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This Article is From Mar 08, 2016

उनकी कहानी, उनका जिक्र, जिनको हड़ताल पर जाने की भी फुरसत नहीं...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 08, 2016 13:27 pm IST
    • Published On मार्च 08, 2016 11:41 am IST
    • Last Updated On मार्च 08, 2016 13:27 pm IST
सोचिए देश में महिलाएं कितना काम करती हैं? यदि मैं कहूं कि देश के लगभग एक साल के बजट के बराबर तो चौंकिएगा नहीं। बावजूद इसके महिलाओं के इन घरेलू, लेकिन महत्वपूर्ण काम का कोई मूल्य नहीं माना जाता है। जब आप महिलाओं से काम के बारे में सवाल करते हैं और यदि महिला हाउसवाइफ है तो जवाब बहुत आसानी से सामने आ जाता है- कुछ नहीं। इस कुछ नहीं करने, माने और समझे जाने का गणित शेष आधी दुनिया पर भारी पड़ता है। मजे की बात तो यह है कि चूड़ी पहनना हमारे समाज का एक चर्चित जुमला है। चूड़ी भेंट करना कुछ नहीं करने का या अकर्मण्यता का प्रतीक है, लेकिन इन्हीं चूड़ीदार हाथों के बिना पूरी दुनिया का चक्का चलना कठिन ही नहीं असंभव है।

एक साल के बजट के बराबर है मूल्य
घरेलू जिम्मेदारियां निभाने के लिए किए गए काम को हमारा समाज न तो सामाजिक मान्यता देता है और न ही इसका आर्थिक मूल्यांकन होता है। जबकि घर के लगभग सारे काम करने की जिम्मेदारी महिलाओं के माथे ही होती है। यह जानना दि‍लचस्प होगा कि महि‍लाओं के ऐसे घरेलू कामों का गणित लगाया जाए तो इसका सालाना मूल्य लगभग 16.29 लाख करोड़ रुपए होता है। यह भारत सरकार के एक साल के बजट (जो वर्ष 2013-14 के बजट का संशोधित अनुमान 15.90 लाख करोड़ रुपए था) से अधिक होता है। इस साल देश का आम बजट तकरीबन बीस लाख करोड़ रुपए का है।

कभी हड़ताल नहीं करतीं घरेलू काम करने वाली महिलाएं
देश में 16 करोड़ महिलाएं ऐसी हैं जिनका मुख्य काम “घर की जिम्मेदारियां” निभाना है। इसे समाज में घरेलू काम के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इनकी प्रस्तुति समाज और सभ्यता की शुरुआत से ऐसी की गई है कि यह सारे काम महिलाओं के ही जिम्मे हैं। बात खाना बनाने की हो या फिर बच्चे संभालने की। इसलिए कभी ये “श्रमिक” हड़ताल नहीं करते। आप कल्पना कीजिए यदि इनकी हड़ताल हो तो क्या होगा? घर में खाना नहीं बनेगा, सफाई नहीं होगी, बच्चों की देखभाल नहीं हो पाएगी, कपड़े नहीं धुलेंगे, मेहमान-नवाजी नहीं हो पाएगी; इस तर्क को लैंगिक भेदभाव के नज़रिए से न भी देखें, तो भी उस भूमिका को मान्यता दी जानी चाहिए।

क्यों नहीं समझते इस काम का मोल
असंगठित क्षेत्र के कामगारों और महिला श्रम के प्रति लैंगिक आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है। देश की जीडीपी में भी ऐसे श्रम का कोई ठोस पैमाना नहीं है। देश की जनगणना में यह देखा जाता है कि देश में गैर-कार्यकारी जनसंख्या (आर्थिक योगदान के नजरिए से) की क्या स्थिति है? यदि आप यह मानते हैं कि घरेलू काम भी श्रम है और इनका आर्थिक मूल्य है, तो आप इन आंकड़ों को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे। इन कामों को कौशल पूर्ण मानते हुए साल 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी एक मामले में महि‍ला के घरेलू श्रम को कुशल मानते हुए मुआवजा आदेश दि‍या था।  यदि हम आंकलन करें तो घरेलू काम के लिए एक महि‍ला को औसत न्यूनतम मजदूरी के रूप में 283 रुपए का भुगतान करना होता, (देश को पांच जोन में बांटते हुए ज़ोनवार उन राज्यों  की औसत मजदूरी निकाल ली जाए, तो यह तकरीबन 283 रुपए प्रति‍दि‍न होती है) तो इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा? इस हि‍साब से देश में ऐसी 15.99 करोड़ महि‍लाओं के सालभर के श्रम का मूल्य लगभग 16286 अरब रुपए होगा। यह राशि साल 2013-14 के सरकार के कुल सालाना बजट 15900 अरब रुपए के बराबर है।

कोर्ट ने भी माना
श्रम की परिभाषा मानवीय मूल्यों पर आधारित नहीं है; यदि होती तो निःसंदेह स्त्री के योगदान को पहचान मिलती और उसका मूल्यांकन भी होता। वह ऐसे श्रम को ही मान्यता देती है, जहां माथे से टपकता पसीना दिखाई दे! सवाल यह है कि घरेलू काम को “आर्थिक रूप से अनुत्पादक काम” की श्रेणी में क्यों रखा जाता है?  देश में ऐसे कई मौके आए हैं जबकि देश के न्यायालय ने महि‍लाओं के घरेलू श्रम को रेखांकि‍त कि‍या है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जीएस संघवी और एके गांगुली की युगलपीठ के एक आदेश को इस संबंध में रेखांकि‍त कि‍या जा सकता है, जि‍समें उन्होंने परि‍वार में महि‍ला के श्रम का मूल्यांकन करते हुए मुआवजा राशि का आदेश दि‍या था।

ज्यादा काम करती हैं महिलाएं
माउंटेन रिसर्च जर्नल के एक अध्ययन के दौरान उत्तराखंड की महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं, पर जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन 9 घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे काम कर रही थीं। उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान किया जाता तो पुरुष को 128 रुपए प्रति‍दि‍न और महिला को 228 रुपए प्रति‍दि‍न प्राप्त होते।

एवेंजेलिकल सोशल एक्शन फोरम और हेल्थ ब्रिज (नागपुर) ने वर्ष 2009 में एक अध्ययन किया था कि महिलाएं घर पर जो 9 तरह के काम करती हैं, यदि उनके लिए खर्च करना पड़े तो ग्रामीण क्षेत्रों में 1350 रुपए और शहरों में 2750 रुपए प्रतिमाह जेब से निकालने होंगे। यह स्त्रियों का हमारी अर्थव्यवस्था में सीधा योगदान है, परंतु उसे अदृश्य बना दिया गया है।
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