वे जैसे धीमी गति से चलने वाले समाचारों के दिन थे- हालांकि कतई उनींदे नहीं। उन दिनों एक अजब सी ऊष्मा, एक अजब सी ऊर्जा पूरे जीवन और समाज में दिखती थी। बेशक, आज जैसी दानवी रफ़्तार उन दिनों नहीं थी जिसमें हर कोई जैसे हांफता हुआ, अपने विगत को कुचलता हुआ, सब कुछ भूलता हुआ, बस दौड़े जा रहा है।
उन्हीं दिनों भारत और पाकिस्तान नफ़रत की नदी के बीच से तैरते हुए दो मुल्कों की तरह उबरने की कोशिश कर रहे थे। दोनों मुल्कों के नागरिकों ने एक-दूसरे का इतना खून बहाया था कि आपस में आंख मिलाकर देखने की ताब नहीं थी। लेकिन इस लहूलुहान वर्तमान पर फिर भी वह साझा अतीत भारी था जो ज़ख़्मी होकर किनारे पड़ा था। नफ़रत की इस नदी पर टूटे हुए पुल बनाने की कोशिश फिर से जारी थी।
ऐसे सबसे पहले पुल खेलों और साहित्य की दुनिया ने बनाए। भारत और पाकिस्तान के बीच हॉकी और क्रिकेट के पहले मैच हुए तो दोनों तरफ़ आपसी भाईचारे का वह ज्वार उठा कि लगा कि सरहदें एक बार फिर बेमानी हो जाएंगी। उन्हीं दिनों की एक मार्मिक कहानी मोहन राकेश ने लिखी- मलबे का मालिक। हॉकी मैच देखने लाहौर से अमृतसर आया गनी मियां अपने पुराने मोहल्ले में पहुंचता है तो उसके बेटे को मार डालने वाले रक्खा पहलवान का गला सूख जाता है।
बहरहाल, इसी माहौल में 1952 में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम भारत आई। दिल्ली में हुआ पहला टेस्ट भारत ने जीता। भारत के करीब पौने चार सौ रनों के जवाब में पाक टीम पहली पारी में 150 और दूसरी पारी में 152 पर ऑल आउट हो गई। दरअसल वह वीनू मांकड की गेंदबाज़ी का टेस्ट था। उन्होंने पहली पारी में आठ और दूसरी पारी में पांच विकेट लिए। लेकिन इसी टेस्ट की पहली पारी में 18 साल से भी छोटे एक लड़के ने सलामी बल्लेबाजी करते हुए देर तक भारतीय गेंदबाज़ों को थकाए रखा। वह सातवें विकेट के तौर पर 51 रन बनाकर आउट हुआ। ये हनीफ़ मोहम्मद थे जो अपना पहला टेस्ट खेल रहे थे।
दूसरे टेस्ट में वीनू मांकड नहीं थे जो पाकिस्तान ने जीत लिया। सीरीज़ के तीसरे टेस्ट में हनीफ़ मोहम्मद अपना पहला शतक बनाने से चूक गए। उन्होंने 96 रनों की पारी खेली। लेकिन इस बीच वीनू लौट आए थे और उन्होंने इस टेस्ट में 8 विकेट लेकर फिर भारत की जीत का रास्ता तैयार किया।
मगर, पाकिस्तानी क्रिकेट को एक नया सितारा मिल चुका था। आने वाले दिनों में हनीफ़ मोहम्मद ने दुनिया भर के मैदानों पर अपनी बल्लेबाज़ी का लोहा मनवाया। उन दिनों के चलन के विपरीत वे बहुत ठोस और सुरक्षात्मक बल्लेबाज़ थे। सब्र, तकनीक और एकाग्रता में उनका कोई सानी नहीं था। वे गेंदबाज़ों को थका डालते और सामने वाले बल्लेबाजों को रन बनाने के अवसर देते। अपनी इसी विशिष्टता की वजह से उन्होंने बहुत लंबी पारियां खेलीं। टेस्ट मैचों की सबसे लंबी पारी खेलने का विश्व कीर्तिमान उन्हीं के नाम है।
1957-58 में वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ उन्होंने 970 मिनट बल्लेबाज़ी की और 337 रनों की मैराथन पारी खेली। इस टेस्ट में खेल रहे वेस्ट इंडीज बल्लेबाज़ी के बहुत बड़े सितारे इस मैराथन के गवाह रहे। गैरी सोबर्स, रोहन कन्हाई, कोनराड हंट, एवर्टन वीक्स और वाल्काट जैसे शानदार बल्लेबाज़ों से भरी टीम पर हनीफ़ की पारी भारी पड़ गई। हालांकि हंट और वीक्स ने भी शतक लगाए थे- वीक्स तो 196 रन बना गए थे, लेकिन वह टेस्ट हनीफ मोहम्मद की पारी के लिए याद किया जाता है। हालांकि इसी सीरीज़ में महानतम ऑलराउंडर गैरी सोबर्स ने 365 रन बनाकर लेन हटन के 364 रनों का रिकॉर्ड भी तोड़ा और हनीफ की पारी की चमक को कुछ धुंधला कर दिया।
हनीफ़ मोहम्मद लंबे अरसे तक खेलते रहे। क्रिकेट शायद उनके ख़ून में था। उनके तीन और भाइयों ने पाकिस्तान की टेस्ट टीम की नुमाइंदगी की। 1969 में जब न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़ वे अपना आख़िरी टेस्ट खेल रहे थे तो उनके साथ टीम में उनके दो छोटे भाई मुश्ताक मोहम्मद और सादिक मोहम्मद भी थे। दरअसल सादिक मोहम्मद के साथ उन्होंने पारी की शुरुआत की थी। बाद में मुश्ताक मोहम्मद पाक क्रिकेट टीम के कप्तान भी बने।
1965 और 1971 की जंग के बाद जब भारत-पाकिस्तान में रिश्ते टूटे हुए थे और 1977 में जब अरसे बाद भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान गई तो पाक टीम के कप्तान मुश्ताक मोहम्मद ही थे। उस सीरीज़ के पहले टेस्ट में फ़ैसलाबाद में हनीफ के तीसरे भाई सादिक मोहम्मद ने माजिद ख़ान के साथ पारी शुरू की थी और अपना पहला टेस्ट खेल रहे भारतीय गेंदबाज़ कपिल देव की पहली ही गेंद उनके हेलमेट से टकराई थी।
लेकिन हनीफ़ मोहम्मद की असल परंपरा उनके भाइयों में नहीं, दूसरी जगह दिखती है। खेल के लिहाज से सोचें तो हनीफ मोहम्मद के असल भाई सुनील गावस्कर ठहरते हैं। सब्र और एकाग्रता और ठोस तकनीक की जो सारी ख़ूबियां हनीफ़ में थीं, वे सब जैसे गावस्कर में चली आईं। ज्यॉफ बायकॉट भी इसी परंपरा के बल्लेबाज़ रहे। ये तीनों सलामी बल्लेबाज भी रहे। चाहें तो इस कड़ी में हम कुछ हद तक राहुल द्रविड़ को भी जोड़ सकते हैं।
बहरहाल, ये सब यादें हैं- उस दौर की, जब क्रिकेट टीवी पर देखा नहीं, सुना जाता था। आज झाग की तरह उठने वाले टी-20 के रोमांच और बाज़ार के इशारे पर खेले जाने वाले एक के बाद एक एकरस वनडे मैचों के बीच उस दौर की कल्पना भी नामुमकिन है। वह दरअसल कल्पनाओं में बनने वाले महानायकों और स्मृतियों में कई-कई दिन तक चलने वाली पारियों के दिन थे- वे दिन जब इतनी फ़ुरसत हुआ करती थी कि हम बार-बार उन मैचों और खिलाड़ियों की चर्चा करें, अपने नायकों को पहचानें और याद रखें और अपने-आप को भी पहचान सकें।
अब का हाल ये है कि हनीफ़ मोहम्मद की मौत से पहले उनकी मौत की घोषणा हो जाती है। ज़िंदगी में इतना सब्र बाकी नहीं है कि सरहद पर ठिठकी मौत को इंतज़ार करने को कहे। बाहर टीवी क्रू है, दुनिया भर का मीडिया है जो कुछ सच्चे शोक और कुछ सतही तमाशे के बीच अपने नायक के मरने का इंतज़ार कर रहा है। इसलिए उनकी मौत के पहले ही उनकी मौत का ऐलान हो गया।
बाद में उनके बेटे ने बताया कि कुछ लम्हे के लिए उनकी सांस रुकी थी और उसी बीच ये घोषणा हो गई। बहरहाल, क्रिकेट की गौरवशाली अनिश्चितता को इस आख़िरी घड़ी में जीवन में उतार कर आखिरकार हनीफ मोहम्मद चल दिए। वैसे वे मेरी तरह के लोगों के लिए हमेशा नॉट आउट रहेंगे।
(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)
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This Article is From Aug 11, 2016
...आख़िरकार आउट हो गए हनीफ़ मोहम्मद
Priyadarshan
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Updated:अगस्त 11, 2016 18:12 pm IST
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Published On अगस्त 11, 2016 18:12 pm IST
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Last Updated On अगस्त 11, 2016 18:12 pm IST
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