहार ऊपर किछु नाईं "


सोचिए, मैला आंचल और परती परिकथा का लेखक यदि इस भाषा में हमें समझा रहा है तो जान लीजिए आज भी हम आशाओं -आकांक्षाओं के बीच निराश और हताश हैं और इन सबसे मुक्ति  के लिए हमें लड़ना होगा. वे प्रतिबद्धता का अर्थ केवल मनुष्य के प्रति प्रतिबद्धता से समझते थे.

रेणु अपने साथ गांव लेकर चलते थे. इसका उदाहरण 'केथा' है. वे जहां भी जाते केथा साथ रखते. बिहार के ग्रामीण इलाकों में पुराने कपड़े से बुनकर बिछावन तैयार किया जाता है, जिसे केथा या गेनरा कहते हैं. रेणु जब मुंबई गए तो भी 'केथा ' साथ ले गए थे. दरअसल यही रेणु का ग्राम है, जिसे वे हिंदी के शहरों तक ले गए. उन्हें अपने गांव को कहीं ले जाने में हिचक नहीं होती थी. वे शहरों से आतंकित नहीं होते थे. रेणु एक साथ देहात -शहर जीते रहे, यही कारण है कि मुंबई में रहकर भी औराही हिंगना को देख सकते थे और चित्रित भी कर देते थे. रेणु के बारे में लोगबाग कहते हैं कि वे ग्रामीणता की नफासत को जानते थे और उसे बनाए रखते थे. मेरे बाबूजी अक्सर चिकनी मिट्टी से जोड़कर रेणु की व्याख्या करते थे. वे कहते थे कि मिट्टी जब गीली होती है तब वह मुलायम दिखती है लेकिन जैसे ही तेज धूप और हवा में सूख जाती है तब माटी भी आवाज देने लगती है, यही रेणु का साहित्य है.

आज रेणु शब्द लिखते ही मन के भीतर गीत बजने लगता है. दरअसल उनके नाम में ही कविता है, एक गूंज है, एक संगीत है. उनके भीतर राजनीति का भी एक अलग अध्याय था. उनकी राजनीति मैला आंचल की है, जिसे सफेदपोश लोग शायद ही समझ पाएं.

रेणु के साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्तविक कसौटी नहीं है और न ही बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है. दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके. जैसे मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया. उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी है-“दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया.“


गिरीन्द्रनाथ झा किसान हैं और खुद को कलम-स्याही का प्रेमी बताते हैं...

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