झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के संबंध मधुर नहीं हैं, लेकिन दोनों नेताओं में एक समानता है. दोनों खाने-पीने पर प्रतिबंध के हिमायती हैं. रघुबर दास के राज्य में मांस-मछली की खरीद-बिक्री बिना लाइसेंस के नहीं हो सकती और सरकार गाय के मांस की खरीद-बिक्री पर सख्ती से पाबंदी चाहती है. वहीं, नीतीश कुमार बिहार के लोगो को शराब की लत से दूर रखना चाहते हैं. शराब पर बिहार में पिछले साल एक अप्रैल से प्रतिबंध है और हजारों लोग अब तक जेल की हवा खा चुके हैं. वहीं सौ से अधिक पुलिस वालों पर इस प्रतिबंध पर सख्ती न लगाने के लिए कार्रवाई हो चुकी है.
झारखंड में मंगलवार और गुरुवार को दो अलग-अलग घटनाएं हुईं. एक में झारखंड पुलिस की सक्रियता के कारण सुलेमान नाम के व्यक्ति की जान बच गई. वहीं गुरुवार को रामगढ़ में असगर अली की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, असगर अली पर आरोप लगाया गया कि वह गाय के मांस का कारोबार करता था. असगर अली की मौत के सिलसिले में उनकी विधवा ने प्राथमिकी दर्ज कराई है. स्थानीय बजरंग दल, गोरक्षा समिति या स्थानीय भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के नाम इसमें शामिल हैं. मुख्यमंत्री रघुबर दास और पुलिस के बयान के बाद किसी भी आरोपी को बक्शा नहीं जाएगा. इसके बाद पुलिस गिरफ्तारी और कानूनी कर्रवाई में कोई कसर नहीं छोड़ रही, लेकिन सवाल है कि झारखंड में हिंसा का दौर क्यों नहीं रुक रहा और बिहार में ऐसी वारदातें क्यों नहीं होतीं?
इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि नीतीश सरकारी कामकाज में पार्टी को हावी नहीं होने देते. अगर कानून बनाया है तो उसे लागू करने के लिए जो एजेंसी बनाई है. यह उसी का जिम्मा होगा कि कानून को लागू कराया जाए. इसके लिए वह अपनी पार्टी या सहयोगियों की पार्टी के नेटवर्क पर भरोसा नहीं करते. इसलिए बिहार में शराबबंदी के असर पर आपको हर तरह की राय रखने वाले लोग मिल मिल जाएंगे, लेकिन कोई यह शिकायत करने वाला नहीं मिलेगा कि नीतीश या उनके सहयोगी शराबबंदी के नाम पर उगाही कर रहे हैं. हालांकि शराब के धंधे में गाहे बगाहे सभी पार्टियों के लोगों के नाम आते हैं. इसका दूसरा पहलू यह भी है कि शराबबंदी के बाद बिहार पुलिस के अधिकारी से लेकर सिपाही तक एक साल में मालामाल हो गए हैं.
जो नीतीश सरकार शुरू के दिनों में शराबबंदी के बाद क्राइम की घटनाओं में कमी का दावा करती थी, वह अब हत्या, लूट की घटनाओं में वृद्धि का सवाल किए जाने पर पुराना राग छेड़ती है कि पूरे देश में उनका नंबर फलाना है, जो कई राज्यों से काम है. हालांकि असल में उनका दवा होना चाहिए था कि हर तरह के क्राइम में कैसे बेतहाशा कमी आई है. लेकिन अगर क्राइम कम नहीं हो रहा उसका अर्थ है कि शराब की खरीद-बिक्री जारी है. सरकार बेबस है. हालांकि शराबबंदी के सिलसिले में जब एक बार अपनी पार्टी के नेता को बचाने की नीतीश कुमार की तरफ से जांच की आड़ में कोशिश हुई तब उनको केके पाठक जैसे अधिकारी से भी हाथ धोना पड़ा. पाठक जब तक राज्य के एक्साइज कमिश्नर रहे शराब के धंधे से जुड़े लोग भी मानते हैं कि उनके डर से शराब के ट्रक बहार के राज्य से लाने की कोई हिम्मत नहीं कर पाता था.
वहीं, रघुबर दास की शराबबंदी में कोई रुचि नहीं है. हालांकि उनके राज्य में लोग क्या और कैसे खाएं, खासकर अगर आप मांस-मछली खाते हैं, तो सरकार दखल देने में पूरा विश्वास करती है. राज्य में अधिकांश मीट-मछली बेचने वाले बेकार बैठे हैं, क्योंकि उनके पास लाइसेंस नहीं हैं. सरकार लाइसेंस वाली दुकानें पर्याप्त संख्या में नहीं खुलवा सकी क्योंकि उसके पास पर्याप्त संख्या में पशु चिकित्सक नहीं हैं. जहां तक गाय के मांस की खरीद-बिक्री का सवाल है, इस पर प्रतिबंध है और सरकार इसके प्रति गंभीर भी है, लेकिन इस प्रतिबंध को लागू करने के लिए सरकारी मशीनरी, मतलब पुलिस से ज्यादा बीजेपी और उनके सहयोगी संगठनों के लोग सक्रिय हैं. इन लोगों ने सरकार की अपने पुलिस से ज्यादा सरकारी कामकाज में पार्टी संगठन के प्रभाव के कारण यह काम आउटसोर्स कर दिया है. इसका परिणाम यह है कि एक ही समुदाय के लोगों को कभी गाय का व्यापार या कभी मांस की दुकान चलाने के नाम पर पिटाई और हत्या एक आम बात होती जा रही है. झारखंड को उत्तम प्रदेश बनाने के दावे पर जनमत जुटाने वाले दबी जुबान से मान रहे हैं कि यह देश का 'लिंचिस्तान' बनता जा रहा हैं.
हालांकि हाल की घटना के बाद रघुबर दास सरकार एक तरह से जगी है और पुलिस को उसने सीधी और कड़ी कर्रवाई करने की खुली छूट दी है. शायद यह एक बड़ा कारण है कि रामगढ़ की घटना से सम्बंधित अब बीजेपी के नेता भी गिरफ्तार हो रहे हैं, लेकिन इसके लिए पार्टी की फजीहत भी हो रही है. हालांकि पुलिस अधिकारी दबी जुबान से मांग कर रहे हैं कि दास पहले अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को एक बार चेतावनी दे देते तब शायद उनके लिए काम आसान हो जाएगा, लेकिन गौरक्षा के नाम पर लगे लोग शायद ही इतनी आसानी से सुनने वाले हैं, क्योंकि यह आमदनी का एक नया जरिया हो गया है. झारखंड सरकार ने रामगढ़ की घटना के बाद स्पीडी ट्रायल का आश्वासन दिया है, लेकिन सरकार अगर अपनी घोषणा पर अमल करने में विफल रही तब न केवल सरकार का इकबाल कम होगा, बल्कि घटना के दबाब में दिए जाने वाले बयानों की भी गंभीरता खत्म हो जाएगा.
लेकिन झारखंड और बिहार दोनों से सबक एक ही है. अगर आप की तैयारी न हो तब प्रतिबंध लगाकर समाज सुधारने का सपना देखना छोड़ दीजिए. अगर आपने प्रतिबंध लगाया है तब सरकारी तंत्र के कामकाज में पार्टी और कार्यकर्ताओं का दखल बंद कीजिए. घटना के बाद कड़ी कार्रवाई की प्रतिक्रिया देने से घटना की पुनरावृत्ति नहीं रुकेगी. यह घटना के कारणों पर चोट करने से ही बंद होगी.
मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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