नई दिल्ली : विनोद मेहता मौजूदा दौर के सबसे प्रयोगधर्मी संपादक रहे। उन्होंने अपने पत्रकारीय करियर की शुरुआत प्लेब्वॉय के भारतीय संस्करण डेबोनियर के संपादक के तौर पर की। चलताऊ मैगजीन से शुरू हुआ उनका सफर हार्डकोर न्यूज़ की दुनिया के सबसे कद्दावर संपादक के रूप में पूरा हुआ।
उन्होंने अपने इस सफर के दौरान भारत के सबसे पहले साप्ताहिक अखबार, द संडे आब्जर्वर को शुरू किया। इसके बाद इंडियन पोस्ट और इंडिपेंडेंट जैसे अखबारों को संभाला। पायनियर के दिल्ली संस्करण की शुरुआत की और इन सबके बाद करीब डेढ़ दशक तक आउटलुक समूह की दस पत्रिकाओं का संपादन किया जिसमें आउटलुक भी शामिल है जिसने भारतीय समाचार पत्रिकाओं में सबसे लोकप्रिय पत्रिका इंडिया टुडे को पीछे छोड़ दिया था।
एक पत्रकार और संपादक के तौर पर विनोद मेहता का बायोडाटा बेहद कामयाब और चमकदार रहा। इतना ही नहीं उनके तमाम अखबार और पत्रिकाओं ने अपने लुक और कंटेंट से एक खास पहचान बनाई। इस कामयाबी के पीछे कैसे-कैसे संघर्ष और चुनौतियों का सामना विनोद मेहता को करना पड़ा, इसका सिलसिलेवार और बेहद दिलचस्प विवरण उन्होंने अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक लखनऊ ब्वॉय ए मेमोयार में किया। चूंकि विनोद कई प्रतिष्ठानों में संपादक की हैसियत में रहे, लिहाजा उनकी किताब में स्कैंडल और गॉसिप भी कम नहीं हैं जिसका विस्तार उनकी दूसरी किताब 'एडिटर अनप्लगड' में भी नजर आया है।
लखनऊ विश्वविद्यालय से थर्ड क्लास में बीए पास और पत्रकारिता में बिना किसी पृष्ठभूमि और तालीम के भी विनोद अगर इतने कामयाब हुए तो इसमें उनके उस नजिरए का अहम योगदान है जिससे उन्होंने पत्रकारिता को एक पेशे के तौर पर अपनाया और खुद को अपने पाठकों के प्रति प्रतिबद्ध और उत्तरदायी बनाए रखा।
इस कोशिश में उनका खुद का जीवन दिलचस्प अनुभवों का सफर बन गया और अब अपने जीवन के उसी उतार चढ़ाव को उन्होंने बेहद दिलचस्प किस्सागोई के अंदाज में लखनऊ ब्वॉय के रूप में प्रस्तुत किया।
कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद विनोद नौकरी की तलाश में इंग्लैंड गए। वहां पहले से उनका स्कूली दोस्त होता है, जिसकी मदद से उन्हें पहली नौकरी मिलती है, एक ऐसी फैक्ट्री में जहां उन्हें मशीन के सहारे लोहे की छड़ों को काटना होता है। विनोद ने खुद बताया है कि ब्रिटेन में आठ साल रहने के दौरान वे इसी तरह के छोटे मोट काम करते रहे। आठ साल इंग्लैंड में रहने के बाद विनोद लखनऊ लौट आए। तब तक ना तो करियर बना और ना ही यह तय हो पाया है कि क्या करना है।
बिना किसी योजना के विनोद मेहता मुंबई पहुंचे। उन्होंने लिखा है कि 70 के दशक में भारत में मॉडलिंग और एडवर्टाइजिंग ही ऐसे दो क्षेत्र थे, जिनमें काफी संभावनाएं थी। एडवर्टाइजिंग में जाने के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं थी, इसलिए वे उस फील्ड में चले गए। लेखन से लगाव बढ़ रहा था, इसी दौरान उन्होंने मीना कुमारी की जीवनी लिखी।
1973 में डेबोनियर की शुरुआत मुंबई की एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक सुशील सोमानी ने की, कुछ ही महीनों में पत्रिका को बंद करने की नौबत आ गई। विनोद जी को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने मालिक को पत्र लिख डाला कि आप मुझे इस पत्रिका का संपादक बना दीजिए तो मैं इसे बंद नहीं होने दूंगा। उन्होंने उम्मीद भी नहीं की थी कि सोमानी उन्हें इस पत्रिका की जिम्मेदारी सौंप देंगे। उन्होंने इस पत्रिका को जमाने में काफी मेहनत की, कई स्थापित लेखकों को जोड़ा। वाकई में उस दौर के पाठकों को इसका एहसास है कि पत्रिका में लड़कियों की न्यूड फोटो छपने के साथ-साथ कुछ स्तरीय सामग्री भी पढ़ने को मिलती थी, तो उसकी वजह विनोद ही थे।
इस पत्रिका को कामयाब बनाने के बाद उन्होंने 1982 में उन्होंने मुंबई के एक प्रकाशक की मदद से देश के पहले साप्ताहिक अखबार के तौर पर संडे आब्जर्वर को शुरू किया। फिर विनोद इंडियन पोस्ट पहुंचे। विजयपत सिंघानिया को बाद में यह अखबार बंद कर देना पड़ा। एक अखबार चलाने वाले के दूसरे कारोबारी हित कैसे खबरों से प्रभावित होने लगते हैं, इसका दिलचस्प विवरण विनोद ने अपनी किताब में दिया है। टाइम्स समूह के अखबार इंडिपेंडेंट को शुरू करने के एक महीने बाद ही उन्हें यह अखबार छोड़ना पड़ा। इंडिपेंडेंट के अपने अनुभव के बारे में उन्होंने टाइम्स समूह के दो अखबारों के स्टाफरों की मानसिकता के टकराव का भी चित्रण किया है। लेकिन वाई बी च्हावण के खिलाफ एक खबर को छापने के बाद उन्हें इस अखबार से असमय विदा होना पड़ा।
इसके बाद उन्होंने दिल्ली के पायनियर संस्करण को जमाया। इस अखबार से भी उन्हें महज इसलिए हटना पड़ा क्योंकि तबके इसके मालिक ललित मोहन थापर को लगने लगा कि अखबार की खबरों से उनके दोस्त नाराज होने लगे हैं। इसके बाद शुरू होता है आउटलुक का उनका कामयाब सफर। इस पत्रिका को अलग बनाने की उनकी जद्दोजेहद किसी को भी प्रेरित कर सकती है। मैच फिक्सिंग की खबर हो, या फिर वाजपेयी और आडवाणी के बीच टकराव की खबर हो या फिर राडिया टेप से जुड़े दस्तावेज को प्रकाशित करने का मामला, इन तमाम खबरों पर काम करने के दौरान किस तरह की चुनौतियां सामने थीं, इसको उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया है।
चार दशकों के अपने संपादकत्व के अनुभव के आधार पर विनोद मेहता लिखते हैं कि आप जो भी काम करें, उसमें दक्षता हासिल कीजिए तो आपकी जरूरत हमेशा बनी रहेगी। जहां लखनऊ ब्वॉय में विनोद अपने करियर के बारे में विस्तार से बताते हैं, वहीं अपनी आत्मकथा के दूसरे हिस्से एडिटर अनप्लगड में उन्होंने पत्रकारीय प्रबंधन और कॉरपोरेट के बारीक रिश्तों को उजागर किया है।
दरअसल इस दौरान एक निष्पक्ष आवाज (हालांकि कई लोग उन्हें कांग्रेस के पक्षधर भी मानते हैं) के रूप में भी विनोद मेहता ने अपनी पुख्ता जगह बनाई। उनका जाना पत्रकारिता और बौद्धिक समाज के लिए ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई संभव नहीं होगी।