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This Article is From Dec 31, 2020

इस बरस कई वायरस...

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 06, 2021 18:19 pm IST
    • Published On दिसंबर 31, 2020 18:31 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 06, 2021 18:19 pm IST

इस पूरे साल दुनिया एक वायरस से त्रस्त रही. इसकी वजह से सबको घरों के भीतर बंद होना पड़ा. इसकी वजह से उद्योग-धंधे चौपट हुए, लोगों की नौकरियां छूटीं, रोज़गार गया और करोड़ों लोगों के सामने भूखो मरने जैसे हालात आ गए. इस वायरस की वजह से दुनिया भर में आधिकारिक तौर पर 18 लाख लोग मर गए जिनमें से शायद ज्यादातर के हिस्से ज़िंदगी के कई बरस बाक़ी थे. लेकिन इसी वायरस ने कई लोगों को कुछ और अमीर बना दिया. वायरस का टीका खोजने वाली कंपनियों की चांदी बताई जा रही है. मास्क का लघु उद्योग ख़ूब फूला-फला, सैनेटाइज़र और पीपीई किट बनाने वाले पहले से अमीर हो गए. दुनिया भर में- और ख़ास कर अपने देश में- अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ती खाई का यह वायरस पहले से मौजूद है लेकिन हम उसे पहले कभी देखने को तैयार नहीं हुए. इस साल देश में लॉकडाउन की घोषणा के बाद मार्च-अप्रैल में बेघर-बेरोज़गार हुए लाखों मज़दूरों की जो भीड़ सड़कों पर उतर पड़ी, सैकड़ों मील दूर अपने छूटे हुए घरों की ओर चल पड़ी, वह हमारी चेतना को झकझोरने वाला था. हालांकि लगता यही है कि चेतना पर यह चोट कुछ कविताओं और कहानियों के मलहम के साथ- और कुछ वक़्त के साथ- भरती चली गई और हालात फिर वैसे ही हो गए. अगर अभी पूरी तरह नहीं हुए तो देर-सबेर हो जाएंगे. 

दरअसल यह भी एक वायरस ही है- स्मृतिभ्रंश का वायरस. हम कुछ भी याद रखने को तैयार नहीं हैं. बल्कि याद रखने की हालत में नहीं हैं. 24 घंटे तरह-तरह के तमाशों में डूबा मीडिया हमारे लिए रोज़ नए मुद्दे, नई बहसें लाता है. बिल्कुल नसें तड़का देने वाली तल्लीनता के साथ हम उससे चिपक जाते हैं. लेकिन अगली सुबह जैसे सबकुछ धुल जाता है और फिर हम नई बहस के लिए चल पड़ते हैं. बड़े से बड़े दुख की उम्र हमारे लिए बहुत छोटी होती जा रही है. हम सोशल मीडिया पर एक के दुख में शामिल होते हैं और अगले ही पल दूसरे की ख़ुशी में. दुख और ख़ुशी हमारे लिए जैसे महसूस करने की चीज़ें नहीं, बस आयोजन हैं जिनमें अपनी उपस्थिति जता देनी है. बड़ी से बड़ी त्रासदी हमारे लिए तमाशा है. 

इस स्मृतिभ्रंश ने भी एक वायरस पैदा किया है- नकली स्मृतियों और भावनाओं के निर्माण का वायरस. जब वास्तविक स्मृति नहीं बची है तो चेतना में अतीत के अन्यायों का वायरस डाला जा रहा है. घृणा का वायरस तो जैसे हमारी सामाजिकता और राष्ट्रीयता की देह को नहीं, आत्मा को भी बीमार बना चुका है. बीते कुछ वर्षों में गोरक्षा के नाम या किसी और बहानों से मॉब लिंचिंग की जो प्रवृत्ति है, उसकी ख़बरें नहीं आईं, क्योंकि लॉकडाउन की वजह से हर तरह का कारोबार ठप्प रहा, लेकिन नफ़रत का वायरस कितना ख़तरनाक है, इसके कई उदाहरण देखने को मिले.

शाहीन बाग जैसे लोकतांत्रिक आंदोलन को इस वायरस ने टुकड़े-टुक़डे गैंग की साज़िश बताया. मौजूदा किसान आंदोलन से पहले यह याद नहीं आता कि और किस आंदोलन में घर-परिवार और मोहल्लों की महिलाओं ने इतने बड़े पैमाने पर भागीदारी की. गरीब घरों की मामूली औरतें जैसे इस देश के लोकतंत्र को नई आभा दे रही थीं. 80 साल से ऊपर की दादियां आंदोलन की जान थीं जिन्हें दुनिया ने हैरानी से देखा. इन्हीं में एक बिलकीस दादी को 'द टाइम' ने इस साल की सर्वाधिक प्रभावशाली शख़्सियतों में चुना. लेकिन इन पर पैसे लेकर आंदोलन करने का आरोप लगा, इन पर बिरयानी के चक्कर में धरने पर बैठने का आरोप लगा. यह नफरत का वायरस था जो अपनी अभिव्यक्ति में बिल्कुल चरम पर दिख रहा था. कोरोना और इसके बाद के लॉक डाउन ने इस आंदोलन को भी ख़त्म कर दिया. नफ़रत के इस वायरस के उदाहरण आने वाले दिनों में भी दिखते रहे.

मार्च-अप्रैल में नफ़रत के इस वायरस ने फिर सिर उठाया, जब निज़ामुद्दीन के मरकज़ में तबलीगी जमात के सदस्यों के कोरोनाग्रस्त होने की ख़बर आई. यह भी पता चला कि वहां से निकल कर जमात के बहुत सारे सदस्य देश के दूसरे हिस्सों में फैल गए हैं और उनकी वजह से कोरोना फैला है. यह सच है कि कोरोना की गंभीरता को समझने में मरकज़ के लोग नाकाम रहे और उनमें से कुछ लोगों की वजह से कई जगहों पर कोरोना का संक्रमण पहुंचा भी, लेकिन जिस तरह इस पूरे मामले को अंतरराष्ट्रीय साज़िश की तरह पेश किया गया, वह डरावना था. अगले कई दिन तबलीगी जमात के लोग किसी खलनायक की तरह देखे गए. यह कहा जाने लगा कि वे कोरोना फैलाने ही निकले हैं, यह भी ख़बर निकली कि जिन अस्पतालों में उन्हें भर्ती कराया गया है, वहां वे थूक रहे है, नर्सों से बदतमीज़ी कर रहे हैं और कोरोना फैला रहे हैं. इस सिलसिले में कई लोग गिरफ़्तार भी किए गए, कई विदेशी नागरिकों को भी पकड़ा गया. लेकिन धीरे-धीरे अदालतें सबको छोड़ रही हैं. हालांकि यह बात तब भी स्पष्ट थी कि ये लोग कोरोना के शिकार थे न कि उसके प्रसार की साज़िश करने वाले.

नफ़रत के इस वायरस को इसके पहले इसी साल हमने दिल्ली के दंगों में देखा. फरवरी के तीसरे सप्ताह उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़के दंगे जितने तकलीफ़देह रहे, उससे कम तकलीफ़देह उनकी जांच को लेकर पुलिस का रवैया नहीं रहा. नागरिकता क़ानून के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों को इन दंगों में चुन-चुन कर आरोपी बनाया गया, जबकि जो लोग वाकई दंगा भड़काते पाए गए, उनके ख़िलाफ़ पुलिस कोई कार्रवाई करती नज़र नहीं आई. यही बात भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार किए गए लेखकों-बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को लेकर कही जा सकती है. इन पर पुलिस कार्रवाई का रवैया कुछ ऐसा है जैसे ब्रिटिशकालीन भारत में राजद्रोही जेल में डाले गए हों.

लेकिन नफ़रत के इस वायरस ने जैसे हमें अंधा कर दिया है. हम यह भी देखने को तैयार नहीं कि अंततः इसकी लपट हम तक आएगी. वह आ भी रही है. यूपी ने लव जिहाद जैसा क़ानून बना दिया है और कई राज्य इस तरफ़ बढ़ रहे हैं. एक वाहियात और काल्पनिक मुद्दे को लेकर राज्य के इस गैरजिम्मेदार रवैये का कोई नागरिक प्रतिरोध तक नहीं दिखाई पड़ रहा. जो लोग अपनी मर्ज़ी से शादी कर रहे हैं, उन्हें नकली शिकायतों पर गिरफ़्तार किया जा रहा है.

इन सारे वायरसों ने हमारे राष्ट्र राज्य को बीमार बना डाला है. हमारे लिए जितनी ज़रूरी कोरोना की वैक्सीन है, उतनी ही ज़रूरी इन बीमारियों की दवा भी है. लेकिन यह दवा कैसे बनेगी, कहां से मिलेगी? यह एक बड़ा सवाल है. कोरोना से बच कर भी हम इन वायरसों से बच नहीं पाए तो मनुष्य और मानवीय समाज के रूप में बचे रहने की पात्रता खो बैठेंगे और अपात्र को सियासत भले स्वीकार कर ले, कुदरत स्वीकार नहीं करती.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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