एक दिन पहले फिल्म मांझी : द माउंटेनमैन देखी। चुनिंदा फिल्में देखने को शौक मुझे लीक से हटकर बनी इस फिल्म की ओर खींच ले गया। दशरथ मांझी की असल ज़िंदगी पर बनी फिल्म कई मायनों में एक क्लासिक फिल्म लगी। एक आदमी के संघर्ष , उसकी जी तोड़ मेहनत और पहाड़ तोड़ देने का अदम्य साहस आज के दौर में किसी और युग की बात लगता है। आज हम लोग मोबाइल फोन, सोशल मीडिया और ज़बरदस्त भाग दौड़ की जिंदगी में सब्र और लगन किस चिड़िया का नाम है भूलते जा रहे हैं। कल्पना से परे इस रियल लाइफ कहानी की जद्दोजहद, दुश्वारियां और हठ हमारी सबसे बड़ी ताकत की तरफ ध्यान खींचती है।
मांझी ने साबित किया है ठान लो तो पहाड़ भी कट सकता है। एक अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है। ज़िद करो और हासिल करो। इस फिल्म का ये आखिरी डॉयलॉग "भगवान के भरोसे मत बैठो क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो", एक लाइन में बहुत कुछ कह जाता है। बेशक दशरथ मांझी ने ज़िंदगी खपा के, पत्थरों को काट के, खून पसीना एक कर अपनी मंज़िल पाई लेकिन क्यों छोटी से मुश्किल को हम पहाड़ बना देते हैं। वो कहते हैं न ..... राई का पहाड़ बना दिया। यहां तो एक आदमी ने पहाड़ को ज़मीन पर ला दिया। दुश्वारियों को सहना, उनसे लड़ना और इनमें इतना डूब जाना कि दुश्वारी भी प्यारी लगने लगे ..... इस फिल्म ने दिखाया और सिखाया है। ये एक असल कहानी है जो फिल्मी पर्दे पर बस उस दर्द का एक हज़ारवां हिस्सा ही साकार कर पाई होगी जो दशरथ मांझी ने अपनी ज़िंदगी में 22 साल की मेहनत में सहा और जिया।
2007 में रियल लाइफ के दशरथ मांझी के गुज़र जाने के 4 साल बाद सरकार ने उनके सपने को साकार किया। हम किसी के चले जाने के बाद उसकी अहमियत समझते हैं। ये फिल्म हमारे समाज का आईना है। उस समाज का जिसे हम शहरों में बैठकर नहीं जान सकते। इसके लिए केतन मेहता के कैमरे की नज़र की दाद देनी होगी। छुआछूत से लेकर गरीबी, बेबसी और प्यार को बड़े खूबसूरत अंदाज़ में दिखाने वाली मांझी ने एक आदमी की ज़िद की अहमियत दिखाई है। दिखाया है गुरबत में रहने वाले भी मुहब्बत की मिसाल पेश कर सकते हैं। शाहजहां ने अपनी बेगम के लिए ताजमहल बनवाया तो दशरथ मांझी ने अपनी पत्नी के लिए पहाड़ का सीना चीर कर सड़क बनाई। गरीबी में संसाधनों की कमी के बीच उपजी, पनपी और लहलहाने वाली इस मुहब्बत के परवान चढ़ने की कहानी को केतन मेहता ने बड़ी खूबसूरती से फिल्मी पर्दे पर साकार किया है।
आखिर में नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी के बगैर ये फिल्म दिल को छू ही नहीं सकती। वो लाजवाब, शानदार और बेमिसाल हैं।
This Article is From Aug 31, 2015
ऋचा जैन कालरा की कलम से : मांझी का मर्म
Written By Richa jain Kalra
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 01, 2015 13:24 pm IST
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Published On अगस्त 31, 2015 16:12 pm IST
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Last Updated On सितंबर 01, 2015 13:24 pm IST
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