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This Article is From Mar 11, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : उत्तर प्रदेश में मोदी-शाह का कमाल

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 11, 2017 21:28 pm IST
    • Published On मार्च 11, 2017 21:28 pm IST
    • Last Updated On मार्च 11, 2017 21:28 pm IST
उत्तर प्रदेश की राजनीति का तिलिस्म टूट गया है. यूपी को यूपी वाला ही समझ सकता है, इसके क्षेत्रीय नेताओं को कोई नहीं हरा सकता है... यूपी की राजनीति ने इस धारणा को मज़बूत किया कि राष्ट्रीय राजनीति में गठबंधन की राजनीति ही चलेगी. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में अमित शाह ने इसे ध्वस्त किया फिर तीन साल बाद 2017 में दोबारा से ध्वस्त किया. 'यूपी को गुजरात पसंद है', पता नहीं किसी ने ये नारा क्यों नहीं लिखा, लेकिन यूपी ने अपनी तरफ से यही नारा दे दिया है. यूपी को समझ कर भारतीय राजनीति को समझने वाले कंफ्यूज़ हो गए हैं. फिलहाल यही लगता है कि यूपी को अमित शाह से बेहतर कोई नहीं जानता और यूपी प्रधानमंत्री मोदी से बेहतर किसी को नहीं पहचानता है. कांग्रेस और मोदी से पहले बीजेपी, बसपा और सपा में फंसी यूपी अपने लिए रास्ता बनाने का तरीका खोज नहीं पाई. कई साल लग गए. मोदी और अमित शाह ने तीन साल के भीतर दो-दो बार इन दलों को किनारे लगा दिया. कांग्रेस गठबंधन करने के बाद भी 28 सीटों से घटकर 6 पर आ गई. बीजेपी की सहयोगी अपना दल 9 सीटें लेकर कांग्रेस से ऊपर आ गई. 11 सीटों पर लड़कर 9 सीटें जीतने का स्ट्राइक रेट कांग्रेस से भी बेहतर है. जाट वोट के नाम पर बीजेपी को डराने वाली राष्ट्रीय लोक दल को एक ही सीट छपरौली की मिली है.

बीजेपी ने 2014 में 300 से अधिक सीटों पर बढ़त हासिल की, तीन साल बाद 324 सीटों पर जीत मिली. 62 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार 50,000 से ज़्यादा वोट से जीते हैं. यह जनादेश सिर्फ यूपी का नहीं है बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज के लिए भी है. 2019 से पहले जनता ने उन्हें थैंक्यू नोट भेज दिया है. यूपी की इस जीत की कहीं कोई समानता नहीं मिलती है. एक मामले में इसकी बिहार से तुलना की जा सकती है. नीतीश कुमार ने वहां अति पिछड़ा और महादलित की राजनीति की खोज की और घनघोर तरीके से उसे गढ़ा. यही एक पैटर्न यूपी में बीजेपी के साथ दिख रहा है. बीजेपी की इस जीत से एक लाभ उस तबके को मिलेगा या मिलना चाहिए जो यादवों और जाटवों के वर्चस्व की राजनीति के कारण नहीं मिल सका था. ग़ैर यादव पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग को भी सत्ता में हिस्सेदारी मिलेगी. उनके भीतर से भी सत्ता का लाभार्थी वर्ग पैदा होगा. जब तक यह भूख बनी रहेगी, बीजेपी यूपी में स्थायी रूप से रहेगी. जैसे ही वर्चस्व के रूप में अति पिछड़ा कायम होगा राजनीति इसे चुनौती देगी. फिर कोई नया समीकरण बनेगा, कोई नया नेता सामने आएगा. फिलहाल यह समीकरण और नेतृत्व की चमक बीजेपी के पास आया है.

बीजेपी के नेताओं ने भी बार-बार कहा कि ब्राह्मण, बनिया की पार्टी अब ग़रीब और अति पिछड़ों की पार्टी बन गई है. इसके बाद भी बीजेपी को इतनी बड़ी कामयाबी नहीं मिलती अगर उसे सभी वर्गों से उत्साहजनक समर्थन नहीं मिलता. बीजेपी ने अपने लिए जीत हासिल की है लेकिन हारने वालों को राजनीति को समझने की चुनौती पेश की है. हार-जीत होती रहती है, लेकिन ये वो जीत है, जिसके सामने हारने वाला बिफर गया है. अखिलेश यादव और मायावती की बातों से लगा कि वो हार देख तो पा रहे हैं, मगर हार का कारण समझ नहीं पा रहे हैं. कभी अपने विकास से उनका यकीन उठ रहा है तो कभी ईवीएम मशीन से. 1980 के बाद से किसी पार्टी को इतना बहुमत नहीं मिला था. यह जीत इतनी बड़ी है कि उत्तराखंड में ही बीजेपी की अपनी बड़ी जीत पर भारी है. मणिपुर और गोवा में भी बीजेपी चाहे तो सरकार बनाने का प्रयास कर सकती है.

उमा भारती ने एनडीटीवी इंडिया से बात करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री एक नई आर्थिक संस्कृति विकसित कर रहे हैं, जहां अमीर और ग़रीब का झगड़ा नहीं है, मगर ग़रीब का चेहरा सबसे आगे है. वो एक ऐसी जनता तैयार कर रहे हैं जो सरकार पर आश्रित न हो, अपने पैरों पर खड़ी हो सके. अमित शाह ने कहा है कि बीजेपी की विचारधारा और प्रधानमंत्री की विकास की नीतियों की जीत है. अमित शाह ने कहा कि पहले दो चरण के चुनाव के बाद उन्होंने कहा था कि बीजेपी 125 में से 90 सीटें जीतेगी, लेकिन उससे भी अधिक 115 सीटों पर जीत हासिल हुई है. ये वो दौर था जब जाट मतदाताओं के कारण बीजेपी को चुनौती मिलती दिख रही थी.

अमित शाह ने ये भी कहा है कि यूपी की सरकार की पहली बैठक में किसानों का कर्ज़ा माफ किया जाएगा. कांग्रेस ने मुद्दा उठाया लेकिन बीजेपी करके दिखाने जा रही है. हो सकता है यूपी के बाद दूसरे राज्यों के किसानों को भी इस फैसले का लाभ मिले. बीएसपी 19 सीटों पर पहुंच गई है. 1989 में जब पार्टी ने पहला चुनाव लड़ा था, तब उसे 13 सीटें आई थीं. जिस बीएसपी को राम जन्मभूमि के दौर में बीजेपी को हराने का गौरव प्राप्त था, बीएसपी कहती थी 'मिल गए मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम'. 27 साल बाद बीजेपी ने मुलायम और कांशीराम की बनाई पार्टी को हवा में उड़ा दिया है. राजनीति का न्याय भी प्रकृति का न्याय होता है. बसपा के पास पांच साल सोचने के लिए वक्त मिला मगर उसने जो भी किया, नहीं चला. अमित शाह को यूपी को समझने का बहुत कम वक्त मिला, 2013 से 2017 के बीच दो बार जीत गए. हर जाति वर्ग में बीजेपी को जबरदस्त समर्थन मिला है. अनुसूचित जाति बहुल विधानसभाओं में 84 फीसदी सीटें बीजेपी को मिली हैं. ओबीसी बहुल विधानसभाओं में 78 प्रतिशत सीटों पर बीजेपी जीती है. जाट बहुल 90 फीसदी सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की है. यादव बहुल 65 फीसदी सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की है. शहरी क्षेत्रों की 82 फीसदी सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की है. ग्रामीण क्षेत्रों की 80 फीसदी सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की है.

एक तरह से देखें तो 2017 की मोदी लहर 2014 की मोदी लहर से भी बड़ी है. 2014 में बीजेपी को 337 सीटों पर बढ़त थी. सपा-कांग्रेस गठबंधन को 310 सीटें आनी चाहिए थी, मगर बीजेपी को 324 सीटों पर जीत हासिल हुई. 2014 की तुलना में 14 सीट ज़्यादा. नए पैमाने से अगर यूपी को नहीं देखा गया तो इस महाजनादेश के साथ नाइंसाफी होगी. अनुसूचित जाति के मतदाताओं मे से 41 फीसदी ने बीजेपी को पसंद किया है. बीएसपी को सिर्फ 25 फीसदी अनुसूचित जाति के मतदाताओं ने पसंद किया है. जाट मतदाताओं में से 45 फीसदी बीजेपी को, 21 फीसदी बसपा को और 22 फीसदी भाजपा को दिया है. यादव मतदाताओं में से 38 फीसदी बीजेपी को, 32 फीसदी सपा कांग्रेस को और 22 फीसदी बीएसपी को मिला है. जनरल मतदाताओं में से 44 फीसदी बीजेपी को, 24 फीसदी सपा कांग्रेस को और 21 फीसदी बीएसपी को. ये आंकड़ा बताता है कि यूपी की राजनीति  में जाति की घेराबंदी टूट गई है. न कास्ट है, न कोर कास्ट है, न मिसलेनियस कास्ट है.

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