मोदी सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के वोट बैंक को लुभाने की एक और कोशिश की है. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति में एससी और एसटी वर्ग को आरक्षण देने की बात कही है. आपको याद दिला दूं कि इसी साल मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला पलट दिया था जिसमें एससी एसटी एट्रोसिटी ऐक्ट में कुछ बदलाव किए गए थे. हाल के विधानसभा चुनावों में यह भी एक मुद्दा रहा था और माना जा रहा है कि खासतौर से मध्य प्रदेश में बीजेपी को इसी वजह से सवर्णों की नाराजगी झेलनी पड़ी थी. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लखनऊ में मंगलवार को एक कार्यक्रम में कहा कि निचली अदालतों में नियुक्ति के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा बनाई जा सकती है जिसमें यूपीएससी सिविल सेवा की ही तर्ज पर अखिल भारतीय स्तर पर जजों की नियुक्ति के लिए परीक्षा करें. इसमें एससी/एसटी वर्ग को आरक्षण दिया जा सकता है. परीक्षा के बाद जजों की नियुक्तियां राज्यों में की जा सकती हैं.
रविशंकर प्रसाद ने टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा कि अगर आरक्षण दिया जाता है तो इससे वंचित तबके को भी ऐसे पदों पर आने का मौका मिलेगा. वैसे कानून मंत्री ने पिछड़े वर्ग का जिक्र नहीं किया लेकिन माना जा रहा है कि मंडल कमीशन को लागू करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर इस प्रस्तावित न्यायिक सेवा में भी ओबीसी आरक्षण होगा.
आपको बता दूं कि देश भर में निचली अदालतों में बड़ी संख्या में खाली पड़े पद एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आए हैं. केंद्र सरकार 5400 से अधिक रिक्तियों को भरने के लिए सुप्रीम कोर्ट से मिल कर काम कर रही है. इसी दौरान यूपीएससी या फिर किसी अन्य केंद्रीय एजेंसी के जरिए राष्ट्रीय परीक्षा कर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जिला न्यायाधीशों और अतिरिक्त सेशन जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव सामने आया है. केंद्र के इसी प्रस्ताव को सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल याचिका के रूप में बदल दिया और सभी राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और हाई कोर्ट को नोटिस जारी कर जवाब मांगा. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई निचली अदालतों में लंबित पड़े करीब पौने तीन करोड़ मामलों के जल्द निपटारे के लिए इन पदों को तुरंत भरने की इच्छा जता चुके हैं.
अभी निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति राज्य लोक सेवा आयोगों और हाई कोर्ट की ओर से परीक्षाओं के जरिए होती है. इनमें आरक्षण का सवाल उठता रहा है क्योंकि एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग की नुमाइंदगी बेहद कम है. केंद्र सरकार ने पिछले साल 24 हाईकोर्ट को पत्र लिख कर न्यायपालिका में इन वर्गों की नुमाइंदगी के आंकड़े मांगे थे. सिर्फ 11 राज्यों की ओर से जवाब आया. मध्य प्रदेश और ओडिशा को छोड़ किसी अन्य बड़े राज्य ने जवाब भी नहीं दिया.
इन आंकड़ों से पता चला कि कुल 3973 जजों में 563 एससी, 478 एसटी और 457 ओबीसी जज हैं. यह करीब 38 प्रतिशत है. जबकि बड़ी अदालतों में इन वर्गों के जजों के कोई आंकड़े नहीं मिल सके. जजों की नियुक्ति में आरक्षण का प्रस्ताव मोदी सरकार पहले भी दे चुकी है. लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान इसे लेकर काफी मुखर रहे हैं. हालांकि अदालतें इसे लेकर सकारात्मक नहीं रहीं. नवंबर 2014 में पटना हाई कोर्ट ने बिहार सरकार की उस अधिसूचना को खारिज कर दिया था जिसमें निचली अदालतों के जजों की नियुक्ति में एससी, एसटी और पिछड़ों को आरक्षण देने की बात कही गई थी.
सुप्रीम कोर्ट उत्तराखंड के एक जिला स्तरीय जज की उस याचिका को खारिज कर चुका है जिसमें जजों की नियुक्ति में एससी/एसटी को आरक्षण देने के लिए हाई कोर्ट को निर्देश देने को कहा गया था. सरकार बड़ी अदालतों में नियुक्ति के लिए गठित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में भी एससी एसटी ओबीसी, अल्पसंख्यक या महिला के एक सदस्य के लिए आरक्षण की बात कर चुकी है. हालांकि इस आयोग के कानून को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है. तो क्या चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार का यह दांव कारगर साबित होगा? या फिर कहीं इससे उसे सवर्णों की नाराजगी तो नहीं झेलनी पड़ेगी?
(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)
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