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This Article is From May 10, 2022

श्रीलंका में सिंहासन छोड़कर भागते नेता, जनता को गोली मारने के आदेश...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 11, 2022 09:51 am IST
    • Published On मई 10, 2022 23:08 pm IST
    • Last Updated On मई 11, 2022 09:51 am IST

श्रीलंका में सरकार नहीं है.अब वहां केवल जनता बची है, जो सड़कों पर है. जनता की आंधी चल रही है. नेताओं के भागने के लिए सड़क नहीं बची है. कुछ महीने हपले की बात है,जब यही जनता अपने उन नेताओं की दीवानी थी, जिनके खिलाफ आज वह सड़कों पर है.श्रीलंका में जो हुआ है, पहले उसके कारणों को समझना ज़रूरी है, वहां हो रही घटनाओं को लेकर भारत के लिए समानता निकालने से बचना चाहिए. कारणों और लक्षणों में समानताएं हो सकती हैं मगर ज़रूरी नहीं कि घटनाएं भी उसी तरह से दोहराई जाएं. इस तरह की जल्दबाज़ी से बचने में कोई हानि नहीं है. श्रीलंका में जो हो रहा है, उसे अपनी उसे अपनी आंखों की पुतलियों में सनसनी पैदा करने के लिए मत देखिए, क्योंकि सड़क पर भूखी जनता का आक्रोश देख कर तुरंत ही कविता और शेर ओ शायरी पर पहुंच जाने की आदत हो चुकी है.मै उनकी बात कर रहा हूं जो हर बात में फैज़ की नज़्में ट्टिट कर शाम को पार्टियों में चले जाते हैं. अपनी लाइफ में व्यस्त हो जाते हैं. इसलिए देखिए कि जो जनता इस वक्त पर सड़क पर है, वह कुछ महीने पहले तक बौद्ध गौरव की राजनीति के नशे में इतनी नफरत से कैसे भर गई थी, अतीत का स्वर्ण युग लौटाने की फर्ज़ी राजनीति में उसे मज़ा क्यों आ रहा था?

हिंसा की इन तस्वीरों से हम सभी को यह समझना कि क्या जनता को जनता बनने में, उसके घर के जल जाने तक का इंतज़ार करना होगा? तब तो यह जनता अपने ही किए की सज़ा भुगत रही है,अपने घर की आग से बचने के लिए सांसदों के घर जला रही है. एक सवाल और ध्यान में रखिएगा ही. क्या इस संकट में केवल धर्म आधारित अंध राष्ट्रवादी राजनीति की ही भूमिका है? उन आर्थिक नीतियों की क्या भूमिका है, जिसे कट्टर और उदारवादी दोनों प्रकार के नेता अपनाते हैं. अगर आप आर्थिक नीतियों की नज़र से भी दोनों पक्षों को देखेंगे, तो मुमकिन है, तस्वीर कुछ ज़्यादा साफ़ नज़र आएगी. श्रीलंका भी नज़र आएगा और दूसरे देशों के छोटे-छोटे संकट भी नज़र आने लगेंगे.

जनता को अंत में जनता का ही पजामा सूट करता है. उस जनता को पजामे और आपे से बाहर लाने के लिए गोटाबया राजपक्ष और महेंदा राजापक्ष की पार्टी ने 70 प्रतिशत की बौद्ध आबादी की राजनीति को हवा दी, अतीत के गौरव की स्थापना के हुंकार भरे, जनता उनके पीछे पागल हो गई. मैं कभी श्रीलंका नहीं गया और इस संकट से पहले भी गहरी दिलचस्पी का वक्त नहीं मिला. इतना बता देने से एक दर्शक के तौर पर आपके लिए भी आसान हो जाता है कि जो टीवी पर है वह न तो हीरो है, न सर्वज्ञाता है. लेकिन आपके लिए जो पढ़ा है, उसी में से बता रहा हूं.

श्रीलंका की आबादी में 70 प्रतिशत से अधिक बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं. 12.6 प्रतिशत हिन्दू हैं और 9.7 प्रतिशत मुस्लिम और 7.4 प्रतिशत ईसाई हैं. 2020 के मार्च  महीने में स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक फरमान जारी किया कि कोविड से मरने वाले मुसलमानों को भी शवों को जलाना पड़ेगा. दफनाने की इजाज़त नहीं होगी. ज़ाहिर है यह वैज्ञानिक फैसला तो था नहीं, बहुमत के दम पर छोटी आबादी को डराने और सताने की गुंडई थी. आज की आक्रोशित जनता को कभी यह सब ठीक लगता होगा, तभी तो सरकार इस तरह के बेतुके फैसले ले रही थी. इस जनता को दूसरे को सताने में सुख मिलता होगा तभी तो वह सरकार के इन फैसलों को अनदेखा कर रही थी. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार ने श्रीलंका सरकार से अपील की थी कि वह मुसलमानों के लिए कोविड शवों को जलाने के फैसले को वापस ले. दफनाने की अनुमति दे. संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि इससे मुसलमानों के प्रति हिंसा भड़केगी, समाज में नफ़रत फैलेगी.  सोमवार को स्वास्थ्य मंत्री को भी पद से इस्तीफा देना पड़ा है. 

नवंबर 2019 में गोटाब्या राष्ट्रपति बने तब श्रीलंका में सिंहली-बौद्ध के बहुमत की राजनीति की आंधी चल रही थी.अगस्त 2020 में संसद के सत्र का उदघाटन किया है और कहा कि वे बौद्ध शासन व्यवस्था को बढ़ावा देंगे और उसकी रक्षा करेंगे. इसके लिए बौद्ध धर्मगुरुओं की एक सलाहकार परिषद बनाई गई है, जिससे सरकार राय-मशवरा करेगी कि शासन कैसे चलाएं.अतीत के युग की फर्ज़ी राजनीति ने वहां की जनता का जनता वाला पजामा उतार दिया और उसके सर पर नफरत की टोपी रख दी गई. जब धर्म गुरुओं से ही सलाह लेकर सरकार चलानी थी तो फिर चुनाव ही क्यों हो रहे थे? 

श्रीलंका के एक प्रभावशाली बौद्ध भंते मेदागामा धम्मानंदा ने प्रदर्शनकारियों का साथ देने का एलान किया है. सरकार से इस्तीफा मांगा है.इन्होंने 2019 में भी चेतावनी दी थी कि राष्ट्रपति और सभी राजनीतिक दलों को राजनीतिक मामलों में बौद्ध भंते को शामिल नहीं करना चाहिए. मेदागामा धम्मानंदा ने कहा है कि वे और कई बोद्ध नेताओं ने राष्ट्रपति गोटाब्या राजापक्षे से मांग की है कि देश को संकट से बचाने के लिए अंतरिम सरकार की स्थापना होनी चाहिए. 

बौद्ध शासन की स्थापना की जड़ श्रीलंका में आधुनिक लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना होने के समय से रही है लेकिन राजापक्षे ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसे फिर से हवा देनी शुरू की और इस बार ज़ोर पकड़ने लगी.  आशुतोष वार्ष्णेय ने श्रीलंका के ऊपर कुछ ट्विट किए हैं. उससे भी आप समझ  सकते हैं. यहां वाला दिखे तो दिखे, लेकिन आप वहां वाला ही देखते रहें. बहुमत की राजनीति का बीज बहुत पहले बोया जाता है, इसका फल बोने वाले अलग-अलग समय में अलग-अलग तरीके से काटते हैं. 1956 में श्रीलंका में सिंहली भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया गया और तमिल को बाहर कर दिया गया.1980 के दशक में वहां गृह युद्ध छिड़ गया. कई दशक बाद शांति आई तो जनता को फिर से बहुसंख्यकवाद की राजनीति का चस्का लगाया गया. 70 प्रतिशत की आबादी सिंहली गौरव की आबादी की राजनीति. भाषा और धर्म इसके आधार पर 70 प्रतिशत की राजनीति होने लगी. आप दक्षिण एशिया में देखिए. हर जगह भाषा को लेकर टकराव सुलगाया जा रहा है. 

कुल मिलाकर भाषा और धर्म की राजनीति के बहाने लोकतंत्र की संस्था और लोकतांत्रिक चेतना को ध्वस्त कर देने की कहानी है श्रीलंका की जो दुनिया में पहले भी घट चुकी है और आगे भी घटती रहेगी.अमरीकी विदेश विभाग एक रिपोर्ट तैयार करता है. इसे रिपोर्ट ऑन रिलीजियस फ्रीडम कहते हैं. इसी रिपोर्ट में भारत को चिन्ताजनक वाले देश की कैटगरी में रखा गया है. 2020 की रिपोर्ट में इस बात का भारत सरकार ने प्रतिवाद भी किया था. 

श्रीलंका के ईसाई समूहों का एक व्यापक संगठन है जिसका नाम है National Christian Evangelical Alliance of Sri Lanka, NCEASL, इसकी एक रिपोर्ट के अनुसार  18 जनवरी  2020 के दिन 150 लोग गांव के एक चर्च में घुस गए और पादरी से कहा कि धार्मिक गतिविधियों को रोक कर चर्च ही बंद कर दे. 23 फरवरी को एक और इलाके में चर्च में सर्विस चल रही थी, 100 लोग घुस गए और और पादरी से सवाल करने लगे कि उनकी पूजा स्थल की कानूनी वैधता क्या है. इन 100 लोगों में एक बौद्ध धर्म गुरु भी था. जिन्हें भंते कहते हैं. अंग्रेज़ी में monk. इन लोगों ने ईसाइयों से कहा कि वे गांव छोड़ कर चले जाएं. 

धार्मिक भेदभाव की राजनीति में जनता को आनंद तो मिल ही रहा था, लेकिन देश में क्या हो रहा है, उससे जनता दूर होने लगी. दूसरे धर्म के छात्रों को मजबूर किया गया कि वे बहुमत के धर्म की पुस्तकें स्कूल में पढ़ें. जबकि वहां नियम है कि सभी को स्कूलों में अपने-अपने धर्म की शिक्षा दी जाएगी. कानून में कुछ लिखा है, ज़मीन पर कुछ हो रहा है. धर्म का आतंक फैलता जा रहा था. हां 27 अक्टूबर 2021 को श्रीलंका में एक टास्क फोर्स का गठन हुआ था. इसे एक देश एक कानून भी कहा जाता है. 13 सदस्यों के इस टास्क फोर्स में केवल सिंहली बौद्ध समुदाय से ही सदस्य बनाए गए. राजापक्षे की यह सनक जनता को नज़र नहीं आई कि इस तरह से भेदभाव क्यों हो रहा है. नवंबर 2021 की इस खबर में लिखा है कि श्रीलंका के कैथॉलिक बिशप कांफ्रेंस ने राष्ट्रपति गोटाब्या से मांग की है कि वे एक देश एक कानून को लेकर बनाए गए टास्क फोर्स को वापस लें. इसमें तमिल, हिन्दू, कैथोलिक और ईसाई अल्पसंख्यकों में से किसी को सदस्य नहीं बनाया गया है. कानून मंत्री अली साबरी ने तब बयान दिया था कि एक देश एक कानून के लिए टास्क फोर्स बनाते समय उनसे पूछा तक नहीं गया. 

 इसी तरह 1 जून 2020  को पुरातात्विक और ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण के लिए एक कमेटी बनाई गई. इसमें भी केवल सिंहली बौद्ध लोगों को ही सदस्य बनाया गया.इसका काम था मुस्लिम और तमिल बहुल इलाकों में पुरातात्विक स्थल का सर्वे करना. इसके ज़रिए उन धर्म स्थलों के बौद्ध स्थल होने का दावा किया जाने लगा.  इन दो फैसलों के आधार पर समझ सकते हैं कि किस तरह गोटाबाया राजापक्षे की सरकार हर धर्म के अल्पसंख्यों को सता रही थी, उन्हें मानसिक तनाव दे रही थी, सरकार की कमेटियों से बाहर कर रही थी. बहुसंख्यक जनता को भटकाने के लिए अल्पसंख्यकों पर तरह-तरह के ज़ुल्म हो रहे थे. ये सब वहां की प्रेस में छप चुका है. News first MTV Channel पर 31 दिसंबर 2021 का एक लेख है. इस लेख में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के घर की सजावट के बहाने श्रीलंका का हाल बताया गया है. यह कहा गया है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के घर की सजावट पर खर्च हो रहे हैं लेकिन श्रीलंका में तो पूर्व राष्ट्रपति को आजीवन सरकारी घर दे दिया गया है. हमारे राष्ट्रपति तो अपनी जेब से करोड़ों रुपये खर्च कर निजी जेट से तिरुपति दर्शन करने जाते हैं और यह बात जनता को शान से बताते हैं. वह जनता सवाल भी नहीं करती है कि महिंदा राजपक्षे एक किराए के मकान में रहते थे, आज इतने अमीर कैसे हो गए कि प्राइवेट जेट से भारत जाकर तिरुपति के दर्शन कर रहे हैं?

लोगों को यह नहीं चाहिए कि वह भी जेट में यात्रा करें बल्कि उन्हें चाहिए जरूरत की चीजें जैसे पेट्रोल, मिट्टी का तेल, बिजली, गैस सिलेंडर, सब्ज़ियां और नारियल और मछली भी. इस लेख में यह भी लिखा है कि जब भी हमारे नेता बकवास करें तो चुप नहीं रहना चाहिए. हमारी नियति हमारे हाथ में हैं. भवानी फोनसेका मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और वकील हैं. कई तरह से लोग बदलाव के लिए एक जुट होते नज़र आ रहे हैं. यह बड़ी बात है. लेकिन अभी भी कई ऐसे मसले हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है. इस मुश्किल की घड़ी में अलग अलग समुदाए साथ आ गए हैं लेकिन काफी भेद भाव और तकरार के मुद्दों पर हमें आगे ध्यान देने की जरूरत है. सरकार ने खराब होते हालातों को अनदेखा किया. पिछले कुछ हफ्तों में हमने देखा है कि श्रीलंका में जरूरत के समान की कमी हो रही है. लोगों को लंबी कतारों में लग कर खाने पीने की चीजें, तेल, गैस लेना पढ़ रहा है. लंबी कतारों में पेट्रोल और डीज़ल लेना पढ़ रहा है. इस संकट की चेतावनी सबको दिख रही थी. पिछले हफ्तों में कुछ लोगों की कतारों में ही मौत हो गई. लेकिन सरकार के अनदेखा करने और इनकार करने की वजह से हालत और खराब हो गए. तो हाँ, सरकार ने हालत को नहीं समझा. वो बहुत कुछ कर सकती थी. 

श्रीलंका में दो महीने से शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन हो रहे थे. हिंसा इसलिए भड़की कि लोगों को लोगों से भिड़ाने की कोशिश की. सरकार के समर्थन से लोगों को बसों में भर कर लाया गया. इन्होंने जब प्रदर्शनकारियों पर हमले किए, तब उसके जवाब में हिंसा भड़क गई.श्रीलंका के लोग ट्विटर पर लिख रहे हैं कि ग़रीब लोगों से कहा जा रहा है कि सरकार की योजना का लाभ तभी मिलेगा जब वे सरकार का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर हमले करेंगे. पुनर्वास केंद्रों से कैदियों को बसों में भर कर लाया जा रहा है ताकि सरकार समर्थक रैली बड़ी लगे. सरकारी कर्मचारी और अफसरों से कहा जा रहा है कि लोगों के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल हों. एक सांसद ने लोगों पर गोली चला दी तो भीड़ से बचने के लिए उसने खुद को ही गोली मार ली. लोगों ने खास तरीके की पूजा की है. उनसे कहा गया कि भगवान से अपनी किस्मत मांग लें या शिकायतों का समाधान? सरकार समर्थक भीड़ ने लाइब्रेरी पर भी हमला किया तो कल लोगों ने किसी तरह से किताबों और लाइब्रेरी को बचाने की कोशिश की. जनता अब कह रही है कि किताब ही जन क्रांति का सबसे बड़ा औज़ार है.

व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के देश में इस बात को नहीं समझा जा सकेगा लेकिन व्हाट्स एप के इस दौर में कहा जा रहा है कि किताब ही क्रांति का औज़ार है. श्रीलंका की हालत बहुत खराब है.वहां के पत्रकार लिख रहे हैं कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने संकट को अनदेखा किया है. जिसे समझा जाता था कि जब वह बोलेगा तभी दुनिया को पता चलेगी लेकिन अब ऐसा नहीं है. श्रीलंका की जनता सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही है, लोगों तक बातें पहुंच रही हैं. जनता अपने आप में मीडिया बन गई है. सोशल मीडिया के ज़रिए लोग अपनी बात रख रहे हैं. क्या ऐसा भारत में किसान आंदोलन में नहीं हुआ था? पत्रकार दानिश सिद्दीकी को एक बार फिर से पुलित्ज़र पुरस्कार मिला है.

दानिश को पुलित्ज़र पुरस्कार भारत में कोविड की दूसरी लहर के समय कवरेज के लिए मिला है.रायटर के चीफ फोटोग्राफर के तौर पर दानिश ने जब भारत के श्मशानों से तस्वीरें लीं तब जाकर लोगों को पता चला कि हालात क्या है. मरने वालों की गिनती केवल अंकों में नहीं हो सकती, उन तस्वीरों ने मौत से पर्दा हटा दिया. उसके बाद दानिश अफगानिस्तान चले गए जहां तालिबान और अफ़ग़ान स्पेशल फ़ोर्सेज़ के बीच की क्रॉस फ़ायर में दानिश फंस गए और गोली लगने से उनकी जान चली गई. दानिश को 2018 में फोटोग्राफी के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार भी मिल चुका है.दुनिया की ऐसी कोई प्रतिष्ठित पत्रिका नहीं होगी जहां दानिश की तस्वीरें न छपी हों. जिसने पाठकों को संवेदनशील न बनाया हो. दिल्ली दंगों में दानिश की तस्वीरें आज भी बोलती हैं. दानिश के पिता अख़्तर सिद्दीकी और शाहिदा सिद्दीकी को भी बधाई. दानिश के साथ-साथ अमित दवे, अदनान आबिदी, सन्ना इरशाद मट्टू को भी पुलित्ज़र मिला है. सभी रायटर्स से जुड़े हैं. इन सभी को बधाई. 

मूल बात यही है कि सरकार के दावे अपनी जगह लेकिन पत्रकार का काम अपनी जगह होता है. जब पत्रकार अपना काम नहीं करेंगे तब क्या होगा? इसका कोई एक जवाब नहीं हो सकता. शायद इसी का जवाब देने के लिए गृह मंत्री अमित शाह ने यह अख़बार लाँच किया है. यह असम सरकार का अख़बार है जो महीने में एक बार आएगा. जिस सरकार की हर बात उसी क्षण सारे चैनलों पर कवर होती है उसे मासिक समाचार पत्र की ज़रूरत क्यों पड़ी? पुलित्जर कमेटी को रिसर्च करना चाहिए. इन दिनों इतनी तेज़ गर्मी पड़ रही है. सारा कवरेज राजनीतिक गतिविधियों के आस-पास है. उसमें भी ढंग से चार सवाल नहीं उठाए जा रहे हैं, केवल आने-जाने का कवरेज़ हो रहा है. मगर इस महंगाई और गर्मी में आम लोग किस तरह से सामना कर रहे हैं, इसकी खबर लेते रहिए. हमने समय के हालात से अनजान मत बने रहिए. अनजान बने रहने से पानी का संकट दूर नहीं हो जाता है. महान संतूर वादक और पद्मविभूषण पंडित शिव कुमार शर्मा का निधन हो गया है.

84 वर्ष के शिव कुमार शर्मा कई दिनों से बीमार थे.उस्ताद अमजद अली ख़ान ने कहा है कि उनके निधन से एक युग का अंत हो गया है. कई फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया है लेकिन संतूर पर संगीत का दुनिया फिल्मों से कहीं बड़ी है. अगर आप जीवन से निराश हैं, किसी तरह से गर्व नहीं कर पा रहे हैं तो इस वीडियो को ध्यान से देखिए. गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को पेशी के लिए ले जाया जा रहा है. जिस तरह से आशीष मूछों पर ताव दे रहे हैं, उसे देखकर अगर आपको आनंद नहीं आता है तो फिर आप भारतीय समाज में मूछों के महत्व के बारे में नहीं जानते हैं. बाकी आप जो जानते हैं, उससे कहां किसी को संदेह हैं. सर्वज्ञाता दर्शक समाज तक यह वीडियो पहुंचे.  
 

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