मनोरंजन भारती की कलम से : मुफ्ती हैं कि मानते नहीं

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

मसर्रत आलम की रिहाई पर संसद में वबाल मचा हुआ है। सरकार के साथ-साथ प्रधानमंत्री भी बैकफुट पर हैं। प्रधानमंत्री को सफाई देनी पड़ी। गृहमंत्री का कहना है कि उनकी जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री से कोई बात भी नहीं हुई।

सरकार से दोनों सदनों में सफाई देते नहीं बन पा रहा है। कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज़ ने कहा कि मसर्रत आलम को साढ़े चार साल जेल में रखा गया, लेकिन उसके ख़िलाफ़ कोई चार्जशीट दायर नहीं हुई। उसे जेल में रखने का कोई क़ानूनी आदेश नहीं लिया गया। ऐसे किसी को नहीं रख सकते।

गृह मंत्री को पूरे हालात की तफ़तीश करनी चाहिए और तथ्यों के साथ सामने आना चाहिए, लेकिन कांग्रेस ने संसद में मसर्रत आलम की रिहाई का विरोध कर राष्ट्रीय विपक्ष का रोल निभाया है। इसका मतलब है कि कश्मीर कुछ और सोचता है और बाकी देश कुछ और। जो लोग कश्मीर को जानते हैं उनका मानना है कि बाकी देश कश्मीर के मामले में दिमाग से कम और दिल से ज्यादा सोचता है। तो क्या हम कश्मीर को लेकर अधिक भावनात्मक हो जाते हैं।

मसर्रत आलम की रिहाई कोई एक मामला नहीं है। ऐसे ढेरों मामले हैं जो अब सामने आएंगें। अब पता चला है कि मसर्रत आलम को छोड़ने का फैसला राष्ट्रपति सासन के दौरान लिया गया था, यानि इसकी जानकारी केंद्रीय गृह मंत्रालय को होनी चाहिए खास कर कश्मीर सेल को।

पीडीपी का बयान आया है कि राजनीतिक कैदियों की रिहाई के मामले जम्मू-कश्मीर सरकार अदालत के फैसले का पालन करेगी। यानि मुफ्ती सरकार ने गेंद कोर्ट के पाले में डाल दिया है। अदालत ने भी कहा हुआ है कि अगर कैदी अपनी सजा काट चुके हैं, तो उसे रिहा किया जा सकता है। ऐसे में जिस अगले कैदी के रिहाई की चर्चा है, उसका नाम फक्तू है, जो 22 साल से जेल में बंद है, यानि वह अपनी सजा काट चुका है।

अब सवाल यह उठता है कि मुफ्ती सरकार यह सब क्यों कर रही है। अपनी एक महीने पुरानी सरकार को वह इतनी जल्दी खतरे में क्यों डाल रहे हैं। क्या वह बीजेपी को चिढ़ा रहे हैं। मुफ्ती राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं, बीजेपी को उनसे बहुत कुछ सीखना होगा।

मुफ्ती ने पहली बार कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनाई थी और तीन-तीन साल सरकार चलाने का वायदा किया गया था, मगर मुफ्ती ने गुलाम नबी आजाद सरकार से सर्मथन वापिस ले लिया था। पहली बार भी मुख्यमंत्री बनते ही मुफ्ती ने हुर्रियत नेताओं को रिहा किया था। इस बार भी मुख्यमंत्री बनते ही मुफ्ती ने अलगाववादियों के साथ-साथ पाकिस्तान को भी सफल चुनाव के लिए धन्यवाद दिया।

यह बात भी सच है कि इस बार अलगाववादियों ने चुनाव बहिष्कार का कोई नारा नहीं दिया था। यहां पर मुफ्ती का शातिर दिमाग समझ में आता है। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री की रणनीति है कि अगर इस मुद्दे पर बीजेपी सरकार से सर्मथन वापिस लेती है तो मुफ्ती तुरंत चुनाव चाहेगें। मुफ्ती की नजर कश्मीर घाटी के 46 सीटों के साथ-साथ जम्मू के उन 6 सीटों पर है, जो मुस्लिम बहुल हैं। जम्मू कश्मीर में कुल 87 सीटें हैं।

मुफ्ती का अलगाववदियों और पाकिस्तान को धन्यवाद करने के पीछे भी यही रणनीति है कि वह उन वोटों को भी अपनी ओर करना चाहते हैं जो इन दोनों के समर्थक माने जाते है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे हम इनकार नहीं कर सकते। वहीं बीजेपी की नजर जम्मू के 37 सीटों पर हैं, यानि राजनीति दोनों ओर से हो रही है और फैसला बीजेपी को करना है कि वह बाकी देश की तरह सोचना चाहती है या कश्मीर के तरह।

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वैसे भी यह बेमेल शादी है, अधिक दिनों तक तो चलनी नहीं। बीजेपी जितना जल्दी समर्थन वापिस लेती, उतना उनके लिए अच्छा होगा वरना मुफ्ती साहब की बल्ले बल्ले।