आप और हम जानते हैं कि भारतीय संविधान के अनुसार देश की राजभाषा का दर्जा हिन्दी को हासिल है... वैसे संविधान की आठवीं अनुसूची में अनुच्छेद 344 (1) तथा अनुच्छेद 351 के अंतर्गत कुल 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, परंतु देश के उत्तरी से दक्षिणी छोर तक हमारे देश में शायद 100 या उससे भी अधिक भाषाएं अथवा बोलियां बोली जाती हैं, जिन्हें देश की भाषाएं कहा जा सकता है... लेकिन फिर भी राजभाषा का होना आवश्यक होता है, क्योंकि राजभाषा की अनुपस्थिति में देशवासियों में एकता की भावना का विकास होना बेहद दुरूह होता है... और हां, एक राजभाषा के बिना विविधता से भरे हमारे जैसे देश में सभी देशवासियों का परस्पर संवाद भी संभव नहीं हो सकता...
जैसा कि हमने देखा, हमारे संविधान निर्माताओं ने भी इस आवश्यकता को महसूस किया था, और स्वीकार किया था कि इस देश में हिन्दी ही वह राजभाषा हो सकती है... लेकिन आज़ादी के 70 साल और संविधान के लागू होने के लगभग 67 साल बीत जाने के बावजूद न सिर्फ हिन्दी की तरक्की नहीं हो पाई है, अंग्रेज़ी का प्रभुत्व भी पहले से कुछ बढ़ा ही है... मेरे लिए अंग्रेज़ी का महत्व कम न होना कतई अफ़सोसनाक नहीं, लेकिन हिन्दी को उसका उचित दर्जा न मिलना (कागज़ों पर नहीं, व्यवहार में), और उससे भी ज़्यादा उसकी 'दुर्गति' होना बेहद अफ़सोसनाक है...
सही मायनों में देखें तो इस स्थिति के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारी मानसिकता में घुसती जा रही अंग्रेज़ियत है, हम पर सैकड़ों साल तक राज करके गए अंग्रेज़ या उनकी भाषा नहीं... आधुनिकता और गला-काट प्रतियोगिता में स्थान सुरक्षित करने के नाम पर हम अगर अपनी अगली पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखाएं तो कोई परेशानी नहीं, लेकिन ऐसा हिन्दी की कीमत पर होगा, तो वह देश का नुकसान है... दरअसल हमें इस बात को समझना होगा कि कोई भी भाषा सिर्फ भाषा नहीं होती, उसे बोलने और व्यवहार में लाने वाले देश की संस्कृति की अध्यापक और परिचायक भी होती है, सो, यदि हमारा बच्चा हिन्दी बोलने और समझने में ही कठिनाई महसूस करेगा, तो शायद उसके लिए भारतीयता और भारतीय गौरव को समझना नामुमकिन न सही, बेहद मुश्किल ज़रूर होगा...
अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने, बोलने और समझने वाले किसी भारतीय को देखना गर्व और खुशी का एहसास कराता है, क्योंकि वह किसी दूसरे देश के व्यक्ति को हमारे देश और उसकी गौरवगाथाओं के बारे में जानकारी देकर प्रभावित कर सकता है, कहीं भी हमारा या हमारे देश का उचित प्रतिनिधित्व कर सकता है... लेकिन कल्पना करें कि यदि ऐसे ही किसी व्यक्ति को अपनी मातृभाषा हिन्दी समझने में कठिनाई होती रही हो, क्योंकि उसे बचपन से स्कूल या घर में हिन्दी बोलने या समझने का अवसर नहीं मिला, तो उसके अंग्रेज़ी के बेहतरीन ज्ञान का देश को क्या लाभ हो सकता है...
आमतौर पर किसी भी देश की गौरवगाथाएं वहीं के निवासियों द्वारा स्थानीय भाषाओं में ही लिखी या कही जाती हैं... सो, यदि मातृभाषा का ही पर्याप्त ज्ञान नहीं होगा, तो किसी के लिए भी देश को समझना क्योंकर मुमकिन है... और हां, एक ज़रूरी बात और - जिस देश को आप समझेंगे ही नहीं, उसके लिए गर्व की अनुभूति क्योंकर आपके दिल में पैदा होगी... सो, यह तो तय है कि देश को समझने के लिए देश की भाषा का अच्छा ज्ञान अनिवार्य है...
अब बात हिन्दी की... सैकड़ों सालों तक ग़ुलामी का दंश झेलते रहे देश में किसी भाषा के लिए बचे रहने का एकमात्र उपाय 'सहिष्णु' हो जाना है, सो, वैसा हिन्दी ने अपने नैसर्गिक गुण के चलते सरलता से कर लिया, और विदेशी भाषाओं के बहुत से शब्दों को ख़ुद में समाहित करती चली गई, और दूसरी ओर समृद्ध भी होती रही... किसी भी भाषा की पहुंच, शक्ति और संपन्नता के लिए वृहद्तर शब्दकोष के अतिरिक्त इस बात का भी समान महत्व होता है कि वह नए शब्दों का निर्माण और अन्य भाषाओं के शब्दों को कितनी तेज़ी से आत्मसात करती है... हिन्दी में ये सभी गुण नैसर्गिक रूप से मौजूद हैं... संस्कृत के अलावा अरबी, फ़ारसी, उर्दू और अंग्रेज़ी के भी न जाने कितने ही लफ्ज़ इस तरह हिन्दी में समा लिए गए हैं, कि आज बहुत से शब्दों में तो एहसास भी नहीं होता कि वे हिन्दी के नहीं हैं, या नहीं थे...
हमारे मुल्क में हिन्दी एक ऐसी भाषा है, जिसे जानने वाले कश्मीर से कन्याकुमारी और कोलकाता से कच्छ तक मिलते हैं... सो, स्वाभाविक है कि हिन्दी ही वह भाषा हो सकती है, जिसमें हम अपने देश को जान पाएंगे... एक स्पष्टीकरण भी देना चाहूंगा - ऐसा नहीं है कि भारत की अन्य भाषाए यह काम नहीं कर रही हैं, या ऐसा करना उनके लिए सम्भव नहीं है, लेकिन यहां मेरा उद्देश्य एक ऐसी भाषा के बारे में बात करने का है, जो सारे देश में पहले से प्रसारित हो, सो, ऐसी भाषा हिन्दी ही हो सकती है...
हिन्दी की मौजूदा स्थिति को हम आज तो निराशाजनक नहीं कह सकते, लेकिन कम से कम बड़े शहरों के अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से बात करके यह एहसास बहुत तेज़ी से दिल में घर करता है कि शायद निराशाजनक हालात दूर नहीं हैं... जो बच्चा आज उनतालीस, उनचास, उनसठ, उनत्तर और उनासी के बीच फर्क नहीं समझेगा, उसके लिए आने वाले दिनों में आम देशवासियों से बात करना, और देश के गौरव को समझना क्योंकर मुमकिन होगा... सो, आइए, भाषागत राजनीति में उलझे बिना ऐसे काम करें, जिससे हिन्दी और समृद्ध, और सशक्त हो...
विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...
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