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This Article is From Aug 02, 2018

ममता बनर्जी का मैनेजमेंट...

Manoranjan Bharati
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 02, 2018 19:59 pm IST
    • Published On अगस्त 02, 2018 19:59 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 02, 2018 19:59 pm IST
ममता बनर्जी का दिल्ली दौरा विपक्षी एकता के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण रहा है. एक तरह से ममता ने दिल्ली आकर यहां नेताओं से मुलाकात की. लगता है उन्होंने यह तय कर लिया है कि विपक्षी एकता की धुरी वही बनने वाली हैं. शरद पवार, सोनिया गांधी, अरविंद केजरीवाल से उनकी मुलाकात ने यह तय कर दिया कि विपक्षी एकता को एकजुट करने की बात अब गंभीरता से लेनी शुरू कर देनी चाहिए. ममता की विपक्षी नेताओं से कई मुद्दों पर बातचीत हुई है. उसमें एक है कि विपक्ष चाहता है कि अगला लोकसभा चुनाव वोटिंग मशीन के बजाए बैलेट पेपर से हो और इस पर एनडीए के दलों को छोड़कर सारा विपक्ष एकजुट है. हालांकि लगता नहीं है कि चुनाव आयोग विपक्ष की इस मांग को मानेगा. हां इतना जरूर है कि चुनाव आयोग यह कोशिश करेगा कि हरेक वोटिंग मशीन के साथ पर्ची निकलने की भी सुविधा हो, जिससे कि वोटर को पता चल सके कि उसने किसको वोट किया है.

दूसरा अहम और बड़ा मुद्दा है विपक्ष जैसे भानुमति के कुनबे को एक करना. यह आसान काम नहीं है, मगर विपक्ष के पास और कोई चारा नहीं है. खासकर ममता बनर्जी को पता है कि बीजेपी और अमित शाह का पूरा फोकस अब केवल पश्चिम बंगाल है और यह ममता के लिए बड़ी राजनैतिक चुनौती है. ममता को भी पता है कि अगले लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल महाराष्ट्र और कर्नाटक काफी महत्वपूर्ण हैं. यदि यहां पर बीजेपी को रोक दिया तो अगले साल सरकार बनाने के उनके दावे पर असर पड़ सकता है. इसलिए उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और कांग्रेस का साथ आना जरूरी है.
 
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ममता बनर्जी ने पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, राम जेठमलानी और शत्रुघ्न सिन्हा से भी मुलाकात की.

बिहार में लालू यादव और मांझी अच्छा टक्कर देने की हालत में हैं. कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस को साथ चुनाव लड़ना ही पड़ेगा. यह कुमारस्वामी की मजबूरी है. महाराष्ट्र में शिवसेना ने यह कह कर कि वे अकेले चुनाव लड़ेंगें कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की राह कुछ आसान कर दी है. पश्चिम बंगाल में ममता को अपना किला संभालना है. तेलांगाना के मुख्यमंत्री से ममता की मुलाकात पहले ही हो चुकी है और ओडिशा में नवीन पटनायक किसी भी हालत में बीजेपी के साथ नहीं जा सकते, क्योंकि उन्हें विधानसभा चुनाव बीजेपी के ही खिलाफ लड़ना है. इसके लिए विपक्ष को अपनी एकजुटता दिखानी जरूरी है. मगर ममता के खुद का रिकॉर्ड भी उतना साफ नहीं है.

1999 में ममता एनडीए का हिस्सा बनीं, जिसे 2001 में छोड़ दिया. उसी साल उन्होंने विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाया. फिर 2004 में एनडीए में वापस लौट आईं और 2009 में फिर एनडीए को छोड़ दिया. फिर वह उसी साल यूपीए गठबंधन का हिस्सा बनीं और उसे भी 2012 में छोड़ दिया. अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि जैसा ममता का मिजाज है, जो उनका इतिहास है क्या वो सभी को मान्य होंगी. एक नेता के रूप में यही सवाल राहुल गांधी के लिए भी पूछा जाता है. दूसरा सवाल पहले से भी बड़ा है कि क्या ममता बनर्जी किसी और का नेतृत्व स्वीकार करेंगी.

इन सारे सवालों का जवाब भविष्य बताएगा मगर विपक्ष बेचारा मरता क्या न करता उसे कुछ करना ही पड़ेगा. इसलिए इस भानुमति के पिटारे को इकट्ठा होना ही पड़ेगा, वरना उन्हें 2024 की तैयारी में जुट जाना चाहिए.

मनोरंजन भारती NDTV इंडिया में 'सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर - पॉलिटिकल न्यूज़' हैं...

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