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This Article is From Apr 15, 2019

क्यों ग़ायब हैं किसानों के मुद्दे किसानों के ही देश से...?

Kanhaiya Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 15, 2019 12:03 pm IST
    • Published On अप्रैल 15, 2019 11:35 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 15, 2019 12:03 pm IST

आज किसानों के बारे में लिखते समय हाल में छपी एक ख़बर दिमाग़ में आ रही है, जो सुर्खियों में अपनी जगह नहीं बना पाई. देश का लगभग आधा हिस्सा अभी सूखे की चपेट में है. जिस देश में पिछले कुछ दशकों में लाखों किसानों ने आत्महत्या की हो, वहां इस ख़बर पर कितने लोगों का ध्यान गया...? जो देश 'जय जवान, जय किसान' जैसा नारा लगाता है, वहां किसानों को लेकर सरकार या समाज में आज वैसी बेचैनी क्यों नहीं दिखती, जैसी दिखनी चाहिए...? फ़सल बीमा योजना के तहत कंपनियों को साल भर में हज़ारों करोड़ रुपये का फ़ायदा होता है और हर साल हज़ारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसा क्यों...? इसी सवाल के साथ प्रगतिशील संगठन बार-बार सड़कों पर उतरे हैं और आगे भी तब तक उतरते रहेंगे, जब तक किसानों और दूसरे वंचित तबकों के मसलों की अनदेखी होती रहेगी.

क्या किसानों की समस्याएं उनका कर्ज़ माफ़ करने से या उन्हें साल में 6,000 रुपये देने से दूर हो जाएंगी...? सरकार को यह समझना होगा कि जब ज़रूरत ओपन-हार्ट सर्जरी की हो, तो बैंड-एड देकर इलाज नहीं किया जा सकता. असली मसला तो खेती को बचाने का है, ऐसा हुआ, तो किसान ख़ुद-ब-ख़ुद बच जाएंगे. प्रधानमंत्री किसान योजना में किसान परिवार को एक दिन में लगभग साढ़े सोलह रुपये देकर उनका अपमान ही किया गया है. लेकिन इस सच पर परदा डालते हुए प्रधानमंत्री किसान योजना के बारे में एक हिन्दी अख़बार ने लिखा था, "किसान हुए मालामाल..." जब देश के इतने महत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर मीडिया के एक हिस्से में ऐसी खोखली समझ हो, तो कल्पना कीजिए कि किसान कितनी मुश्किलों से अपनी बात लोगों तक पहुंचा पाते होंगे. मुख्यधारा के मीडिया से किसानों के मुद्दे ग़ायब हैं और जब कभी अपवाद के तौर पर बात होती है, तो उसमें भी किसानों को न बुलाकर ऐसे लोगों को बुलाया जाता है, जिन्हें खेती-किसानी की समझ ही नहीं होती.

हमें इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना चाहिए कि खेती को मुनाफ़े का काम कैसे बनाया जा सकता है. किसानों को फ़सल की सही कीमत देने का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार ने आज तक लागत मूल्य में सभी खर्चों को जोड़ने की ज़रूरत नहीं समझी. लागत की परिभाषा बदलकर मोदी सरकार ने किसानों के साथ बहुत बड़ी बेईमानी की है. यही नहीं, न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में न सब्ज़ियां आती हैं, न फल और न ही नकदी फ़सलें. स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट की सिफ़ारिशें लागू करने का वादा भी असल में एक जुमला ही था.

शांता कुमार कमेटी की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार केवल छह फीसदी किसान अपनी फ़सल सरकारी दर पर बेच पाते हैं. जिस देश में संतोषी 'भात-भात' कहते हुए मर जाती है, वहां सरकारी अनाज गोदामों में सड़ जाता है. भारतीय खाद्य निगम (FCI) में अनाज की ख़रीद, भंडारण, ढुलाई और वितरण के कामों का ढंग से बंटवारा होना चाहिए. जब तक बुनियादी सुविधाएं बेहतर नहीं बनाई जाएंगी, किसानों को कोल्ड स्टोरेज, ढुलाई आदि के लिए बिचौलियों पर निर्भर होना पड़ेगा.

कर्ज़माफ़ी को ही किसानों की सभी समस्याओं को दूर करने का तरीका मानना ठीक नहीं है. दूसरी चीज़ों पर भी ध्यान देना ज़रूरी है. मसलन, किसानों की जोत लगातार छोटी होती जा रही है, जिससे उनका मुनाफ़ा बहुत कम हो गया है. 2011 में औसत जोत केवल सवा हेक्टेयर थी, जो पहले के आंकड़ों से भी कम है. इसी साल के जनसंख्या आंकड़ों के अनुसार देश के लगभग 85 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है. अगर कोऑपरेटिव खेती को बढ़ावा दिया जाए, तो बीज से लेकर सिंचाई तक हर चीज़ पर खेती की लागत कम होगी और इससे किसानों का फ़ायदा होगा. एक समस्या कर्ज़ की ऊंची ब्याज दर की भी है. स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में चार प्रतिशत दर की बात कही गई थी, जिसे और कम करने के साथ-साथ बिचौलियों पर किसान की निर्भरता को भी ख़त्म करने की ज़रूरत है. विज्ञान की मदद लेकर कीटनाशकों से लेकर सिंचाई व्यवस्था जैसी चीज़ों को बेहतर बनाने के साथ-साथ जैविक कृषि को बढ़ावा देने की ज़रूरत है, लेकिन पिछले पांच साल से देश की सरकार विज्ञान की जगह विज्ञापनों पर टैक्सपेयर का पैसा खर्च कर रही है.

राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक, यानी नाबार्ड (NABARD) के सर्वे के अनुसार, आज सिर्फ़ 12.7 फीसदी खेतिहर परिवारों की पूरी आमदनी खेती से होती है. बाकी किसानों को या तो गांव में ही मज़दूरी करनी पड़ती है या उन्हें शहरों का रुख करना पड़ता है, जहां वे कभी फुटपाथ पर सोने को मजबूर होते हैं, तो कभी उन्हें बहुत कम मेहनताने पर काम करना पड़ता है.

उनकी मौत किसानों से जुड़े किसी सरकारी आंकड़े में दर्ज नहीं होती. यहां मैं उन लाखों किसानों की बात नहीं कर रहा हूं, जिन्होंने हालिया दशकों में आत्महत्या की है. जो किसान शहरों में रोज़ी-रोटी के संघर्ष में बेनाम मौत मर रहे हैं, उनकी बात कब होगी...? जहां सरकार को अच्छी नीतियां बनाकर उन्हें लागू करना चाहिए, वहीं उसे ग़लत नीतियां बनाकर उनका प्रचार करने से ही फ़ुर्सत नहीं मिल रही. आज सभी नागरिकों, ख़ासकर युवाओं को ऐसे मसलों पर खुलकर अपनी बात रखनी चाहिए. अगर वे ऐसे ज़रूरी मसलों से ध्यान हटाकर फ़र्ज़ी मसलों पर बहस चलाने वालों की राजनीतिक दुकानें बंद कर देंगे, तो इससे किसानों की ज़िन्दगी की तस्वीर ज़रूर बदलेगी.

आज जाति-आधारित उग्र आंदोलनों की एक वजह यह भी है कि जो जातियां मुख्य रूप से खेती-किसानी पर निर्भर रही हैं, उन्हें आज रोज़ी-रोटी के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं दिख रहा. आज किसान का बेटा किसान क्यों नहीं बनना चाहता...? अगर हम खेती-किसानी की समस्याओं को ठीक से समझना चाहते हैं, तो हमें इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. आज युवाओं को सोचना होगा कि जब देश के किसान खेतों में मर रहे हों, तो फ़ेसबुक पर तिरंगे की तस्वीर डालने मात्र से उनकी ज़िम्मेदारियां पूरी नहीं होंगी. उन्हें किसानों के दुख-दर्द को समझते हुए उनके साथ अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी.

कन्हैया कुमार बिहार की बेगूसराय लोकसभा सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) प्रत्याशी हैं, और नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं.

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